नक़ाब के पार
कथा साहित्य | कहानी अशोक परुथी 'मतवाला'1 Dec 2024 (अंक: 266, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
अकरम की माशूक़ा बहुत निराली थी। वह ख़ुद को मॉडर्न बताती थी पर थी बिल्कुल उसके उलट! हमेशा नक़ाब में रहती थी।
“माफ़ करना बहुत सुंदर हो क्या इसलिए अपना चेहरा नहीं दिखाती ताकि तुझे मेरी नज़र न लग जाए या फिर सुंदर नहीं हो इसलिए मुझसे अपना चेहरा छुपा कर रखती हो?” अकरम नक़ाब पहनने के कारणों को जानते हुए भी रबिया को सताता था।
अब तो रबिया भी अकरम की ‘नेचर’ ख़ूब पहचानती थी और फटाक से अकरम को कह देती, “नक़ाब क्यूँ डाला है, आपको नहीं मालूम क्या? नहीं पता तो वह भी बताऊँगी सब तुम्हें, एक दिन, एक दिन!”
“मैं बहुत ख़ुश हूँ कि अब तुम मेरे मज़ाक़ को भी समझ लेती हो।”
“पास तो आ लेने दो पहले मुझे फिर देखती हूँ कितने दिन ख़ुश रहते हो? . . .हा हा हा।”
“अच्छा भाई, पर चेहरा दिखाने में, अभी क्यूँ नहीं? अभी नहीं, क्यूँ?”
“पाकिस्तानी हूँ इसलिए, तुम मर्दों की बनाई रीत निभाती हूँ,” रबिया अक्सर अकरम को यह बताकर हमेशा चुप करा देती थी।
ख़ैर, अकरम के दिमाग़ में चाहे जो कुछ चल रहा था, अलग बात है पर उसके कमरे में रेडियो भी बज रहा था और उधर ये पैरोडी उसके मन में उधेड़-बुन कर रही थी!
ज़रा ग़ौर फ़रमाएँ: “बुरा न मानना बात का . . . यह प्यार है गिला नहीं“
रबिया शायरी भी लाजवाब करती थी और गाने इंस्टेंट गा भी लेती थी! लेकिन, न जाने क्यूँ उसके लबों से हर वक़्त यही क्यों निकलता था, “जनाब, नाम में क्या रखा है?”
अकरम भी उसे कह दिया करता था, “नाम में क्यूँ कुछ नहीं रखा, आप अपना नाम कुछ भी रखती फिरो लेकिन, मेरा नाम है अकरम, बस, एक ही नाम है मेरा . . . जैसा हूँ फ़ेसबुक पर भी मैं वैसा ही दिखता हूँ . . .” अकरम हँसता हुआ रबिया से कहता , ”बुरा न मानना बात का . . . यह प्यार है गिला नहीं”।
“लेकिन डर तुम्हें किस बात का, अपना नक़ाब उठा फेंको, सजना हूँ, आख़िरकार तेरा, हम प्यार करने वाले हैं . . . कोई पुलिस वाले तो नहीं।”
“नहीं . . . अभी नहीं जी . . . अभी थोड़ा और इंतज़ार करो, बेसब्रे अभी मत होवो जी, अभी नहीं, अभी नहीं!”
रबिया अपनी मजबूरी अकरम से साझी करती। रबिया फिर अपनी सफ़ाई देती, “तुम मानो या न मानो मैं झूठ नहीं बोलती!”
“बिल्कुल . . . ज़ाहिर है!”“
“बिल्कुल!” रबिया ने दोहराया।
“अच्छा, रबिया, यह बताओ तुम कितने साल की हो?”
“35 साल की हूँ!”
“और . . . आपकी शादी पहले कभी नहीं हुई?”
“जी, सच है . . . पहले कभी नहीं हुई!”
“आप का जन्म किस सन् में हुआ?
“1960 में! अकरम जी, एक बात कहूँ, आपसे बातें करना अच्छा लगता है। इस से पहले मुझे आज तक किसी ने मुझे नहीं सराहा है . . . इसके अलावा मुझे आप को एक बात और बतानी है . . .”
“क्या?”
“मेरा एक घर ‘रियाधसी’ में भी है, उन दिनों मैं भी वही रहती थी। मेरे मामा आज भी वहीं रहते हैं।”
“मुझे यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई कि हमारा तीसरा घर रियाद में भी होगा!” अकरम ने व्यंग्य कसते हुए कहा और रबिया अपना मुँह बनाते हुए रह गई!
फिर माहौल को भाँपते हुए अकरम रबिया से कहने लगा, “तुम भी अपने घर चाय पीकर ही जाना, लेकिन चाय बिना . . . नहीं नहीं!”
बड़ी सीधी और सुशील थी, रबिया। अकरम जो भी कहता था, वह उसकी बात मान लेती थी! स्टोव पर दो कप पानी रखकर अकरम की बग़ल में आ बैठा था! और फिर दोनों मिलकर जुगल बंदी करने में लग गए, “अभी न जाना छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं, जी, अभी न जाना छोड़कर . . .!” फिर दोनों मिलकर हँसते-हँसते दोहरे हो गए थे।
“अकरम जी, एक बात बताऊँ, आपको?”
“बताओ जल्दी से, तुम क्या सोचती हो?”
“आप जानते हैं, मैंने सिर्फ़ आप से ही अपने दिल की किताब साझी की है। आप ने ही मुझे वह अपनापन और विश्वास दिया है जिस कारण मैं अब आप से हर बात कर लेती हूँ।”
“शुक्रिया रबिया जी, मुझ पर भरोसा करने लिए। वो कहते हैं न-दिल को दिल से चाह होती है।”
अकरम जवाब में कहता और सहमति में रबिया कहती, “जनाब, आप दुरुस्त फ़रमाते हैं!”
रबिया और अकरम दोनों न्यूयॉर्क में रहते थे जब एक दूसरे से पहली बार मिले थे। शायद, एक बैंक में किसी काम से आए थे! उसके बाद दोनों में आपास बातचीत का सिलसिला चल पड़ा था।
फिर दोनों को एक दूसरे से हो गया था। क्या? दोनों को कुछ मालूम नहीं था! रबिया यूँ कहकर अक्सर झूमती फिरती—क्या प्यार इसी को कहते हैं? और अकरम कुछ ऐसा महसूसता, “मौला, जब से मिला हूँ रबिया से, मैं किसी काम का नहीं रहा!”
रबिया आदर से अकरम को ‘अकरम जी’ या सीधे ‘जनाब’ कहकर संबोधित करती थी! अकरम बयान नहीं कर पाता था कि उसका दिल राबिया से मिलकर या उसकी आवाज़ सुनकर ख़ुशी से डांडिया, गिद्दा या भांगड़ा करने क्यों लग जाता था लेकिन, रबिया के मन में क्या चल रहा था अकरम को यह जानने के लिए उसे राबिया की आँखों में झाँकना पड़ता था!
अकरम रबिया के नक़ाब से हर वक़्त घृणा करता रहता था क्योंकि, इसी कारण वह उसके चेहरे को देखकर उसकी मनोदशा का अनुमान नहीं लगा पाता था
रबिया जानती थी कि अकरम अकेला रहता था। उसकी देखभाल करने के लिए कोई नहीं था। अगर कोई अकरम के वैवाहिक जीवन के बारे में पूछता तो वह साफ़-साफ़ कह देता, “ईश्वर ने मेरा हमेशा बहुत ख़्याल रखा है, मेरी ज़िन्दगी में जो भी दुख देने वाले थे ख़ुदा ने उन सबको मेरी ज़िन्दगी से कभी का बाहर निकाल फेंका है।”
रबिया के बारे में अकरम भी बहुत कुछ जानता था कि रबिया 35 वर्ष की थी, सुंदर और पढ़ी लिखी थी! उसके अम्मीजान और अब्बू बंबई में रहते थे। उनका छोटा बेटा अहमद भी अपनी बेगम के साथ उनके पास ही रहता था।
अब। अहमद रबिया का छोटा भाई था। पिछले साल ही उसने ज़ारा से निकाह किया था!
अकरम और रबिया दोनों की आज छुटी थी। दोनों ‘मून रिसॉर्ट’ पर शाम की चाय इकट्ठे पीने के लिए सहमत हुए थे! रबिया तो अकरम को मिलने के लिए इतनी बेक़रार थी कि वह वक़्त से 15 मिनट पहले आकर, नारियल के पेड़ों तले सजी टेबल पर आकर अकरम का इंतज़ार करने लगी थी!
रबिया का स्वागत करने के बाद बैरे ने एक पानी का गिलास लाकर टेबल पर रख गया था! इस बीच उतावला हुआ अकरम भी फ़ुर्ती से रबिया की और बढ़ रहा था। उसने दूर से ही देख लिया था कि रबिया किस टेबल पर बैठी थी!
“सलाम-वाले-कम, जनाब!” झुकी नज़रों से रबिया ने अकरम का अपनी कुर्सी से उठकर स्वागत किया था!
“वाले कुम सलाम,” अकरम ने मुस्कुराते हुए जवाब में कहा।
बैरे ने अकरम के लिए भी एक ग्लास पानी का लाकर उसके सामने टेबल पर रख दिया था।
फिर अकरम से सकुचाते हुए रबिया कहने लगी, “जनाब, फ़ुर्सत तो है न, मैंने आज आपसे बहुत सवाल करने हैं और अपने मन की कुछ बातें भी करनी हैं।”
“जरूर, इसीलिए तो आज यहाँ आया हूँ! पूछो, पूछो?”
रबिया ने अकरम से ढेर सारे सवाल किए और सहज भाव से अकरम ने उनका जवाब दिया।
कुछ ही क्षणों के बाद अकरम की आवाज़ रबिया के कानों में पड़ी, “रबिया . . .!”
“हाँ,” रबिया ने ऐसे जवाब दिया जैसे उस ने जवाब दिया हो , “क्या?”
“इस से पहले कि मैं यह बात भूल जाऊँ . . . यह बताओ कल तुमने अपने अम्मी-अब्बू और भाई अहमद से बात की क्या?”
“हाँ, की . . .”
“झूठी, इतने झूठ मत बोला करो, तुझे एक दिन मौला के घर जाना है . . .”
“अकरम जी, बस एक ही समस्या है, आप मुझ पर विश्वास नहीं करते,” रबिया ने गिला किया!
“आईं एम सॉरी। अच्छा ये बताओ, घर वालों से तुम्हारी गुफ़्तुगू कैसे रही?”
“अकरम जी, आप जानते हैं, कल अम्मीजान को मैं कितना ‘मिस’ कर रही थी। घर पर अहमद और अब्बू तो नहीं थे पर अम्मी और भाभी से ख़ूब बातें हुई। अम्मी तो बस रोती ही रही, भावुक होकर। मैं जानती हूँ, उसकी आँखों में ख़ुशी के आँसू थे . . . और उनके लबों पर एक ही बात—तूने अभी तक अपना कोई साथी ढूँढ़ा है, क्या?”
“हाँ, एक ढूँढ़ा तो है, अम्मी, मेरी बेइंतहा क़द्र और तारीफ़ें करता है बस एक ही मसला है . . . अकरम उमर में मुझ से बड़ा है . . . ये लो, तस्वीरें देखो उसकी . . .” और उसी वक़्त उसने अपने कैमरे से . . . दोनों की ली हुई दो तस्वीरें अपनी अम्मी को भेज दी थीं।
“तस्वीरें मिली तुझे अम्मी?” रबिया ने तब पूछा था।
“अल्हा शुक्र, अल्हा-शुक्र!” करते हुए राबिया की अम्मी ने घुटनों पर होकर अपना माथा ज़मीं पर टिका दिया! फिर बोली, “बेटा, सोच ज़रा . . . तू अमेरिका में रह रही है, सुंदर है, माशाल्लाह, चश्मेबद्दुर, तुझे मेरी नज़र न लगे . . . भारत में तेरे लिए तुम्हारा मियाँ मिल भी गया तो . . . एक . . . तो तुम भारत की होकर रह जाएगी, न्यूयॉर्क तुझसे छूट जाएगा, तेरा सपना टूट जाएगा। फिर तुम्हारी दो तीन सौतने भी हुईं तो . . . तू तो घुट-घुटकर रह जाएगी . . . उससे अच्छा . . .। रंडुआ (डिवोर्सी) अकरम ही सही! यह बताओ बेटा अकरम करता क्या है?” रबिया की माँ ने उस से पूछा था।
“अम्मी, अकरम लिखते हैं, मेरा मतलब एक अच्छे लेखक हैं! लिखते ही नहीं, बल्कि कमाल का लिखते हैं। उन्होंने बहुत कहानियाँ लिखी है! व्यंग्य लिखने में तो उन्हें माहिर हैं . . . अम्मीजान और हाल ही में कुछ भारतीय उभरते कलाकारों ने उनके एक लेख पर आधारित एक लघु फ़िल्म भी बनाई है . . . मैंने भी देखी है . . . उनकी शॉर्ट फ़िल्म यूट्यूब पर है। आशु सेठ ने ग़ज़ब का निर्देशन किया है। टैक्सी ड्राइवर कोस्तब का शाहकार मिहिर शाह ने निभाया है और रेडियो वाली का रोल अदाकारा बिंदिया ने . . . उसके सुनने वाले उसे
‘दिलरुबा दिल्ली वाली’। मेरा मतलब ‘रेडियो वाली’ ने लाजवाब निभाया है। लघु फ़िल्म यूट्यूब चैनल पर हज़ारों बार चंद दिनों में सराही जा चुकी है। देश और विदेशी टीवी चैनलों, अख़बारों, पत्रिकाओं में ‘गुफ़्तुगू’ की समीक्षा और बहुत वाहवाही हुई है। अम्मी तू भी यूट्यूब के चैनल को ढूँढ़कर गुफ़्तुगू फ़िल्म देखना . . . लेकिन, मैं गुफ़्तुगू बारे तुझे कुछ नहीं बताऊँगी . . . तुम ख़ुद शॉर्ट फ़िल्म देखकर बताना कि फ़िल्म तुम्हें कैसी लगी?”
“ज़रूर देखूँगी बेटा, अभी ढूँढ़ती हूँ!” रबिया की अम्मी ने जवाब दिया था!
इधर रबिया इतनी ख़ुश थी कि ऊँची आवाज़ में बोलते हुए ख़ुशी से उछल रही थी! वह, फिर से अपनी माँ को बताने लगी, “अकरम बड़ा नेक इंसान है, उसका अपना बँगला है, गाड़ियाँ हैं और सबसे बड़ी बात ये कि वह मुझसे निकाह करने को भी तैयार है और मेरे मन ने भी उसे अपना शौहर बनाने के लिए अपनी हामी भर दी है . . .!” रबिया मस्त होकर बोलते जा रही थी।
“रबिया बेटा, तू झट से यह कर-अकरम को मनाकर बॉम्बे ले आ। इधर मैं तुम्हारे निकाह की तैयारियाँ करवाती हूँ . . .!”
“अम्मीजान, इतनी क्या जल्दी है आपको मेरा निकाह कराने की? अकरम मुझसे निकाह बनाने के लिए माना हुआ है, अब माने हुए को मैं क्या मनाऊँ? अम्मीजान, आप ये बताएँ कि क्या मैं आप पर बोझा हूँ क्या . . .? अमेरिका में, चाहे झूठ-मूठ की कहो . . . अपनी ज़िन्दगी जी रही हूँ, मैं! अच्छा माँ, अब फोन रखती हूँ . . . पापा तो घर हैं नहीं अब। अहमद और अब्बू दोनों को मेरा सलाम देना!”
“ओके रबिया बेटी, मुझे बहुत अच्छा लगा आज, एक अरसे बाद तेरी आवाज़ सुनकर . . . भूलना मत। तू बस जल्दी से अकरम को साथ लेकर बंबई आ जा . . . सुना तूने?”
“हाँ अम्मीजान सुना . . . अगली बार मैं अकरम जी से आपकी बात भी करवाऊँगी!”
रबिया ने ‘ख़ुदा हाफ़िज़’ कहते हुए फोन काट दिया!
“अकरम जानी, अब तो सब कुछ तुम पर है, जब निकाह के लिए आप तैयार हो जाएँ, तो बताना, भारत में चल कर निकाह करेंगे और अपना हनीमून, कश्मीर की वादियों में ‘डल लेक’ के एक शिकारे में मनाएँगे . . . सारी रात। बस मैं और तुम . . . तुम और मैं। कहो प्लान कैसा लगा, अकरम जी?”
“बेशक, एक बात कहूँ, ख़फ़ा मत होना . . . तुम कश्मीर में शादी-वादी के ऐसे प्लान बना रही हो जैसे पहले भी यहाँ कई ‘हनीमून’ मना चुकी हो,” कहकर अकरम रबिया की आँखों को पढ़ने लगा!
“अकरम जी, मेरी बात पहले आप सुनें, जनाब, हँसी-मज़ाक़ एक तरफ़ लेकिन, आप मुझसे फिर ऐसी वैसी फ़ुज़ूल बात करेंगे तो मैं आपसे ख़फ़ा हो जाऊँगी? वादा करो मुझसे, नहीं करोगे ऐसी बात . . .!”
“तुम मुझसे ऐसे नाटक करके मेरा विश्वास जीतने की कोशिश कर रही हो क्या?”
इस से पहले कि रबिया कोई जवाब दे पाती, बैरे ने आकर टेबल पर एक चाय और एक काफ़ी लाकर रख दी थी। जाने से पहले बैरा मुस्कुरा कर, झुकता हुआ बोला था, “एंजॉय इट सर!”
रबिया ने थोड़ा ड्रामा तो किया पर रुक गई, उसको मालूम था कि अगर कोई सफ़ाई भी देना चाहेगी तो सच्चाई ही निकलेगी! रबिया इसी सोच में ही थी कि अकरम ने पूछ लिया, “रबिया तुम्हें ज़िंदगी में क्या चाहिए?”
“बताती हूँ, चलो आप से शुरू करते हैं?”
“जरूर, पूछो?”
“जनाब, ज़िन्दगी में आपको क्या चाहिए?”
“प्यार! . . . और तुम्हें?” अकरम ने पूछा।
“पैसा और प्यार दोनों!”
“माना, प्यार तुम्हें मिल गया . . . और पैसे को तुम उधर रख दो। अब तुम्हें ज़िन्दगी में क्या चाहिए?”
“उधर रखा हुआ, पैसा!”
और वातावरण दोनों के ठहाकों से गूँज उठा!
अगले दिन, अकरम और रबिया ने एक-दूसरे के साथ बिताए पलों को लेकर अलग-अलग सोच में खोए अपने-अपने घर लौटे। अकरम अपने कमरे में बैठा उनकी बातचीत को याद कर रहा था। उसका मन बार-बार उस क्षण पर ठहर जाता जब रबिया ने अपनी माँ को भेजी तस्वीरों के बारे में उसे बताया था। उसने महसूस किया कि रबिया के दिल में भी उसके लिए कुछ ख़ास जगह है, लेकिन उसके नक़ाब ने अब तक उसके चेहरे की सच्चाई को छुपाए रखा था।
इधर, रबिया ने भी घर लौटकर अम्मी से लंबी बातचीत की। उसने अम्मी को साफ़ शब्दों में कह दिया, “अम्मी, मैं अकरम से मोहब्बत करती हूँ। वह मेरी इज़्ज़त करता है, मेरे ख़्याल रखता है। मैं जानती हूँ कि उसकी उम्र मुझसे ज़्यादा है, लेकिन उसके दिल की मासूमियत और उसकी बातें मेरे दिल को सुकून देती हैं। अगर वह मेरा हमसफ़र बनता है, तो मुझे यक़ीन है कि मैं ख़ुश रहूँगी।”
अम्मी ने रबिया की बात सुनकर गहरी साँस ली और कहा, “बेटा, ख़ुशी का कोई मोल नहीं। अगर तुझे यक़ीन है कि अकरम तेरा ख़्याल रखेगा, तो मैं भी ख़ुदा से यही दुआ करूँगी कि तेरा फ़ैसला सही साबित हो।”
कुछ दिनों बाद, अकरम और रबिया ने एक कॉफ़ी शॉप में मिलने का तय किया। अकरम थोड़ा नर्वस था, लेकिन इस बार वह मन ही मन एक फ़ैसला करके आया था। जब रबिया आई, तो अकरम ने उसे देखते ही कहा, “रबिया, आज मैं एक बात कहने आया हूँ। तुम्हारे नक़ाब के पीछे जो रहस्य छिपा है, वह मेरी मोहब्बत को कम नहीं कर सकता। मुझे तुम्हारे चेहरे की ख़ूबसूरती से ज़्यादा तुम्हारे दिल की सच्चाई चाहिए।”
रबिया यह सुनकर मुस्कुराई और बोली, “अकरम जी, आपको जानकर ख़ुशी होगी कि मैंने नक़ाब सिर्फ़ अपनी पहचान और संस्कार को सँजोने के लिए पहन रखा है। लेकिन आपकी मोहब्बत ने मुझे यह यक़ीन दिला दिया है कि सच्चे रिश्ते चेहरे से नहीं, दिल से बनते हैं।”
इतना कहकर रबिया ने अपना नक़ाब धीरे-धीरे हटाया। अकरम की आँखें उसकी सादगी और मासूमियत को देखकर चमक उठीं। उसने मुस्कुराते हुए कहा, “रबिया, तुम्हारी ख़ूबसूरती का कोई मुक़ाबला नहीं। और तुम्हारे दिल की ख़ूबसूरती इसे और निखार देती है।”
उस दिन के बाद, अकरम और रबिया ने एक नई शुरूआत करने का फ़ैसला किया। उन्होंने अपने परिवारों को अपनी मोहब्बत के बारे में बताया, और दोनों के घरवालों ने इस रिश्ते को ख़ुशी-ख़ुशी मंज़ूरी दे दी।
शादी के बाद, रबिया ने अकरम के साथ मिलकर उसकी कहानियों को और बेहतर बनाने में मदद की। दोनों ने मिलकर कई कहानियाँ लिखीं जो इंसानी रिश्तों, मोहब्बत और उम्मीद का पैग़ाम देती थीं।
अकरम के जीवन में रबिया का आना न केवल उसकी कहानियों में नया रंग लेकर आया, बल्कि उसकी ज़िन्दगी में भी एक नई रोशनी लेकर आया। और रबिया, जो कभी अपने नक़ाब के पीछे अपने ख़्वाबों को छुपाए बैठी थी, अब अपने ख़्वाबों को खुली आँखों से जी रही थी।
इस तरह, अकरम और रबिया की कहानी सिर्फ़ एक मोहब्बत की दास्तान नहीं रही, बल्कि यह साबित कर गई कि सच्चे रिश्ते इज़्ज़त, समझदारी और भरोसे पर टिके होते हैं।
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