अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

स्वर्णनगरी

 

मूल कहानी: ला रेजिना ले ट्रे मोउंटेन डे'ओरो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (द क्वीन ऑफ़ द थ्री माउंटेन ऑफ़ गोल्ड); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स

प्रिय पाठक, इस अंक में यह बहुत ही साधारण सी कहानी आपके लिए मैं लाई हूँ, लेकिन इसको पढ़कर शायद आपको राजा शिवि की कथा की याद आए। लीजिए प्रस्तुत है कथा: ‌ 

एक आदमी के तीन बेटे थे। वह बेचारा बहुत ख़स्ताहाली और बीमारी में दिन कट रहा था। एक दिन जब उससे पीड़ा और नहीं सही गई तो उसने तीन बेटों को अपने पास बुलाया और कहा, “तुम लोगों को मालूम ही है कि मैं किस हाल में जी रहा हूँ। अब ऐसा लगता है कि मैं बचूँगा नहीं। मेरे पास तुम लोगों को देने के लिए कुछ भी नहीं है, लेकिन मैं अपना आशीर्वाद तुम्हें देता हूँ और तुमको यह भी बताना चाहता हूँ कि मैंने सदा परिश्रम और ईमानदारी से काम किया है। तुम भी ऐसा ही करना। ईश्वर की कृपा तुम पर बनी रहेगी।”

ऐसा कहने के कुछ ही दिनों के बाद उस आदमी की मृत्यु हो गई। 

पिता की मौत के बाद सबसे बड़े बेटे ने अपने छोटे भाइयों से कहा, “जैसा पिताजी ने हमसे कहा है, अब हम लोगों को अपने लिए काम खोजना चाहिए।” और तीनों इस बड़ी दुनिया में कुछ काम ढूँढ़ने के लिए चल पड़े। 

रात पड़ने को थी, तब ये तीनों एक महल के सामने आकर रुके। आश्रय पाने के लिए महल का दरवाज़ा खटखटाया। बहुत देर तक आवाज़ें लगाईं और इधर-उधर देखा। लेकिन आसपास दूर-दूर तक कहीं कोई दिखलाई नहीं पड़ा। अब तीनों भाई अंदर चले गए। वहाँ एक मेज़ पर खाने का सामान रखा हुआ था। यह देखकर तीनों भाई भौचक्के गए। सम्हल जाने के बाद सबसे बड़े भाई ने कहा, “इस घर में कोई भी नहीं है, तो चलो हम लोग खाना खा लेते हैं! जब कोई आएगा तब हम उससे माफ़ी माँग लेंगे।” ऐसा कहकर तीनों ने भोजन कर लिया। 

महल के भीतर कुछ देर घूमने के बाद वे एक ऐसे कमरे में पहुँचे जहाँ सुंदर पलंग पर नर्म बिस्तर लगा हुआ था, दूसरे कमरे में बिस्तर के ऊपर फूल मालाएँ लगी थीं और तीसरे कमरे में उन्होंने देखा जो बिस्तर लगा है, उसके ऊपर सुनहरी पत्तियों का बना हुआ एक मुकुट भी रखा है। तीनों भाइयों ने आपस में बात की और तय किया कि ऐसा लगता है कि यह तीन बिस्तर मानो उन्हीं के लिए ही लगाए गए हैं। यदि ऐसा है तो चलो हम तीनों सो ही जाते हैं। तीनों ने अपने लिए एक-एक कमरा चुन लिया। सोने से पहले बड़े भाई ने कहा, “ध्यान रखना, सुबह जल्दी उठ जाना! मैं तुम लोगों का इंतज़ार अधिक देर नहीं करूँगा।”

अगली सुबह बड़ा भाई बहुत जल्दी उठ गया। जब उसने देखा की और दोनों भाई सोए पड़े हैं तो वह बिना कुछ बोले बाहर निकल गया। 

जब मँझला भाई उठा तो वह बड़े भाई के कमरे में गया, परन्तु वहाँ उसे वहाँ न देख वह भी तैयार होकर निकल पड़ा। 

 सबसे छोटा भाई देर तक सोता रहा। जब वह उठा और दोनों भाइयों को उसने नदारद पाया तो महल में घूमने लगा। उसने देखा कि इस समय मेज़ पर नाश्ता लग गया है। उसने जमकर नाश्ता किया और फिर खिड़की से बाहर देखने लगा। बाहर उसे एक बहुत ख़ूबसूरत बग़ीचा दिखलाई पड़ा। वह बग़ीचे में सैर के लिए चल पड़ा। सबसे छोटा भाई, जिसका नाम संदीप था, बहुत सजीला नौजवान था। बग़ीचे में टहलते-टहलते उसने झाड़ियों के बीच में एक बहुत सुंदर बावड़ी देखी। वह जब बावड़ी के नज़दीक पहुँचा, तब उसने देखा की बावड़ी के बीचों-बीच एक सुंदर स्त्री, कण्ठ तक पानी में डूबी हुई है, उसका रूप अतुल्य है परन्तु है वह एकदम मूर्ति के समान शांत और अचल। संदीप से रहा न गया उसने पूछ लिया, “सुंदरी तुम यहाँ क्या कर रही हो?” 

और उसे मूर्तिमान सुंदरी ने कहा, “तुम तो लगता है देवदूत हो, नौजवान! मैं तीन स्वर्ण पर्वतों की रानी हूँ परन्तु शापग्रस्त हूँ। मैं श्राप से तब तक मुक्त नहीं हो सकती जब तक कि कोई हिम्मती नौजवान मेरे महल में तीन रातें एक साथ न सो ले!” 

इस पर संदीप बोला, “अगर ऐसा है, तो मैं वहाँ तीन रातें स्वयं ही सोऊँगा।”

“जो नौजवान ऐसा कर पाएगा, मैं उससे विवाह कर लूँगी! बिना भयभीत हुए उसे महल में तीन रातें बितानी हैं। चाहे कितना भी शोर-शराबा हो, हिंसक पशुओं की आवाज़ें आएँ, डरना नहीं है। यदि तुम भयभीत हुए तो मालूम नहीं तुम्हारी क्या दशा है।”

“तुम विश्वास रखो, मैं बिल्कुल नहीं डरूँगा और जैसा तुम कह रही हो, मैं वैसा ही करूँगा,” संदीप बोला। 
रात होने पर नवयुवक संदीप सोने चला गया। मध्य रात्रि होते ही उसके कानों में जंगली जानवरों की गर्जनाएँ और दहाड़ें आने लगीं। उसने हिम्मत नहीं छोड़ी और मन ही मन सोचता रहा कि ‘देखें आगे क्या होता है!’ ऐसा लगा मानो कमरे में भेड़िए, भालू, बाज़, सर्प और न जाने कितने भयंकर, हिंसक पशु-पक्षी दिखाई पड़ने लगे! ऐसा लगता था मानो प्रलय आ गई हो! वह बिस्तर के आसपास दीवारों पर छत तक घूमने और भयंकर आवाज़ें निकलने लगीं! परन्तु संदीप अपने स्थान से हिला तक नहीं। धीरे-धीरे आवाज़ कम हो गई और सारे पशु-पक्षी अंतर्धान हो गए। सुबह होने पर संदीप फिर बावड़ी के पास गया आज बावड़ी की सुंदरी केवल कमर तक पानी में थी और वह प्रसन्न भी दिखाई पड़ रही थी। उसने संदीप की बहुत प्रशंसा की। 

अगली रात को भी वैसा ही हुआ। पशुओं की गर्जना, उनकी दहाड़ों से संदीप तनिक भी नहीं डरा और जब अगले दिन बावड़ी पर गया तो सुंदरी के केवल एड़ी तक पैर ही पानी में थे। उसने संदीप की प्रशंसा के तो पुल ही बाँध दिए। मुस्कुराता हुआ संदीप भोजन करने महल में वापस आ गया। तीसरी और आख़िरी रात को तो ऐसा लगता था मानो वे बनैले पशु-पक्षी उसे जीवित नहीं छोड़ेंगे। वे उसके बिस्तर पर, उसके शरीर पर भी आकर दहाड़ने और गरजने लगे। परन्तु साहसी नौजवान संदीप बिना हिम्मत हारे बिस्तर पर लेटा ही रहा और धीरे-धीरे थक-हार कर वे सारे हिंसक पशु कमरे से बाहर चले गए। अगली सुबह जब संदीप बावड़ी पर पहुँचा तो सुंदरी के केवल पैर ही पानी में थे। संदीप ने हाथ आगे बढ़ाया और सुंदरी उसके हाथ का सहारा ले बावड़ी से बाहर आ गई। दोनों महल के अंदर आए और पलक झपकते ही महल में दास-दासियों, मंत्री, दरबानों की चहल-पहल शुरू हो गई। सब ने संदीप और सुंदरी की सेवा टहल शुरू कर दी। 

तीन दिन के बाद सुंदरी और संदीप के विवाह की तिथि भी निश्चित कर दी गई। 

विवाह मंडप में जाते समय सुंदरी रानी ने कहा, “देखो नौजवान, ऐसा ना हो की हवन करते समय तुम्हें नींद आ जाए! यदि तुम झपकी लेने लगे तो मैं तुरंत ग़ायब हो जाऊँगी।” ‌ 

संदीप को हँसी आ गई। ‌‌वह बोला, “भला हवन करते समय नींद कैसे आएगी? तुम भी कैसी बातें करती हो!” 

विवाह मंडप में रीति रिवाज़ पूरे होने के बाद जब हवन का समय आया तो सचमुच संदीप को झपकी आ गई। जब वह चैतन्य हुआ तो सुंदरी रानी का कोई पता निशान ना मिला। मंडप में चारों ओर ढूँढ़ने के बाद संदीप उदास मन से महल में लौट आया। सारा चहल-पहल, रौनक़ समाप्त हो गयी थी। बहुत दुखी और उदास मन से उसने धन की एक थैली अलमारी में से निकली और चल पड़ा सुंदरी की खोज में। 

सारा दिन पैदल चलने के बाद वह एक सराय में पहुँचा। वहाँ उसने सराय के मालिक से तीन स्वर्ण पर्वतों की रानी के बारे में पूछा। सराय के मालिक ने कहा, “मैंने तो कभी उसे देखा नहीं है, बस नाम ही सुना है! हाँ बहुत सारे जंगली पशु मेरे मित्र हैं, मैं उनसे तीन स्वर्ण पर्वतों की रानी के बारे में पूछ सकता हूँ!” ऐसा कहकर सराय के मालिक ने ज़ोर से सीटी बजाई, न जाने कहाँ से देखते ही देखते बंदर, भालू, हिरन, भेड़िए इकट्ठे हो गए उनसे पूछा गया कि क्या उन्होंने तीन स्वर्ण पर्वतों की रानी को देखा है? सब ने एक स्वर में कहा कि उन्होंने ऐसी किसी रानी को शायद कभी नहीं देखा है। संदीप बहुत उदास हो गया इस पर सराय के मालिक ने कहा, “आज रात तुम आराम करो, कल मैं तुम्हें अपने उस भाई से मिलाऊँगा जो कि सभी जलचरों का स्वामी है। हो सकता है वह तुम्हें तीन स्वर्ण पर्वतों की रानी का पता बता सके।”

अगली सुबह संदीप ने सराय के मालिक को रुपयों की एक थैली भेंट की और चल पड़ा, उसके भाई से मिलने। 

जब जलचरों के रखवाले को संदीप ने बताया कि उसे उसके भाई ने भेजा है तब उसने संदीप को सराय के भीतर बुलाया और कहा, “तुम थोड़ी देर प्रतीक्षा करो मैं अभी सभी मछलियों और जलचरों को बुलाता हूँ।”

उसकी एक सीटी पर अनेक घड़ियाल, कछुए, घोंघे और मछलियाँ कमरे में आ गए। लेकिन इन जलचरों ने भी ‘तीन स्वर्ण पर्वतों’ की रानी को कभी नहीं देखा था। यह सुनकर सराय के मालिक ने उन्हें वापस भेज दिया। फिर उसने संदीप से कहा, “कल मैं तुम्हें अपने तीसरे भाई के पास भेजूँगा। वह सभी पक्षियों का रखवाला है। शायद वह तुम्हें कुछ बता सके!” 

संदीप अगले दिन की प्रतीक्षा व्यग्रता से करने लगा। सुबह उठते ही सराय के मालिक को रूपों की थैली देकर वह तीसरी सराय की ओर चल दिया। 

इस सराय के मालिक को जब उसने सारा हाल बताया तो वह संदीप की सहायता करने के लिए तत्काल राज़ी हो गया। उसकी एक सीटी पर मुर्गी, उल्लू, सारस, बगुले, कबूतर, चील सभी आकाश में मँडराने लगे। सबसे अंत में बाज़ आया और आते ही बोला, “मुझे आने में बहुत देर हो गई न, मैं महानगढ़ के राजा के विवाह का उत्सव देख रहा था। वह तीन स्वर्ण पर्वतों की रानी से विवाह जो कर रहा है।” 

यह समाचार सुनते ही संदीप की रही सही आशा भी टूट गई। इस पर पक्षियों के रखवाले ने कहा, “उदास होने की ज़रूरत नहीं है!” फिर उसने बाज़ को बुलाकर उससे पूछ कहा, “तुम इस नौजवान को महानगढ़ के राजा की शादी में ले जा सकते हैं?” 

बाज़ बोला, “क्यों नहीं, बस मेरी एक शर्त है कि जब मैं पानी माँगूँ तो मुझे पानी दिया जाए, जब मैं रोटी माँगूँ तो मुझे रोटी दी जाए, और जब मैं मांस माँगूँ तो मुझे मांस खाने के लिए दिया जाए। यदि ऐसा नहीं हो सका तो मैं राह में ही गिर जाऊँगा और इस नौजवान को भी समुद्र में फेंक दूँगा।” यह सुनकर नौजवान ने टोकरी में रोटी, मशक में पानी और थैली में मांस लिया और बाज़ पर सवार हो गया। बाज़ हवा में उड़ान भर कर चल पड़ा महानगढ़ की ओर। रास्ते भर नौजवान बाज़ की माँगें पूरी करता रहा। अभी वे समुद्र के ऊपर से उड़ान भर ही रहे थे कि मांस ख़त्म हो गया। जब बाज़ ने मांस माँगा तो संदीप के पास कोई और उपाय न बचा। उसने अपने एक पैर से मांस काटा और बाज़ को खाने को दे दिया! पैरों से बहते ख़ून को रोकने के लिए उसने अपनी पगड़ी उस पर बाँध ली। जल्दी ही वे महानगढ़ पहुँच गए। सुन्दरी रानी ने संदीप को देखा तो वह प्रसन्नता से झूम उठी, संदीप के घायल पैर की कहानी सुनकर तो वह उस पर दिलो-जान से निछावर हो गई। जब महान गढ़ के राजा को यह सारी कहानी मालूम हुई तो उसने कहा, “इस बहादुर इंसान से बढ़कर कोई दूसरा वर सुंदरी रानी के लिए नहीं हो सकता। इस नौजवान का ही विवाह सुंदरी रानी से होगा।”

महानगढ़ में इन दोनों के विवाह का उत्सव सवा महीने तक चलता रहा। वहाँ के राजा ने दिल खोल कर सारी जनता पर अपना धन लुटाया।

“जैसे तीन पर्वत स्वर्ण-पर्वतों की रानी के दिन बहुरे, वैसे ही सबके दिन बहुरें। 
क़िस्सा सुनाने वालों पर राम जी कृपा करें।”

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 तेरह लुटेरे
|

मूल कहानी: इ ट्रेडेसी ब्रिगांनटी; चयन एवं…

अधड़ा
|

  मूल कहानी: ल् डिमेज़ाटो; चयन एवं…

अनोखा हरा पाखी
|

  मूल कहानी:  ल'युसेल बेल-वरडी;…

अभागी रानी का बदला
|

  मूल कहानी: ल् पलाज़ा डेला रेज़िना बनाटा;…

टिप्पणियाँ

पाण्डेय सरिता 2023/09/17 09:34 PM

बहुत बढ़िया अनुवाद

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

वृत्तांत

स्मृति लेख

सांस्कृतिक आलेख

लोक कथा

आप-बीती

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं