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एक अनसुना त्योहार-गजरोट माता का व्रत

विद्यालय के दिनों में, प्राइमरी कक्षाओं से आगे बढ़ने पर जब, गाय-घोड़ा, माता-पिता, होली-दिवाली पर, बीस पंक्तियों के निबंध से आगे बढ़े, तो हमारी गुरुजी ने समझाया, ‘दैनिक जीवन की एकरसता को दूर करने के लिए पर्व मनाए जाते हैं।’ उस लड़कपन में तो यह वाक्य निबंध में लिखने लायक़ एक वाक्य ही लगा परन्तु अब जब जीवन की वानप्रस्थ अवस्था मैं पहुँची हूँ, तब इस वाक्य की गंभीरता और प्रासंगिकता स्पष्ट समझ में आती है। 

अब जब व्रत-त्यौहार और पर्वों के बारे में कोई विचार मन में आता है, तो सबसे पहले यह वाक्य मस्तिष्क के किसी कोने में उभरता अवश्य है। इस वाक्य ने, जाने-अनजाने मेरे मन को एक कसौटी भी दी है, जिस पर हर विशेष तिथि को एक बार मन ही मन तौलती हूँँ कि अमुक तिथि, त्योहार एकरसता को कैसे भंग करती है? 

अभी कुछ ही दिन पहले मैंने एक बहुत रोचक और आज तक मेरे लिए सर्वथा अनजान त्योहार के बारे में जाना ‘गजरोट माता का व्रत’। जब इसे एकरसता भंग करने की कसौटी पर कसा तो यह विशुद्ध ‘सोना’ सिद्ध हुआ! विशुद्ध रूप से दैनिक जीवन की एकरसता को भंग करने वाला! 

सितम्बर के पहले सप्ताह की बात है, एक सुबह उठकर मैंने अपने फ़्लैट का कॉरिडोर में खुलने वाला दरवाज़ा खोला तो देखा, साढ़े पाँच बजे की झुटपुटी-सी सुबह में जबकि कॉरिडोर की बिजली बुझा दी गई थी, तीन महिलाएँ सिर जोड़कर खड़ी आपस में बतिया रही हैं। मैं भी स्त्री हूँ, तो उत्सुकता रोक न सकी! कुछ यह भावना भी मन में थी कि आजकल के एकाकी होते जा रहे जीवन में पास-पड़ोस की ख़बर तो कम से कम रखनी ही चाहिए, तो मैं भी उनके निकट चली गई। बातचीत का कारण जानने और साझेदारी करने पर मालूम हुआ कि वह सब मिलकर यह विचार कर रही हैं कि आज किस घर में पुरुष वर्ग की कुछ घंटों की अनुपस्थिति रहेगी। अरे वाह! यह क्या बात हुई? कारण पूछने पर मालूम हुआ कि आज वह सभी ‘गजरोट’ नामक त्यौहार मनाना चाहती हैं। आज के पहले इस त्यौहार का नाम तक मैंने नहीं सुना था, सो उत्सुकता बहुत बढ़ गई और मैं उनकी बातचीत में, या कि इस त्यौहार में ही, सम्मिलित होने का निश्चय कर बैठी। 

यह त्यौहार उत्तर प्रदेश के कुछ पश्चिमी और हरियाणा के कुछ पूर्वी ज़िलों के छोटे से क्षेत्र में मनाया जाता है। एक सीमित क्षेत्र में मनाए जाने वाले और अनसुने त्योहर के पीछे जो मानसिकता है, उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। इसलिए मैं इस त्यौहार की जानकारी आप सब से साझा कर रही हूँ। 

यूँ तो भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्योहारों में महिलाओं की ही प्रमुख भूमिका होती है, परन्तु इस त्यौहार में पुरुष की उपस्थिति भी वर्जित है, यही विशेषता इसे विशेष बनाती है। परिवार की सबसे वरिष्ठ, विवाहिता महिला इस व्रत का संकल्प करती है। महिलाएँ सामूहिक रूप से गेहूँ-जौ का मिला-जुला आटा, घी और शक्कर मिलाकर तवे पर मोटा रोट (सवा किलो से दो मोटे और एक छोटा रोट) घी चुपड़ कर सेंकती हैं। हर स्त्री अपने लिए दो मोटे रोट और एक ‘मल्लू’ (छोटा रोट) बनाती है। जब यह पकवान बनाया जा रहा हो उस समय किसी पुरुष की दृष्टि भी उस पर नहीं पड़नी चाहिए। गाँव-क़स्बों में इस काम के लिए आसपास का कोई बग़ीचा या किसी घर का खुला आँगन चुन लिया जाता है! भाद्रपद की शुक्ला द्वितीया और दशमी के बीच सुविधानुसार (पुरुषों की अनुपस्थिति विशेष विचारणीय) यह मनाया जा सकता है। हिंदुओं की हर पूजा विधि में दीपक अवश्य जलाया जाता है परन्तु इस अनुष्ठान में दीपक जलाना वर्जित है, शायद इसलिए कि दीपक की रोशनी से आकर्षित हो कोई पुरुष न आ जाए! परिवार की सुख-समृद्धि के लिए यह व्रत किया जाता है। रोट थाली में रख, जल का लोटा, दूर्वा जौ के दाने, और गोबर की हाथ से बनाई गई कटोरी लेकर गजरोट माता की कथा कही-सुनाई जाती है!कथा पूरी होने पर जौ के दाने गोबर की कटोरी में बंद करके बग़ीचे या खेत में मिट्टी के अंदर दबा दिए जाते हैं। ऐसा करना समृद्धि की वृद्धि का प्रतीक माना जाता है।

कथा इस प्रकार है:

किसी समय में एक राजा और एक रानी थी। भादों के महीने में रानी ने गजरोट माता का व्रत किया। सब विधि-विधान तो राजा की अनुपस्थिति में पूरे हो गए परन्तु जब रानी ने गज रोट का टुकड़ा खाने के लिए मुँह में डाला तभी न जाने कैसे राजा जी लौट आए। इस प्रसाद को केवल स्त्रियाँ ही खा सकती हैं, यदि इसे खाने के समय पुरुष घर में हों तो अँधेरे कमरे में खाना चाहिए! सो आहट सुनकर रानी ने रोट बिस्तर में छुपा दिया। 

राजा जी जब बिस्तर पर बैठे तो उन्हें रोट की गर्मी अनुभव हुई। रानी से पूछा कि यह बिस्तर गर्म क्यों है? तो रानी ने बताया कि घर के गद्दे धूप में डलवाए थे इसलिए वे गर्म हैं। परन्तु राजा के मन में संशय आ गया। उन्होंने चादर उलट कर देख ही तो लिया! फिर क्या था राजा-रानी पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। राजा का राज्य और सब धन-वैभव पलक झपकते नष्ट हो गया। बहन के घर शरण लेने पर बहन ने ही भाई-भाभी को अपमानित किया। मित्र ने चोरी का दोष लगाया। सभी सगे संबंधियों और मित्रों ने मुँह फेर लिया। वर्ष भर राजा-रानी दर-दर भटकते कभी भीख माँगते और कभी किसी की चाकरी करके जीवन रक्षा करते रहे। अगले वर्ष फिर भादों के महीने में रानी ने किसी तरह राजा की नज़र बचाकर चोरी-चोरी नदी के किनारे जाकर रेत के रोट बनाए और सच्ची श्रद्धा से माता की पूजा की और रेत के रोट का प्रसाद खाया। माता तो बस माता ही है! रानी की भक्ति से प्रसन्न हो गई। उनका राज्य वैभव सब वापस आ गया। जिन लोगों ने उनका तिरस्कार किया था वे सब, कारण मालूम होने पर, लज्जित हुए इस प्रकार जैसे राजा रानी के दिन फिरे, सबके फिरें। 

अब आप ही बताइए यह अनोखा, लगभग अनसुना सा त्यौहार दैनिक जीवन की एकरसता को भंग करने वाला है या नहीं? 

समय बदल गया है, परन्तु आज से सात-आठ दशक पहले तक, जब स्त्रियाँ केवल संतानोत्पत्ति करतीं और परिवार की सुख-सुविधा का ध्यान रखती थीं, मध्यम वर्गीय परिवारों की स्त्रियों को रेडियो, टेलीविज़न, सिनेमा यहाँ तक कि मेले में भी जाने की विशेष स्वतंत्रता न थी। उस युग में यह त्यौहार तो स्त्रियों के लिए एक 'एग्ज़ास्ट' तरह ही काम करता होगा! पुरुष वर्ग से दूर, केवल अपनी सखी-सहेलियाँ और कई घंटों की आज़ादी! क्योंकि आधा किलो के रोट को जो कि ‘गज के समान मोटा’ हो, लकड़ी-उपले की धीमी आँच पर सिंकने में भी तो समय लगता होगा! धीमी-धीमी आँच पर घी की सुगंध उड़ाता रोट, सुख-दुख साझा करती, हँसी ठिठोली करती स्त्रियाँ अवश्य ही इस पर्व की प्रतीक्षा व्यग्रता से करतीं होंगी! व्रत की सामग्री जुटाना भी तामझाम वाला नहीं, हर घर में सहज ही मिलने वाली वस्तुएँ। इस व्रत को किया जाने वाला क्षेत्र सीमित है परन्तु उस में क्षेत्र तो इसकी लोकप्रियता बहुत अधिक है। 

हो सकता है यह पर्व अब अपनी प्रासंगिकता खो चुका हो। इसे मनाना कुछ परिवारों के लिए मात्र परंपरा का निर्वाह हो, परन्तु जिन लोगों ने ऐसे त्यौहार के बारे में सोचा वे वंदनीय हैं। वास्तव में ऐसे ही त्यौहार जीवन की एकरसता को भंग करते हैं और जीवन में उमंग-आनंद बनाए रखते हैं। 

आशा है मेरे पाठक मुझसे सहमत होंगे। 

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