ग़ुरूर
कथा साहित्य | लघुकथा अशोक परुथी 'मतवाला'15 Nov 2023 (अंक: 241, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
मेरे गाँव में एक कुम्हार था। अपने काम में बहुत कुशल था! एक से बढ़कर एक मिट्टी के बरतन बना लेता था। उसके बनाए बरतन और गमले आदि को ख़रीदने लोग दूरप-दराज़ से आते थे।
ख़ैर, कुम्हार का एक चेला भी था जो कुम्हार से काम सीख रहा था। एक दो साल बाद चेले के बरतन भी उस्ताद की तरह महँगे बिकने लगे।
बड़ा ख़ुश था चेला, कहने लगा, “गुरु जी आज मैं बड़ा ख़ुश हूँ, आज मेरे बनाए बरतन भी आप द्वारा बनाए बरतनों जितनी क़ीमत पर बिक रहे हैं!”
“शाबाश बेटा, मुझे तुम पर गर्व है। लेकिन, आज तुमसे मैं एक बात कहता हूँ . . . आज से तुम्हारा विकास होना रुक गया है!” कुम्हार ने अपने शागिर्द से कहा!
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