ज़हर किसे चढ़े?
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अशोक परुथी 'मतवाला'6 Nov 2014
शाम के लगभग पाँच बजे थे! ऑफिस से छुट्टी करके मैं मुश्किल से गली के उस छोर तक ही पहुँचा था कि मैंने सड़क पर लोगों का जमघट देखा। मजबूरी में मुझे अपनी साइकल से उतरना पड़ा जिसका घंटी के सिवाए सब कुछ बजता था। मैंने यह समझने मे तनिक देर नहीं लगाई कि किसी प्रभावशाली व्यक्ति अथवा किसी मंत्री के शव को अंतिम संस्कार के लिए ले जाया जा रहा है!
शव के पीछे-पीछे मैंने एक ऐसे व्यक्ति को भी देखा जिसने अपने हाथ में एक कुत्ते की ज़ंजीर पकड़ रखी थी। मेरी उत्सुकता माजरा जानने की हुई! भीड़ में शामिल एक व्यक्ति से पूछा, "श्रीमान, क्या हुआ, क्या सभी लोग जनाज़े के साथ हैं?"
उत्तर मिला, "नहीं साहिब! यह भीड़ जनाज़े के साथ नहीं, बल्कि उस कुत्ते को देखने और खरीदने वाले इच्छुकों की है!"
मेरी उत्सुकता कुछ और जानने की हुई! मैंने पूछा, "ऐसी क्या विशेषता है इस कुत्ते में?"
हज़ूर यही वह 'बहादुर' कुत्ता है जिसके काटने से इस भ्रष्टाचारी मंत्री की मृत्यु हुई है और जनता को राहत मिली है।"
सुनते ही मैं भीड़ को चीरता हुआ उस व्यक्ति के पास जा पहुँचा जिसने मज़बूती से कुत्ते की ज़ंजीर पकड़ रखी थी। उसे रोकते हुए मैंने पूछा, "भाई साहिब, आपको कुत्ता बेचना है क्या? बोलो कितना माँगते हो?"
"लोग पाँच हज़ार तक दे रहे हैं, मगर मैं कुत्ते को इस दाम पर बेचने को तैयार नहीं!"
"मैं सात हज़ार दे सकता हूँ, बोलो मंजूर है..?" मैं उसकी बात काटते हुए सौदा करने के अंदाज़ में बोला।
आखिर, सात हज़ार में मैंने वह कुत्ता खरीद लिया। कुत्ते की ज़ंजीर को मेरे हाथ में थमाते हुए उसके मालिक ने उत्सुकतावश पूछा, "माफ़ करना जनाब, पूछना चाहूँगा कि यह कुत्ता आपने क्यों खरीदा?"
इसे राजधानी ले जाऊँगा ...," मैंने संक्षिप्त जवाब दिया।
वहाँ क्या ऐसा ख़ास है...?"
इस कुत्ते की विशेषज्ञता से मुतल्लिक एक दो काम हैं, वहाँ भी कई भ्रष्टाचारी हैं, बस, उनका काम भी इसी के ज़िम्मे लगाऊँगा...," मैंने खिल्ली उड़ाते हुये अपनी बात पूरी की और बिना किसी झिझक अपने मकसद को स्पष्ट किया।
कुछ दिन चंडीगढ़ में रहकर मैंने कुत्ते से अपनी कुछ ''बाँडिंग" की और फिर कुछ दिनों के बाद ही मैं कुत्ते को लेकर राजधानी पहुँच गया। मुझे समाचार मिला कि उक्त मंत्री दो दिन पश्चात ही 'नोट क्लब' में एक विशाल जलसे को संबोधित करेंगे।
लसे वाले दिन श्रोतूं के रूप में मैं भी 'नोट क्लब' पहुँच गया। मंत्री जी ने मंच पर अभी 'माईक' थामा ही था कि एकत्रित लोगों में हलचल सी मच गई। नारेबाज़ी होने लगी। 'हूटिंग' स्टार्ट' हो गई - "दलबदलू ...दलबदलू ..."
लेकिन मंत्री महोदय भी खूब मंझे हुए खिलाड़ी थे। दर्शकों के सम्मुख हाथ जोड़ कर खड़े हो गये। एकाएक ऊँची आवाज़ में कहने लगे, "भाईयो और बहनों...ख़ामोश हो जाइये...मैं आपका जनसेवक हूँ, जनता की भलाई करना मेरा परम कर्तव्य है! आपको इस बात से कोई एतराज़ नहीं होना चाहिये के मैं जनसंघ में हूँ, कांग्रेस में या किसी अन्य दल में ...क्योंकि ...क्योंकि यह मुझे देखना है कि मैं किस राजनैतिक पार्टी में रहकर आप लोगों का ...जनता के अधिक से अधिक हितों का ध्यान रख सकता हूँ...उनकी हिफाज़त कर सकता हूँ!"
यह सुनकर दर्शकों (मूर्ख) ने तालियाँ पीट दीं! तभी मौका अच्छा देख कर धीरे से मैंने अपने कुत्ते को मंत्री महोदय की तरफ इशारा करके मंच पर छोड़ दिया। आशानुसार, कुत्ते ने अपना कर्तव्य निभाया और मंत्री जी को काट खाया। मन ही मन ख़ुश होकर मैं भीड़ में खिसक कर गुम
लेकिन यह क्या देखता हूँ मैं कुत्ता मंच पर ही ढेर हो चुका था और मंत्री महोदय....!"
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