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फनगन की ज्योतिष विद्या

 

भोजपुरी लोक कथा

 

एक थे पांडे़ जी नाम था फनगन। एक बार की बात है, पांडे़ जी की दुलहन गई थी अपने नैहर (मायका, माँ का घर)। कुछ दिन हो गए तो फनगन पांड़े चले अपनी दुलहन को विदा कराने, अपनी ससुराल। 

उन दिनों आजकल की तरह रेलगाड़ी, मोटर गाड़ी और हवाई जहाज़ तो थे नहीं इसलिए ब्याह भी आसपास के गाँव में ही होते थे। तो पांडे़ जी चले पैदल ही। चलते-सुस्ताते जब तक वे ससुराल पहुँचे, तब तक रात हो गई थी, घर के लोग रात का खाना खाकर सोने की तैयारी कर रहे थे! उन दिनों बिजली तो होती नहीं थी, इसलिए सूरज डूबने के बाद लोग जल्दी ही सो भी जाते थे। घरों में फ़्रिज भी नहीं होते थे, इसलिए खाना केवल ज़रूरत भर ही बनता था। तो जब फनगन ससुराल पहुँचे, तब सासु जी ने दामाद के लिए खाना बनाना शुरू किया। सासूजी कुछ उनींदी तो थीं ही, सो जल्दी-जल्दी चार रोटियाँ हाथ से थपका-थपका कर सेंकी  और दामाद को भोजन परोस दिया। थाली में प्याज़, मिर्च और अचार के साथ दो रोटियाँ। रोटियाँ ख़त्म हो गईं तो एक-एक करके बाक़ी की दो रोटियाँ भी उन्हें खिला दी गईं। अब जब फनगन उठने लगे तो मेहमान-नवाज़ी की औपचारिकता के लिए सासू माँ ने कहा, “बेटा एक रोटी और ले लो!” इस पर फनगन ने बड़ी चतुराई से कहा, “मेरा पेट भर गया है और आपके पास अब रोटियाँ भी तो नहीं बची हैं!” इस पर सासू माँ तो शरमा गईं और घर के लोग हैरान रह गए। उन्होंने बहुत सोचा, आख़िर रोटियों के ख़त्म होने की बात भला दामाद को कैसे मालूम हुई! हो ना हो हमारा मेहमान कोई पहुँचा हुआ ज्योतिषी है। 

वास्तव में हुआ यह था कि जब सासु रसोई में खाना बना रही थीं, तो उस समय फनगन राह चलकर आए थे और ख़ूब थके, और भूखे थे। उनका सारा ध्यान रसोई से आती रोटी की सुगंध पर ही लगा कि कब खाना मिले और कब खाकर सोएँ। जब हाथ से थपका-थपकाकर रोटियाँ बन रही थीं तब वह गिनते जा रहे थे कि कब रोटियाँ बनें और कब भोजन मिले! परन्तु भला यह बात वे अपनी ससुराल के लोगों के आगे कैसे करते! उनकी इज़्ज़त का सवाल जो था! सो उन्होंने कह दिया, “गणना (गिन के बदले) करके हमने जान लिया था।” अब तो सब ने सचमुच उन्हें पंडित ही मान लिया! जब फनगन सोने के लिए बिस्तर में लेटे तो मन ही मन मगन होकर गा उठे: 

“हमतौ ठोक ठोकन्ने, रोटी गन्नैं
 सबजन हम्मै, पंडित मानै“

अब अगले दिन की बात सुनो, गाँव के धोबी का गधा, जिस पर वह गंदे कपड़े लादकर नदी पर ले जाता था और धोने के बाद धुले कपड़े वापस लाता था, खो गया। सभी लोग परेशान थे। होते-होते जब बात फनगन की ससुराल तक पहुँची तो उन लोगों ने धोबी को सांत्वना दी कि उनका ज्योतिषी दामाद धोबी के गधे का पता तुरंत बता देगा। फिर क्या था, धोबी आकर फनगन के पैरों पर गिर पड़ा और अपने गधे का पता बताने की फ़रियाद करने लगा। पहले तो फनगन घबरा गए कि ‘गणना’ कहना महँगा पड़ा, पर तभी याद आया कि जब वह ससुराल के गाँव में घुसने वाले थे, तो बाहर के घूरे (गाँव के बाहर का कूड़े का ढेर) पर इन्होंने एक गधे को चरते हुए देखा था। उन्होंने सोचा हो न हो वही धोबी का गधा होगा, झटपट चतुर फनगन ने अपनी उँगलियों पर कुछ गिनने का नाटक किया, आँखें बंद की और धोबी को बताया कि वह उसके गधे को गाँव के बाहर के घूरे के आसपास देख पा रहे हैं। 

धोबी तुरन्त उस ओर दौड़ गया और अपना गधा पा गया। 

अब तो गाँव वालों पर भी फनगन के ज्योतिषी होने की धाक जम गई। रात में जब फनगन बिस्तर में लेटे तो अब उनके मन में आया:

“हमतौ ठोक ठोकन्ने रोटी गन्नैं
 घूर चरंतम् गद्ह देखैं, 
 सबजन हम्मै पंडित मानैं।” 

उस समय उनके अपने घर पर किसानी का कोई काम नहीं था, इसलिए फनगन कुछ दिन के लिए ससुराल में ही रुक गए। अभी दो दिन ही बीते थे कि ज़मींदार की हवेली से उनके लिए बुलावा आ गया। हुआ यह था कि ज़मींदार साहब का घोड़ा खो गया था और फनगन के पहुँचा हुआ ज्योतिषी होने की बात धोबी के द्वारा वहाँ तक पहुँच गई थी, घोड़ा खोजने के लिए फनगन को बुलाया गया था। फनगन घबराए तो बहुत लेकिन करते क्या? ज़मींदार की हुक्म-उदूली कैसे करते, चल पड़े हवेली की ओर!! 

कहने को तो फनगन किसान ही थे, पर थे चतुर, दुनिया के तरीक़ों के जानकार! उन्होंने घोड़े का अस्तबल देखने की इच्छा ज़ाहिर की। वहाँ देखा कि अस्तबल साफ़, सुथरा, चिकना था। फनगन को जानवरों को पालने का अनुभव था, साफ़-सुथरा अस्तबल देखकर वह समझ गए कि घोड़े को भरपेट चारा नहीं दिया जाता, सईस बेइमान है। पेट भर जाने के बाद पशु चारा इधर-उधर गिराते हैं और अस्तबल बहुत साफ़ था। अब भूखा जानवर तो वहीं जाएगा, जहाँ उसे चारा मिले। 

उन्होंने आँखें बंद की, अंगुलियों पर गणना करने का नाटक किया और होंठों ही होंठों में ऐसे बुदबुदाने लगे मानो कोई मंत्र पढ़ रहे हों: 

“हमतौ ठोक ठोकन्ने रोटी गन्नै
घूर चरंतम् गद्ह देखैं
छूटल घोड़ भुसहुले ठाढ़
 . . . सब जन हम्मैं पंडित मानैं”

और आँखें खोल कर बोले, “मलिक आप किसानों के भूसा रखने की जगहों की खोज करवाएँ। घोड़ा मिल जाएगा।”

फनगन की चतुराई इस बार भी काम आई और एक किसान के ‘भुसहुले’ (भूसा घर) में घोड़ा मिल गया। 
अब तो फनगन पांड़े का नाम आस-पास के गाँव में भी फैल गया, दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गये और ससुराल में आदर सत्कार बढ़ गया। 

एक दिन अचानक फनगन के लिए रजवाड़े से बुलावा आ गया। वहाँ जाने पर पता चला कि रानी का हार ग़ायब है, गणना करके बताना है कि हार कहाँ है? अब फनगन को काटो तो ख़ून नहीं! क्या करते कुछ देर अंगुलियों पर गणना करने का नाटक किया, आँखें बंद कीं, होंठों में बुदबदाए, फिर बोले, “महाराज हार क़ीमती चीज़ है, इसके लिए कुछ समय चाहिए।”

तुरंत उन्हें राजा के मेहमान खाने में पहुँचा दिया गया, सभी सुविधाएँ दे दी गईं, यहाँ तक की गणना करने के लिए काग़ज़-क़लम-दवात भी! 

कमरे में बैठे-बैठे रात हो गई, कभी काग़ज़ पर रेखाएँ खींचते, कभी कमरे में टहलते। घबराहट के मारे नींद भी नहीं आ रही थी। आती भी कैसे आँखों के सामने तो मौत नाच रही थी। आधी रात के बहुत बाद तक भी जब नींद नहीं आती लगी, तब फनगन बहुत व्याकुल होकर ज़ोर से बोले, “निंदिया री, तू भी आती क्यों नहीं, तू मुझे परेशान क्यों कर रही है? तू आ जाए तो थोड़ा चैन मिले!!”

अब संयोग कहिए या फनगन पांडे़ का भाग्य! हार एक नौकरानी ने चुराया था, जिसका नाम 'निंदिया' था। जबसे पंडित जी को राजा ने बुलाया था, तब से निंदिया डर के मारे, बहुत सावधान होकर उन्हीं के आसपास मँडराती रहती थी। रात में भी वह उनके द्वार के बाहर, चौखट से कान सटाए खड़ी थी। पंडित जी के मुँह से अपना नाम सुनकर उसने कमरे का दरवाज़ा खटखटा ही तो दिया। जब द्वार खुला तो बेचारी निंदिया रोती हुई फनगन के पैरों पर गिर पड़ी, अपना अपराध स्वीकार कर लिया और उनसे निवेदन किया कि वे कुछ ऐसा करें कि उसके प्राणों की रक्षा हो जाए। पांडे जी ने फिर अपनी चतुराई से काम लिया। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने निंदिया के कान में कुछ कहा और फिर आराम से सो गए। 

अगले दिन उन्होंने राजदरबार में राजा से पूछा, “क्या आपके परिवार में किसी को नींद में चलने की बीमारी है? यदि ऐसा है तो उसे यहाँ बुलाया जाए।” बहुत मालूम करने पर पता चला कि किसी को यह बीमारी तो नहीं है, हाँ निंदिया नाम की एक सेविका अवश्य है। अब उसे दरबार में बुलाया गया तो उसने स्वीकार किया कि उसे बचपन से यह बीमारी है और इसीलिए उसका नाम 'निंदिया' है! 

फनगन के कहने पर उसके घर की तलाशी ली गई और उसके घर से हार मिल गया। परन्तु फनगन ने राजा को समझा दिया था कि इसमें बेचारी दासी का कोई दोष नहीं है, बीमारी के कारण उससे यह अपराध हुआ है। उसे कोई दंड न दिया जाए, भला बीमारी की क्या सज़ा! हाँ उसका काम अवश्य बदल दिया गया, उसे रानी की सेवा से हटा दिया गया। 

राजा फनगन पांडे़ की विद्या से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने कुछ दिनों के लिए उनको महल में मेहमान बना लिया। 

एक शाम राजा ने पंडित जी को अपने साथ भोजन करने का निमंत्रण दिया। अँधेरा होने लगा था, दीपक की लौ पर पतंगे आ रहे थे। राजा को मज़ाक़ सूझा, उन्होंने एक पतंगा अपनी हथेली में पकड़कर बंद कर लिया। जब पंडित जी वहाँ आए और भोजन करने बैठ गए, तब राजा जी ने अपनी मुट्ठी पांडे जी के सामने कर दी और कहा, “पंडित जी, यदि आप बता देंगे कि मेरी मुट्ठी में क्या है, तो मैं आपको राज-ज्योतिषी के पद पर नियुक्त कर दूँगा!” अब बेचारे पंडित जी क्या करें? कोई विद्या आती होती तो कुछ कहते भी, इतनी बार उनकी सामान्य-बुद्धि के कारण उनके भाग्य ने उनका साथ दिया था, पर भाग्य के सहारे हमेशा तो नहीं रहा जा सकता! उन्हें लगा कि बस आज तो प्राणदंड ही मिलेगा सामने भोजन की थाली थी, पर भूख किसे थी? 

जबसे ससुराल आए थे तब से वे अपने ज्योतिष की चमत्कारी घटनाओं को याद करके मन ही मन बुदबदाने लगे: 

“हमतौ ठोक ठोकन्ने रोटी गन्नै
 घूर चरंतम् गद्ह देखैं, 
 छूटल घोड़ भुसहुले ठाढ़
 आइल निंदिया ले गइल हार . . . 

और अंत तब आते-आते घबराहट में, ज़ोर से बोल पड़े:

“. . . एहर ओहर से फनगन पांडे़
 पड़ि गए राजा हाथ”

अब असल भाग्य का खेल देखिए, भोजपुरी बोली में प्रकाश पर मँडराने वाले पतंगे को ‘फनगन’ कहते हैं!! 

फनगन शब्द सुनते ही राजा ने मुट्ठी खोल दी, पतंगा उड़ गया और राजा ने पांडे जी को गले लगा लिया और जल्दी ही उन्हें ‘राज-ज्योतिषी’ बनाने का अपना फ़ैसला भी दोहराया। 

अगले दिन सुबह ही पांडे जी ने महल में राजा के पास संदेश भिजवाया कि वे राजा साहब के दर्शन करना चाहते हैं। राजा ने उन्हें तुरंत बुलवा लिया। पंडित जी ने रुँआसा चेहरा बनाकर, हाथ जोड़कर, भर्राए गले से कहा, “महाराज आपसे क्या कहूँ, कल रात तो ग़ज़ब हो गया! मुझे सपने में सरस्वती माँ ने दर्शन किए दिए!”

इस पर राजा ने कहा, “यह तो बड़े सौभाग्य की बात है!” 

ज्योतिषी जी ने आँखों में आँसू भर कर कहा, “लेकिन महाराज मुझसे तो माँ बहुत नाराज़ हैं, कह रही थीं कि इस विद्या के कारण मैं अब खेती नहीं करता। केवल गणना करते हुए धन कमा रहा हूँ। मेहनत करना छोड़ चुका हूँ। इसलिए वे मेरी सारी विद्या वापस ले रही है। मेरा ज्योतिष का सारा ज्ञान ख़त्म हो गया है। मैं अपनी पत्नी को लेकर अपने गाँव वापस जाऊँगा और वहीं अपनी खेती-किसानी करूँगा।” 

ऐसा कहकर राजा को प्रणाम कर फनगन पांडे अपने घर लौट आए। 

राजा क्या करते, मन मसोस कर रह गए। फनगन पांडे़ जानते थे कि काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ती। 

केवल संयोग और भाग्य के भरोसे जीवन नहीं चलता। 

”कहानी ख़त्म पैसा हज़म”

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