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अथ-गंधपर्व

सनातन हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार इस समस्त सृष्टि की उत्पत्ति पंचमहाभूतों के विभिन्न संयोग, क्षरण और पुनर्संयोजन से हुई है। ये पंचमहाभूत हैं:

आकाश (ईथर), वायु, तेज (अग्नि), जल और पृथ्वी! इनकी उत्पत्ति पाँच तन्मात्राओं (शब्द, स्पर्श, दृष्टि, रस, गंध) के सघनीकरण से क्रमिक रूप में हुई। सर्वप्रथम ‘शब्द’ से आकाश उपजा। 

फिर शब्द+स्पर्श से वायु उपजी। शब्द+ स्पर्श+ दृष्टि से अग्नि (तेज) का प्रादुर्भाव हुआ। शब्द+ स्पर्श+ दृष्टि+ रस से जल जन्मा और सबसे अंत में शब्द+ स्पर्श +दृष्टि +रस +गंध से पृथ्वी अस्तित्व में आई। यहाँ हम पाते हैं कि ‘गंध’ में सभी पाँचों तन्मात्राएँ सम्मिलित हैं और वसुंधरा समस्त ‘गन्धों’ को धारण और प्रदान करने वाली है। 

हमारी ज्ञानेंद्रियाँ इन्हीं तन्मात्राओं के माध्यम से इस स्थूल, पंचतत्व रचित सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करती हैं—कर्णेंद्रिय (कान) से शब्द, त्वचा से स्पर्श, नेत्रों से दृष्टि, रसनेन्द्रिय (जिह्वा) से रस, और घ्राणेन्द्रिय (नाक, नासिका) से गंध का ज्ञान होता है। इस क्रम पर ध्यान देने से हमें मालूम होता है कि गंध सर्वाधिक जटिल और सशक्त तन्मात्रा है क्योंकि उसमें सभी पाँचों तन्मात्राओं का समावेश होता है। इस आलेख में मैंने ‘गंध-गाथा’ लिखने का प्रयत्न किया है। 

आधुनिक वैज्ञानिक इस तथ्य को स्वीकार करने लगे हैं कि गंध के माध्यम से जो स्मृतियाँ हमारे मानस पटल पर अंकित होती हैं, वे दृश्य, श्रव्य, आदि माध्यमों से संकलित स्मृतियों की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली और दीर्घकालिक होती हैं। आपने कभी न कभी यह अनुभव भी किया होगा कि किसी गंध विशेष के याद आ जाने से बरसों पहले की किसी घटना के समय की बातें, दृश्य, भोजन इत्यादि सब कुछ अनायास ही याद आ जाता है। आप कुछ क्षणों के लिए वर्तमान से उड़कर उसी घटना में पहुँच जाते हैं। 

गंध का हमारे जीवन की घटनाओं से कितना गहरा नाता है, यह बात हमारे पूर्वज बहुत गहराई से जानते थे। ज़रा सोचिए-यदि ‘गंध’ इतनी शक्तिशाली न होती तो भीष्म पितामह का चरित्र कैसे विकसित होता? हज़ारों वर्षों से लोकप्रिय ‘महाभारत ‘की कथा का क्या स्वरूप होता? मैं तो यहाँ तक समझती हूंँ कि यदि ‘गंध ‘में इतनी शक्ति न होती तो संभवतः पांडव और कौरवों का जन्म ही न हुआ होता। आप हैरान हो रहे होंगे कि आख़िर गंध से भीष्म और ‘महाभारत’ का क्या सम्बन्ध? तो लीजिए सुनिए-महाराज शांतनु जो प्रौढ़ावस्था को प्राप्त हो चुके थे, देवव्रत जैसे प्रतापी, युवा पुत्र के पिता थे, वे सत्यवती पर मोहित हो उससे विवाह के लिए अधीर न हुए होते तो क्या देवव्रत ‘भीष्म’ बनते? महाराज शांतनु तो सत्यवती के तन से निकली ‘मत्स्यगंध’ के कारण ही कामपीड़ित हो, उससे विवाह करने को विवश हो गए थे न! सत्यवती के यौवन से भरपूर शरीर से जो गंध निकलती थी वह एक योजन की दूरी से भी अनुभव की जा सकती थी। उसका नाम ‘मत्स्यगंधा’ और ‘योजनगंधा’ प्रचलित था। इस गंध के जादू ने ही शांतनु को इतना उन्मत्त और कामान्ध बना। दिया कि वे वह हर शर्त मानने को विवश हो गए जो विवाह के लिए रखी गईं, तभी तो देवव्रत ‘भीष्म प्रतिज्ञा’ कर बैठे। 

पुराणों के अनुसार ‘गंधमादन’ ऐसा पर्वत माना जाता था जहाँ की वनस्पतियों की गंध मनुष्य में चरम कामवासना उत्पन्न कर सकती थी, मदन को जाग्रत कर सकती थी। यही कारण था कि उर्वशी के प्रेम में डूबे हुए, पहले से किसी राजकन्या से विवाहित, राजा पुरुरवा ने ‘गंधमादन’ पर्वत पर अपना आवास बनाया, जिससे वे उर्वशी के साथ प्रेम के सागर में निरंतर डूबे रह सकें। पुरुरवा और उर्वशी की प्रेम-केलियों का वर्णन कर कालिदास अमर कवि हो गए। 

ईश्वर की पूजा-अर्चना में सबसे प्रथम स्थान सुगंधित धूप का है धूप, दीप, नैवद्य, धूप-दीप तुलसी से . . .”। महामृत्युंजय मंत्र में ईश्वर के नाम के बाद सुगंध का ही स्थान है, “त्र्यंबकम यजामहे सुगंधिम् पुष्टि वर्धनम्॥” 

अधिकांश सभ्यताओं की लोक कथाओं में नायक के ऊपर मोहित अप्सराएँ किसी गंध विशेष से उसे मूर्छित अथवा सचेत करती हुई पाई जाती हैं। जंगल में भटका राजकुमार किसी ख़ुश्बू की दिशा में चलता-चलता या तो किसी षड्यंत्र का शिकार हो जाता है या अपने लक्ष्य को सहज ही पा जाता है। राक्षस बेचारा तो “मानुष गंध” पाते ही बेचैन होने लगता है। वन्य पशु भी अपने भक्षक से बचने और भक्ष्य को पाने के लिए गंधों पर आश्रित होते हैं। बेचारे कस्तूरी मृग की व्यथा कौन नहीं जानता, जिसका पूरा जीवन अपनी ही नाभि में बसने वाली कस्तूरी की गंध के स्रोत की तलाश में भटकते हुए बीत जाता है। किसी अनुभवी शिकारी से पूछिए कि गंध का ज्ञान होना उसके लिए कितना लाभकारी होता है। 

जयदेव के कृष्ण, गोपिका राधा के संग गोकुल की कुंज में रास रचाते हुए उसके तन पर सुगंधित चंदन का लेप करते हैं तो प्रेम दीवानी मीरा ‘अगरु चंदन की चिता’ बनाकर उस पर स्वयं को भस्म कर अपने आराध्य में लीन होना चाहती है। इसी सुगंधित चंदन की लकड़ी का व्यापारी वीरप्पन ‘गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में अपना नाम दर्ज करा चुका है, भारतीय शासन के लिए कितने ही वर्षों तक वह आँख की किरकिरी बना रहा। अभी हाल में ही जिन ‘जैन साहब’ के पाताली कमरों से ट्रकों करेंसी नोट बरामद हुए वे भी तो कन्नौज के ‘इत्र’ के व्यापारी ही थे! इस ‘गंध’ की लीला तो अपरंपार है! 

कहाँ जादू नहीं चलता इस गंध का? नहाने का साबुन हर दिन नई ख़ुश्बू वाला, कपड़ों को महकाने वाला धुलाई का चूर्ण, कमरे के लिए रूम फ्रेशनर, गाड़ी के लिए कार फ़्रेश्नर। कोलोन कहो, डिओडरेंट कहो, इत्र कहो, फुलेल कहो, सभी गंधों/सुगंधों के ही तो रूप हैं! साबुन, टूथपेस्ट हैंड वॉश, शैंपू, फ़ेस क्रीम, पाउडर . . . हर जगह इस गंध का साम्राज्य! कभी सोचा है आपने इस ‘गंध’ नामक तन्मात्रा (अनुभव) का प्रचार-प्रसार और प्रभाव कितना सर्वव्यापी है! 

चावल तो चावल ही है न, मात्र एक धान्य। कभी आपने चावल के पेटेंट की कल्पना भी न की होगी। परन्तु जब इस चावल की सु+गंध पर संसार का ध्यान गया, तब ‘बासमती’ के पेटेंट के लिए जो मुद्दा खड़ा हुआ वह विश्वव्यापी बन गया! गन्ध की माया! 

सुना जाता है कि भारत में बने इत्रों को विदेशी औने-पौने दामों में ख़रीद, उन्हें भिन्न-भिन्न अनुपातों में अल्कोहल के साथ मिलाकर ‘फ्रेंच परफ़्यूम’ बनाते हैं, और फिर आकर्षक पैकिंग और मनभावन नए-नए नाम दे सैकड़ों गुना अधिक धन कमाते हैं! 

विज्ञापनों के सहारे ख़ुश्बू का व्यापार दिन दुगना रात चौगुना उन्नति कर रहा है। आधुनिक समय में तो ख़ुश्बू के ब्रांड से आपके आर्थिक और सामाजिक स्तर की पहचान होती है। दिन के प्रहर, ऋतु और अवसर के अनुसार ख़ुश्बू लगाना ही संभ्रांत और फ़ैशनेबल होना कहलाता है। 

सुगन्धियों के कैसे-कैसे विज्ञापन! ख़ुश्बू के प्रभाव से नायक के सामने मुग्धा नायिकाओं की क़तार लग जाती है! हमारे पुराणों ने तो जिस स्त्री के शरीर से कमल के फूल की सुगंध आती हो उसे ‘पद्मिनी’ उपाधि देकर श्रेष्ठ स्त्री रत्न घोषित कर दिया। उन दिनों सौंदर्य प्रतियोगिताएँ नहीं थी, संभवत इसीलिए। 

अभी हाल में ही एक समाचार पढ़ा कि जिन पति-पत्नी के पसीने की गंध एक समान होती है, उनके सम्बन्ध अधिक दिनों तक स्थिर रहते हैं। ऐसा माना जाता है कि माता और नवजात शिशु का पहला सम्बन्ध माता की गंध से स्थापित होता है। कुछ बाल चिकित्सक तो यहाँ तक सलाह देते हैं कि शिशु जन्म के बाद माताओं को तब तक बहुत अधिक सुगंध का प्रयोग नहीं करना चाहिए, जब तक शिशु माँ की गोद में अधिक समय तक रहता है! ऐसा करने से माता और शिशु के बीच अच्छी बॉन्डिंग होती है। 

वैसे सुगंध की पहचान और मूल्य को न समझने वाला व्यक्ति आदिकाल से मूढ़ ही माना जाता है वरना बिहारी ने यह दोहा न लिखा होता:

करि फुलेल को आचमन, मीठो कहत सराहि। 
ऐ गंधी मति अंध तू, अतर दिखावत काहि॥

और ‘छछूंदर के सिर में चमेली का तेल’ मुहावरा भी तो न बनता। 

‘काग़ज़ के फूलों’ की व्यर्थता तो इसी कारण है न कि वे गंधहीन होते हैं। फूलों को गंध देकर ईश्वर ने उनकी वंश वृद्धि के लिए तितली, भँवरों, मधुमक्खियों को आकर्षित करने की क्षमता दी है, तो मनुष्य अपनी इस शक्ति से खाद्य-अखाद्य की पहचान कर पाता है। खाने के अयोग्य हो गए भोजन की बदली हुई गन्ध से हमारी स्वास्थ्य रक्षा होती है। अनेक फलों का चुनाव करते समय हम उनके रंग, रूप के साथ उनकी गन्ध का भी ध्यान रखते हैं। 

पूर्ण परिपक्व हो जाने पर कुछ फलों की सुगंध इतनी तीव्र होती है कि दूर से जाने वाले जीव भी उसकी खोज में निकल पड़ते हैं। यही हाल फूलों की गंध का भी है। कुछ फूलों की गंध तो ऐसी होती है कि केवल उन जीवों को पसंद आती है जो उस फूल का परागण करने में सहायक होते हैं, बाक़ी को वे दुर्गंध युक्त लगते हैं। कटहल एक ऐसा फल है जिसके बीज का विकिरण सहज नहीं होता तो उसका पका फल इतनी तीक्ष्ण गंध उत्पन्न करता है कि दूर-दूर से पशु उसके लालच में आते हैं और कड़ा छिलका तेज दाँतों से हटाकर बीज का विकीरण करते हैं। ग़ज़ब है प्रकृति का गंध का उपयोग। 

जिन माताओं ने शिशुओं का पालन किया है, वे अच्छी तरह जानती हैं कि शिशु के उत्सर्जित पदार्थों की गंध से उनके स्वस्थ/अस्वस्थ होने का आभास हो जाता है। वैद्यकीय प्रणाली तो शारीरिक गंधों के माध्यम से रोगों का निदान आदिकाल से करती आ रही है, तब पैथोलॉजिकल लैब कहाँ थीं? 

जीवन के लिए वायु और जल के बाद भोजन ही सबसे बड़ी आवश्यकता हैः भोजन और गंध का सम्बन्ध तो कोई छुपा रहस्य है ही नहीं! बेकरी के पास से गुज़रते हुए क्या आपने कभी गहरी साँस लेकर मुँह में पानी आने का अनुभव नहीं किया है? और सब तो जाने दीजिए क्या यह परम सत्य नहीं है कि मसालों की सुगंधि ने यूरोपीय लोगों को इतना ललचाया कि वास्कोडिगामा और कोलंबस ने भारत और नई दुनिया की खोज तक कर डाली! सुगंध की प्रियता और अप्रियता हमारी शारीरिक स्थिति पर भी निर्भर करती है, भूख लगी होने पर जिस हींग और लहसुन की गंध मुँह में लार भरकर भूख उद्दीप्त करती है, वही गंध आपके कार्यालय में आपके सहयोगी के मुँह से जब आती है, तब आप उलझन में पड़ जाते हैं। कुशल रसोइया गंध से ही यह पता लगा लेता है कि मसाला अच्छी तरह भुन गया है, प्याज़ थोड़ा जल गया है या कि फिर बिरयानी पेंदी से थोड़ा लग गई है, है ना यह सब कमाल इसी गंध का। 

मदिरा के शौक़ीन तो अच्छी क़िस्म की वाइन, व्हिस्की या अन्य शराबों की गंध या सुगंध से ही मदमस्त हो जाते हैं, वही हाल चाय और कॉफ़ी का है, बढ़िया चाय-कॉफ़ी के प्याले से उठकरआती सुगंध से आप अपने पर क़ाबू नहीं रख पाते और तुरंत इन पेयों को पाना चाहते हैं। आप में से भी कई ऐसे ही शौक़ीन होंगे! जानकार लोग बताते हैं कि भोजन का सारा ‘स्वाद’ (रस) गंध के कारण ही होता है, यदि आप नाक को पूरी तरह बंद करके और आँख मीच कर खायें से सेब और प्याज़ के स्वाद में अंतर नहीं कर पायेंगे! आपने अवश्य ही अनुभव भी किया होगा कि ज़ुकाम या किसी अन्य कारण, यदि आप की नासिका भर जाए तो भोजन का स्वाद समाप्त हो जाता है। कुछ ही दिनों पहले आए ‘करोना काल’ में तो गंध का अनुभव जाते ही मौत सामने खड़ी दिखाई पड़ती थी। जब कड़वी और बेस्वाद दवा पीनी हो तो यही कहा जाता है कि ‘भाई, नाक दबाकर पी लो’! शिशुओं का पालन करते हुए मैंने यह तरीक़ा बहुत बार अपनाया है और बच्चों को कड़वी से कड़वी दवा पिलाने में सफलता प्राप्त की है। इस जटिल, सर्वप्रसरित गंध को ग्रहण करने वाला अंग ‘नासिका’ शायद इसी कारण सम्मान और प्रभाव का सूचक बना और ‘नाक ऊँची होना’, ‘नाक का बाल होना’, ‘नाक कटना’ आदि मुहावरे अस्तित्व में आ गए। 

गंध का सम्बन्ध शारीरिक स्वास्थ्य, सौंदर्य और आनंद तक ही सीमित नहीं मानसिक स्वास्थ्य और शान्ति के साथ भी इसका गहरा सम्बन्ध है। क्या आप किसी ऐसे मंदिर, मज़ार, गिरजाघर, गुरुद्वारे, अगियारी आदि धार्मिक स्थल की कल्पना कर सकते हैं जहाँ से धूप-अगरू-लोबान-हवन सामग्री अथवा अगरबत्ती की सुगंध न आ रही हो? ये सभी स्थान मन की शान्ति के केंद्र ही तो हैं, जो सुगंधियों का सहारा लेते हैं, हमारे व्यथित, थकित मन को शांत करने के लिए! 

अमुक “अगरबत्ती की सुगंधि से चंचल मन पूजा में लीन हो जाता है” यह विज्ञापन भी आपने अवश्य सुना होगा। मन की गहराइयों से गंध का गहरा नाता इस बात से ही पता लगेगा कि वर्षा की पहली फुहार से जब मिट्टी की सोंधी गंध उठती है तो न जाने कितने लोग अपने गाँव की गलियों में पहुँच जाते हैं। चूल्हे से ताज़ा सिक कर निकली रोटी की गंध नथुनों में आते ही माँ की मूरत आँखों के सामने उभर जाती है। शायर ने तो यहाँ तक कह दिया, 

“मैं साँस लेता हूँ, तेरी ख़ुशबू आती है
इक मीठा-मीठा सा पैग़ाम लाती है।”

सुगंधि पाना कितना आनंददायक अनुभव है इस बात को समझाने के लिए कबीर ने कहा—इत्र का व्यापार करने वाले व्यक्ति के सानिध्य में इसलिए रहना चाहिए कि अनायास ही सुगन्धियों का आनंद मिलता रहे—‘कबीरा संगत साधु की, ज्यों गंधी की बास, जो कुछ गंधी दे नहीं, तो भी बास सुवास’।

आधुनिक चिकित्सा पद्धति में आपने ‘अरोमा थेरेपी’ (गंध-चिकित्सा) का नाम अवश्य सुना होगा। यह प्रणाली केवल सुगंधियों से ही स्वास्थ्य-लाभ कराने का दावा करती है। भारत में बहुत प्राचीन समय से ही ओझा (witch doctor) और तांत्रिक मिर्च की धूनी से भूत भगा कर मनोरोग चिकित्सा करने का स्वाँग करते रहे हैं, (कुछ लोग लाभ का दावा भी करते हैं)। मूल रूप से वह भी तो अरोमा-थेरेपी ही है। आज भी बच्चा यदि चिड़चिड़ा हो जाए तो मायें राई, नोन और मिर्ची का धुआँ शिशु को देकर नज़र उतारती हैं। मेरी दादी सास गोद के शिशुओं को यात्रा पर ले जाते समय उनके तलवों पर हींग मिले पानी का लेप लगा कर कुदृष्टि से रक्षा का उपाय करती थीं। गर्मियों की छुट्टी में गाँव जाने पर मेरे गाँव की एक दादी हमें दोपहर में घर से बाहर इसलिए नहीं जाने देती थी कि हम ‘महकउआ साबुन’ से नहाते थे और हमारे शरीर से साबुन की जो ख़ुश्बू आती, उससे खड़ी-दोपहर में खेत-सिवान में घूमने वाल भवानी माई की सेविकाएँ आकर्षित हो सकती हैं और हम बीमार पड़ सकते हैं। ग्रामीण अंचलों में नवप्रसूता के कमरे में निरंतर धूनी जला कर बुरी आत्माओं से जच्चा और बच्चे की रक्षा सुनिश्चित की जाती थी; आजकल यह काम तीव्र गंध वाले डेटॉल, फ़िनायल इत्यादि कर देते होंगे! ऑडोमॉस, गुडनाइट, जैसे कीट-रेपेलेन्ट ‘गन्धों’ के सहारे ही कीड़ों-मकोड़ों से सुरक्षा देने का दावा करते हैं। इससे यह भी सिद्ध होता है कि सृष्टि में केवल मनुष्य और पशु ही नहीं, कीड़े-मकोड़े, यहाँ तक कि आत्माएँ और परियाँ-जिन्न तक गंधों से प्रभावित होते हैं। 

अभी और कितना सुनाऊँ!! इस ‘गंध’ की गाथा तो इतनी विशद है कि जल्दी समाप्त नहीं होगी। ऐसा हो भी क्यों न? 

हमारे शास्त्र श्वास को ‘प्राण’ कहते हैं, इस पंचमहाभूत की सबसे सशक्त और जटिल तन्मात्रा ‘गंध’ हमारे ‘प्राण’ (श्वास) के साथ शरीर में प्रवेश करती है। आप सब जानते हैं कि शरीर की हर कोशिका को ‘प्राणवायु’ चाहिए और वह रक्त के साथ वहाँ तक पहुँचती भी है, तो इस वायु के साथ शरीर के भीतर पहुँची गंध भी तो हर कोशिका तक पहुँचती ही होगी!! जो तत्व हर कोशिका तक पहुँचा हो, उसका प्रभाव काया, मन, मस्तिष्क पर सर्वाधिक तो होगा ही। फिर इससे पोषित स्मृतियाँ दीर्घकालिक, प्रभावी और अपने साथ दृश्य श्रव्य और ताप को भी लिए रहती हैं तो इसमें आश्चर्य कैसा? 

॥इति गंध पर्व॥

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टिप्पणियाँ

Mamta Dubey 2022/07/13 10:03 PM

पंचमहाभूतो में गंध की शक्ति सबसे प्रभाव शाली।बहुत नयी चीजें पढने को मिली आपने तो कननौज के जैन साहब की भी चचा कर दी। सच में गंध की गाथा विशाल है।लेख के लिए हार्दिक बधाई । ममता दुबे।

Padmavathi 2022/07/12 06:10 PM

वाह आदरणीया वाह ! आपके गंधोपाख्यान ने शब्द स्पर्श तन्नमात्रा छीन ली । चेतना शून्य होकर गंध पर्व में बहते चले गए । सांगोपांग सर्वांगीण संपूर्ण दिग्दर्शन करवा दिया । निशब्द!!! हार्दिक …हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ !

हरि शंकर 2022/07/10 11:36 AM

अति सुन्दर

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