अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

आँखों देखी, जग भुगती (सफ़रनामा)

मुझे याद है मेरे गाँव नारायणगढ़, ज़िला अम्बाला, का चनन सिंह, झंडे सिंह का बेटा भैंसे चराता था। मुश्किल से आठवीं पास ही रहा होगा। जैसे-तैसे मिन्नत कर वह डॉक्टर बेनी प्रशाद के पास कंपाउंडरी करने लगा था। मैं उस समय बहुत छोटा था और मुझे अभी इतनी समझ नहीं थी कि डॉक्टरों की क्या-क्या डिग्रियाँ होती हैं। डॉक्टर अंग्रेज़ी होते थे या देसी, मैं यह भी नहीं जानता? इनके इलावा गाँव में पंसारी भी होते थे जो बीमारी का हाल सुनकर इलाज करते थे। नुस्ख़े भी देते थे और सामग्री भी जो मेरे ख़्याल से अधिकतर घास-फूस (जड़ी-बूटियाँ) हुआ करती थीं। बनक्षे का काढ़ा सबसे पहले मेरे ज़ेहन में आता है जिसे मेरी नानी ने मेरी इच्छा के ख़िलाफ़, (ज़बरदस्ती) अपना दिल खोलकर हरेक सर्दियों में मुझे पिलाया होगा! कभी-कभार जब पेट दर्द या ख़राब होता था तो वह सौंफ़ को पहले भूनकर पीस लेती थी और फिर उसमें थोड़ी चीनी या शक्कर डालकर ज़बरदस्ती खिलाती थीं। उन दिनों उनके निर्णय के आगे मेरी एक नहीं चलती थी चाहे मैं ज़मीन पर ‘लेटनियाँ’ मार लेता। 

चनन सिंह ने एक-दो साल डॉक्टर के पास लगाकर अपनी ‘प्रैक्टिस’ गाँव लाहा से शुरू कर दी थी जो नारायणगढ़ से शायद चार-पाँच किलोमीटर की दूरी पर ही था। उसने दिन दुगुनी और रात चौगुनी ऐसी तरक़्क़ी की थी कि उसने भी आर.एम.पी. का बोर्ड लगा कर अपने एक कमरे की ईमारत को ‘चांनना अस्पताल’ का नाम दे दिया था। अब उसका प्रमाण-पत्र असली था या नक़ली, रब्ब ही जानता है। उसने एक मोटरसाइकिल भी ख़रीद लिया था जिससे वह सुबह-शाम अपने घर नारायणगढ़ आता-जाता था। 

मुझे याद है बाज़ार से आम मिलने वाली दवाइयों को अन्य डॉक्टरों की तरह वह भी पीस कर ही देता था। हरेक डॉक्टर छह-आठ पुड़ियों से (गोलियों को पीस कर) अपना इलाज शुरू करते थे और फिर अगली ‘विजिट’ पर उन्हें दवाई घटाकर दो पुड़ियाँ खाने की हिदायत देकर उन्हें यह आभास दिला देते थे कि वह अब निरोगी हो रहे हैं और बीमारी धीरे-धीरे ख़त्म हो रही है क्योंकि दवाई भी घट रही है! 

लोगों का यह मानना था कि डॉक्टर चनन सिंह उन एमबीबीएस डॉक्टरों से भी ज़्यादा पैसे बनाता जिनसे उसने मरीज़ों को टीके लगाने का काम भी सीखा था। 

अपने गुरु डॉक्टर से एक दिन कहने लगा, “डॉक्टर साहिब, मुझे टीके लगाना सिखायें!” 

“वह क्यूँ?” 

जवाब में कहने लगा, “डॉक्टर साहिब, मरीज़ों का यह रवैया है—नो पेन, नो पैसा!” वह फिर अपनी बात स्पष्ट करते हुए बोला, “जब तक मरीज़ों को कूल्हे में सूई न लगे और दर्द न हो तब तक उनकी जेब से उनका बटुआ नहीं निकलता। मैं लोगों को पुड़ियाँ देता हूँ, लोग ख़ुश होकर दो रुपये नहीं देते। मैं उनसे इलाज के पैसे माँगता हूँ तो सप्ताहांत में घर आकर प्याजों या शलजमों का थैला दे जाते हैं या फिर गन्नो की पंड! लेकिन, मैंने यह देखा है कि एक टीका लगने के बाद वे ख़ुश होकर १० रुपये भी दे जाते हैं!” (उन दिनों दस रुपये बहुत होते थे और मोरी वाला पैसा और एक आन्ना भी होता था) 

सुना है उस वक़्त ‘आरएमपी’ के सर्टिफ़िकेट भी कुछ रुपये देकर आम मिल जाते थे। डॉक्टर बनने का शौक़ रखने वाले कुछ महीने किसी डॉक्टर के पास लगाकर कुछ आम दवाइयों के नाम और उनसे किये जाने वाले इलाजों के नाम सीख लेते थे। 

होता तो यही था किसी को राजमाह खाने से पेट में जानलेवा गैस, सर्दियों में खाँसी (खाँसी जो कुछ अरसे से चल रही होती थी उसे डॉक्टर काली खाँसी का नाम दे देते थे)। 

लोगों का इलाज मरीज़ की पिछले दो दिनों की खाई ख़ुराक से अंदाज़ा लगा कर किया जाता था। इससे गंभीर बीमारी होती थी तो उस मरीज़ का ध्यान ख़ुदा अपने पास बुलाकर करता था, आधुनिक दिनों की भाँति एक्सरे, ईकेजी (EKG) और रक्त परीक्षण की मशीनें नहीं होती थीं। काटे कुत्ते का इलाज ज़ख़्म पर लाल मिर्चें बाँध कर किया जाता था। पेट में 12 टीके लगवाने से लोग कतराते थे। काटने वाले कुतों को ‘रेबीज़’, कुता पागल है या नहीं, इसके टैस्ट भला उस ज़माने में कहाँ उपलब्ध होते थे? शरीर के किसी भाग की सूजन बरोटे/बढ़ के पत्ते से या ईंट/पत्थर के एक छोटे टुकड़े को चूल्हे में गर्म करके तौलिये में लपेट कर टकोर करने से दूर हो जाती थी। बिजली के झटके लगने वाले व्यक्ति का इलाज दूध में हल्दी और देसी घी डाल कर पिला देने से हो जाता था। नीली दवाई शरीर के हर ज़ख़्म के इलाज के लिए आम हुआ करती थी और लाल दवाई कुएँ के पानी में डाली जाती थी। (KmNO4 पोटाशियम परमेगनेट)। और भगवान् आपका भला करे अस्पताल वाले पेट दर्द के लिये भी १२ नम्बर की लाल दवाई (मेरे ख़्याल है उसे मीठा सोडा घोल कर बनाते थे) खाँसी की दवाई नम्बर १४ के ज़ार में होती थी। लोग इतने सयाने थे और इलाज इतना आसान होता था कि मरीज़ ख़ुद आकर कहते थे, “डॉक्टर साहिब पेट में दर्द रहता है, १२ नम्बर की दवाई लिख दो या 14 नम्बर की खाँसी की दवा दे दो, मैं रात को खाँसी के मारे सो नहीं पाता!” 

डॉक्टर की फ़ीस के बजाय लोग घर आकर उन्हें शलगम या गाजरें दे जाते थे। आजकल के पढ़े-लिखे डॉक्टर इतने अनपढ़ हैं कि लैब टैस्ट करवा-करवाकर, जब तक आपकी क़मीज़ न उतरवा लें, तब तक उनसे इलाज नहीं होता। 

रोगी द्वारा पूछने पर कहते सुने हैं, “भाई मैं ज्योतिषी कौना, मन्ने बेरा कोनी तन्ने के बीमारी सै . . . टेस्ट देख के ही मन्ने बेरा पाटेगा कि तेरा इलाज कियूकर करूँ . . .?” 

यह तब की बात है जब टीका लगाने की पिचकारियाँ स्टील या शीशे की होती थीं और उनके आगे लगने वाली सूईयों को भी गर्म पानी में उबाल कर बार-बार, भिन्न भिन्न रोगियों पर इस्तेमाल किया जाता था। कई बार तो सूई को कूल्हे से बाहर निकालकर ‘फ़्लश’ करना पड़ता था क्योंकि उनमें भरी दवाई नहीं निकलती थी . . . सूई को भी साफ़ करने के लिये एक बारीक़ सी तार होती थी और उसे भी वैसे ही साफ़ करना पड़ता था जैसे दोनाली या बन्दूक के ‘बैरल’ को साफ़ करते हैं! 

मैंने एक बार डॉक्टर चन्न से पूछा, “डॉक्टर साहिब, मैंने अक़्सर देखा है कि आपके अस्पताल में जो एक बार अपने इलाज के लिए आता है वह दोबारा कभी नहीं आता, इसके पीछे क्या राज़ है?” 

बड़ा ईमानदार जवाब दिया था डॉक्टर साहिब ने! कहने लगे, “मेरा तो ख़्याल है मरीज़ ठीक हो जाते हैं, अग्गे वाहेगुरु ही जाने वह किधर चले जाते हैं?” 

आपको यह जानकारी होगी कि बैक्टीरियल बीमारियों में भी फ़ुज़ूल की दवा खाने से अक़्सर जुलाब लग जाते हैं और बार-बार वही दवाएँ खाने से कभी-कभी वे काम नहीं करती या अपना पूरा असर नहीं दिखाती। छोटी-छोटी ‘वायरल’ बीमारियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद औसतन एक सप्ताह से दस दिन के अंतराल में रफ़ू-चक्कर हो जाती हैं! 

ज़िन्दगी कितनी सरल हुआ करती थी। अब सोचता हूँ कि स्मार्ट फोन के बिना लोग अपना समय कैसे बिताते थे? ज़िन्दगी तो तब भी चलती थी। 

सारी ज़िन्दगी काम करने के बाद जो बैलेंस बच जाती थी बड़े आराम से क्ट जाती थी क्योंकि उस समय सयुंक्त परिवारों का चलन होता था। 

घड़ियों के अभाव में मेरी नानी जी दीवार पर धूप की परछाईंं को देखकर यह अनुमान लगा लेती थीं कि क्या टाइम हुआ है। परछाईंं देख कर ही वह मुझे डेयरी से दूध लेने भेजती थी। 

वह भी क्या दिन थे? बीमारियों का इलाज कितना सस्ता और आसान होता था। 

इलाज के बाद
बंदा ठीक हो जाता था तो। 
डॉक्टर अच्छा
वह मर जाता था तो . . . 
प्रभु इच्छा! 
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अथ केश अध्यायम्
|

  हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार…

अथ मम व्रत कथा
|

  प्रिय पाठक, आप इस शीर्षक को पढ़कर…

अथ विधुर कथा
|

इस संसार में नारी और नर के बीच पति पत्नी…

अथ-गंधपर्व
|

सनातन हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार इस…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

ललित निबन्ध

स्मृति लेख

लघुकथा

कहानी

हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी

हास्य-व्यंग्य कविता

पुस्तक समीक्षा

सांस्कृतिक कथा

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं

लेखक की पुस्तकें

  1. अंतर