बादाम खाने से अक्ल नहीं आती
हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अशोक परुथी 'मतवाला'1 Sep 2019
बादाम खाने से अक्ल नहीं आती...! आम धारणा के विपरीत आजकल तो हम में से कइयों को चोट खाने के बाद भी अक्ल नहीं आती।.. बस, थोड़ी-बहुत जो भी आती है, 'रेड-बुल' (ऊर्जा-ड्रिंक') पीने के बाद ही आती है... याद है, "अम्मी-जान" सात बादाम पूरी रात पानी या दूध में भिगोकर, नियमित रूप से नाश्ते में खाने का अक्सर मशवरा देती थीं। पता नहीं, आजकल बादामों को कुछ हो गया है या हमें, क्योंकि बादाम अपना असर करते नहीं दिखते।
मैं बादामों का नियमित रूप से सेवन करता हूँ..., क्या मैं आज 'राकेट साईंटिस्ट' हो गया हूँ? शादी करके अपने कई दोस्तों और परायों को मैंने अपनी आँखों से ख़ूब उजड़ते देखा है। इसके बावजूद भी अपनी आँखें मूँदकर, अपने होश-हवास खोकर, मैं भी एक दिन दूसरों की तरह शादी की घोड़ी पर जा बैठा। अब आप ही बतायें कि बादामों ने मेरी थोड़ी सी भी अक्ल बढ़ाई क्या? मेरे एक दोस्त का बेटा मेरी 'गंज' रोज़ देखता है। मुझे मेरी पीठ पर 'टकला" भी ज़रूर बुलाता होगा... और वह बादाम भी हर-रोज़ ख़ूब खाता है। अब आप ही बतायें कि क्या उसने मेरे तजुर्बे से कुछ सीखा है या फिर बादाम खाकर उसने सब कुछ मिट्टी कर दिया है। उसने कुछ सीखा होता तो वह शादी ही क्यों करता?
मेरे एक क़रीबी दोस्त, जो एक प्रतिष्ठित पत्रकार भी हैं, ने, हाल ही में अपनी 'फ़ेस बुक" पर यह जुमला लिखा जो उन्होंने हाल ही में 'ट्वीटर' पर पढ़ा था - "एक समय था जब मन्त्र काम करते थे, एक समय आया जिसमें तन्त्र काम करते थे, फिर समय आया जिसमे यंत्र काम करते थे, आज के समय में षड़यंत्र काम करते हैं।"
आजकल, यह जुमला थोड़ा पुराना मगर एक कड़वा सच लिये है और वज़नी भी है।
अक्ल के बारे में एक जुमला मैंने भी इसी अंदाज़ में कहने का प्रयास किया है -
"एक समय था जब बादाम खाने से अक्ल आती थी, एक समय आया जिसमें चोट खाने के बाद ही अक्ल आने लगी, आज के समय में न तो बादाम ही काम करते हैं और न ही चोट खाने के बाद ही अक्ल आती है। आज के युग में तो 'रेड बुल' ही रंग ला रहा है। लोगों की अक्ल चाहे बढ़ा न रहा हो लेकिन 'रेड बुल' पीने वालों का मानना है कि यह ऊर्जा देने वाला 'ड्रिंक' उन्हें और उनकी अक्ल को प्रतिदिन जगा रहा है।”
समय और उम्र का आज यह तक़ाज़ा है कि मुझे अपने आप को भी 'नोट' लिखकर या 'मोबाईल' में नोट डाल कर कोई बात याद करवानी पड़ती है।
उस दिन अपनी कमज़ोर होती जा रही याद-दानी को लेकर मैंने अपनी 'राम दुलारी' से जब मशवरा किया (अपनी से ही (बीवी ) सलाह ले सकता था इसलिए उसके पास गया था) तो उसने मुझसे अपनी सहानुभूति कुछ इस तरह दर्शायी - "कुछ नहीं हुआ तुम्हारी याद-दाश्त को... मैं तो तब चिंतित होना शुरू करूँगी और इस बात को सच मानूँगी जब तुम यह दो चीज़ें भूल जाओगे - अपना नाम, अपनी 'मैं', बाक़ी सब खेरी-सल्हा है।”
ऐसी ही वो बीवियाँ हैं जो कुछ दिनों बाद पति को पड़ोसिन की तरफ़ उसके झुकाव के लिए 'उलाहम्बा' (शिकायत) देने लगती हैं।
अफ़सोस कि आज पिछली सदी की वे बीवियाँ नहीं रहीं जो उस ज़माने में अपने पतियों को भगवान श्री राम की तरह पूजती थीं, उनके पाँव दबाती थीं (आजकल तो गला घोंटती हैं), जो अपने पति के नहाने के बाद उनकी शर्ट, पेंट, टाई और जुराबों का जोड़ा ढूँढ़ कर उन्हें देती थीं, कोयले वाली प्रैस से उनके कपड़े इस्त्री करती थी... लेकिन आज कल की...बहुत 'फ़्रैंक' हैं, साफ़-साफ़ मुँह पर दे मारती हैं - वे बिल्कुल भी यह कहने से नहीं शर्मातीं या सकुचातीं, "मैं तुम्हारी माँ नहीं लगती... भगवान ने तुम्हें भी मेरी तरह दो हाथ दिये हैं ...ख़ुद ढूँढ़ लो, उठकर।"
क्या आप भी मेरे दोस्त की इस राय से सहमत हैं जो निराश होकर कहता है - "अज सब चंगियाँ बीवियाँ 'मर-मुक' गईयाँ ने। (आजकल सब अच्छी बीवियाँ मर कर समाप्त हो गई हैं)"। मैं अपने दोस्त से सहमत नहीं, यह उसकी 'निजी' राय हो सकती है। ...और मुझे उसके ऐसे विचारों पर बहुत खेद है। उसकी सोच बिलकुल ख़राब है ...उसे अपनी सोच बदलनी होगी।
अब आप ख़ुद ही बताओ न कि यह कहाँ तक उचित है? आप की बेगमें आप के लिए डॉलर भी कमा कर लायें, आपके और आपके परिवार के लिए सुबह-शाम रोटियाँ भी "थप्पें", यह कहाँ का न्याय है और किस देश का क़ानून है?
...और हाँ मैं वह लंच का टिफ़िन तो भूल ही गया जो ऑफ़िस ले जाने के लिए वह मुझे कभी देती थी। क्या हुआ पत्नियों के इस फ़र्ज़ को, क्या बुराई थी इसमें? थी कोई, भला? मुझे तो उनके इस बदलाव और साज़िश के पीछे कोई 'विदेशी हाथ' लगता है।
अरे साहिब, आज सब कुछ बदल गया है। मौसम, शहर, गली-कूचे, रिश्ते-नाते, सभ्यता और तो और आज इंसान भी बदल गया है।
और अमेरिका वालों की क़िस्मत देखो। बादाम और मूँगफली के एक जैसे भाव, दो डालर में एक पाऊंड मूँगफली ख़रीद कर खा लो या फिर एक 10-12 आऊन्स का बादाम का बैग ख़रीद लो, बस एक ही बात है । खाने के माल को बाँटने में भी देखो भगवान लोगों के साथ कितना 'सौतेल्ला' व्यवहार करता है। ख़ुदा ने क्यों नहीं थोड़े और बादामों के वृक्ष भारत में लगा दिये?
कितनी विडम्बना है कि आज मौसम की तरह हम सब भी कितना बदल गए हैं। हम कितना एक दूसरे से दूर हो गए हैं, - मैं, तुम और हम-सब, कोई भी एक दूसरे का साथी नहीं रहा। दुनिया की इस भीड़ मैं, हम सब अकेले हैं, सबको अपनी-अपनी पड़ी है, बस।
माँ-बाप को अपने घर की पहली मंज़िल से अपने बच्चों को खाना खाने के लिए नीचे आने के लिए भी 'मोबाईल' से संदेशा भेजना पड़ता है। हम आज एक दूसरे से पास होने के बावजूद भी कितना दूर हो गए है दोस्त-दोस्त न रहा, वह अच्छी बीवियों का 'बैच' न रहा। बच्चे और बीवियाँ दोनों इतने 'बिज़ी' हो गये हैं कि उनके पास ’हाय-बाय' करने का भी समय नहीं रहा। आज बीवियाँ अपने पतियों को आज भी प्यार करती हैं, 'हनी-हनी' और "सोनू-सोनू" तो करती हैं मगर न जाने क्यों उनकी जेबें और उनके 'मोबाईल' हर रोज़ मौक़ा पाकर 'फरोलती' (टटोलती) हैं। आपमें से है किसी को कोई 'आईडिया कि वे ऐसा क्यूँ करती हैं?'
हे अल्लाह, मेरे ईश्वर, मेरे परवरदिगार, तेरी इस दुनिया को - मुझे, तुम्हें, उन सबको यह क्या हो गया है? मेरे बच्चों को सद्बुद्धि दे, वह तो अभी बच्चे हैं, कोई बात नहीं बड़े होकर सीख जाएँगे...
लेकिन, मेरे मौला हमारी बीवियों को, सात गुणा बुद्धि दे, मगर मेरे मौला हमारी भावनाओं को यह कह कर क़तई भी ठेस न पहुँचाना कि गुणा 'ज़ीरो' पर काम नहीं करती। अब गणित के नियम मत पढ़ाना 'प्लीज़' कि 2 + 2 = 4 लेकिन, 0 x 7 = 0 ही रहता है।
मेरे प्रभु या फिर आप कहो तो बेगम की बुद्धि पर 'झिंसिंघ' (ज़्हिंसिंह) का एक 'कोर्स' आज़मा कर देख लूँ, पहले? "दे से, एन आऊन्स ऑफ प्रीवेनशन इस बैटर देन क्योर।" (They say an ounce of prevention is better than cure.)
हे भगवन, मैं तो यही सोच कर हरदम परेशान और बीमार रहता हूँ और डरता भी हूँ कि कहीं मुझे "हार्ट अटेक" ही न हो जाये। अगर यही हाल रहा तो कि "क्या बनूँ मेरी दुनिया दा?" ...कौन देगा मुझे एक गिलास पानी ... मेरा इस दुनिया में आज कोई नहीं रहा। बस कल्लम-कलहा (अकेला) मैं ही हूँ। क्या कहा, बेगम 'राम दुलारी'...? अजी छोड़ो उसको। 'राम दुलारी' के पास तो अपने मरने का भी 'टाइम' नहीं है, वह मेरा क्या ख़्याल करेगी।"
अभी तो मेरी "लॉन्ग टर्म' अक्ल मेरा मतलब 'मेमोरी' ठीक है ...हम तो दोनों एक दूसरे को खूब...करते हैं ... 'राम दुलारी’ ने मेरी याद में एक ताजमहल बनवाने का प्रण लिया हुआ है, और उसने तो एक 'प्लाट' भी ले डाला है। अब आप ही उसे सुझाएँ या बताएँ कि समय से पहले मेरा 'भोग' डालकर वह अपना वायदा कैसे पूरा करे?
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