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हास्य-व्यंग्य | हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी अशोक परुथी 'मतवाला'30 Jul 2014
हाल ही मे लखनऊ उ.प्र., भारत) में घटी बलात्कार की एक घटना को लेकर देश भर में काफी आक्रोश है। सरकार की तरफ़ से अब तक इस केस में जो कार्यवाही की गई है उससे आम लोग बहुत निराश और गुस्से में हैं। आम आदमी के नेता और कवि महोदय डॉक्टर कुमार विश्वास ने भी इस मुद्दे पर अपनी प्रतिक्रिया अपने इस गीत के माध्यम से व्यक्त की है। डॉक्टर विश्वास के इस गीत का क्या मतलब और आकार है, आइये इसका जायज़ा लेते हैं। (उनकी मूल टिप्पणी बक्से में देखें) डॉ. विश्वास लिखते हैं:-
सब कितना-कितना रहते हैं,
सब कितना-कितना सहते हैं,
हम क्या कुछ भी नहीं सहेंगे,
अब हम ख़ामोश रहेंगे....।"
अपनी "फ़ेस बुक पेज" पर महाशय विश्वास अपनी टिप्पणी करते हुए लिखतें हैं, "साथियों का आग्रह है कि व्यवस्था की इस वीभत्स चेहरे के ख़िलाफ़ आंदोलन होना चाहिए। कुछ करिए इस बलित्कृत बहन को न्याय दिलाने के लिए। लेकिन न्याय कैसे मिले?"
कैसे बुज़दिल भाई हैं आप, विश्वास जी? अगर आप भी किसी बहन के भाई हैं और भगवान न करे अगर उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ होता जो इस बदनसीब बच्ची के साथ हुआ है तो आप क्या करते? इस बच्ची और उसके परिवार के हितों की रक्षा के लिए आपके दिल से जो आवाज़ निकली है, वह बहुत कमज़ोर और बुज़दिलों जैसी है। यह कहते और लिखते हुए मेरे मन को बहुत बड़ी ठेस पहुँच रही है। लोग अपनी भावनाओं के आगे लाचार हैं और उन्हें भी आपकी इस सोच से बहुत धक्का लगा है और निराशा हुई है। मैं तो बस इतना ही कहूँगा कि आपने अपने सिर पर रखी हुई पगड़ी, मेरा मतलब आम आदमी की टोपी को अपने सिर से उतार कर हवा में उछाल दिया है। याद रहे, कुछ ही महीने पहले आपने इसे अपने सिर पर सजाने के लिए बहुत तत्परता और दिलचस्पी दिखाई थी?
कविवर विश्वास अपनी इस टिप्पणी में आगे लिखते हैं, "अपना सब कुछ दाँव पर लगा कर, सड़क पर किसी दामिनी के लिए लठियाँ खाओगे तो ~राजक कहलाओगे। राज्यव्यवस्था में चयनित हो कर उसका हक़ मुनासिब कराने की कोशिश करोगे तो "सत्ता-लोभी" ठहरा दिये जाओगे?
जनाब, आप अपनी बात कर रहे हैं या सत्ताधारियों की? आप अपनी ख़ुद की बात करें कि इस मुद्दे को लेकर आप ने क्या किया है या करने का (ख़ामोश रहने के इलावा) इरादा रखते हैं और इस सारे मुद्दे को लेकर आपका अपना 'स्टैंड' क्या है?
इस मामले को लेकर आपने ख़ुद का क्या दाँव पर लगाया है या किस तरह से इस मामले को लेकर अपनी आवाज़ बुलंद की है?
जनाब, आपको यदि अभी तक राजनीति या सियासत पूरी तरह से नऴीं करनी आयी तो न किया करें। क्या किसी डॉक्टर ने आपको यह बताया है कि ऐसा करना आपके स्वास्थ्य के लिए लाभप्रद है या फिर इसके बगैर आपकी रोटी हज़म नहीं होती या फिर आपके हलक से नीचे नहीं उतरती। मेरा मशवरा माने तो अपनी शायरी और मुशायरों में ही अपने आपको व्यस्त अथवा सीमित रखा करें।
आप ने समझा था, राजनीति बड़ी आसान है, रातों-रात आप एक बहुत बड़े नेता हो जाएँगे लेकिन यह बच्चों का खेल नहीं है, आप ने सुना है न कि बच्चे तेज़ चाकू से नहीं खेलते, हाथ कट जाता है।
शुक्र करें, पिछले चुनाव में आपकी सिर्फ ज़मानत ही ज़ब्त हुई है, लोगों ने पकड़ कर जूते नहीं मारे या फिर चप्पलों, टमाटरों और प्याजों से आपके सर को नहीं नवाज़ा। शायद, आप अपनी ज़मानत की राशि की वापसी की बात तो नहीं कर रहे? उसकी वापसी की भी कोई उम्मीद भी न करें क्योंकि वह तो आपका चुनाव लड़ने का शौक पूरा करने की धरोहर राशि थी और नियमों के अनुसार वापिस नहीं होती यदि कोई 'चुनाव-लड़ाकू' अपने चुनाव हल्क़े से निश्चित किये गये कम-से-कम वोट भी हासिल न कर सके।
विश्वास साहिब, क्या आपको आज यह सोच कर ताज्जुब या अचरज नहीं होता कि कैसे घटिया और दोगले लोग हैं, सब-के-सब। चुक-चुकाकर किसी दूसरे को अपना सिर तुड़वाने के लिए पहले आगे कर देते हैं और फिर ऐन मौके पर ख़ुद पीछे हट जातें हैं। देखो न, यही वे लोग हैं जिन्होंने चुनाव लड़ने के लिए आपको पैसा दिया, अपना प्यार दिया, अपने कंधों और सिर-आँखों पर बैठा कर गलियों में घुमाया, आपको भारत-दर्शन कराये, आपको अपना कीमती वक़्त दिया, आपके चुनाव अभियान में अपने को लगाकर अपने घर, बीवी और बच्चों को त्यागा, उनके नाम का टाइम आपको दिया, आपको अपना सर्वस्व दिया, नहीं दिया आपको तो सिर्फ अपना एक वोट।
निचोड़ में या संक्षेप में आपके यह विचार और बचकाना रवैया मेरी और आम लोगों की समझदानी से बाहर है। आज आपकी कविता के जवाब में, मेरा 'मतवाला' मन यह कहने के लिए मजबूर हो रहा है :-
बात का बतंगड़ बनाकर,
इतना ऊधम और शोर मचाकर,
लोगों को आशा दिखाकर,
क्यूँकर अब आप ख़ामोश रहेंगे?
कायर, डरपोक, बुज़दिल, नपुंसक
और न जाने क्या-क्या लोग कहेंगे?
अब आप जो खामोश रहोगे,
हमने कह दिया सब, अब और क्या कहेंगे?
लेकिन, हाँ, बगुआ, हम इतना ज़रूर कहेंगे-
अब आप ’गर खामोश रहेंगे
और सिर्फ तमाशखोर बनेगें,
तो मान्यवर।
तुम्हारा यह कहना है उस महिला के जैसा,
जो घर जलाकर कहती है फिर नहीं करेगी ऐसा।
अंत में, जनाब मेरा आपसे से यही एक छोटा सा निवेदन है कि अब आप राजनीति का खैड़ा छोड़े, अपना दिल और दिमाग़ सिर्फ काव्यक्षेत्र में ही लगायेँ। अपने प्यार के गीतों को जन-जन के मन की गलियों और चौबारों में फैलायेँ। यही आपकी दिशा और गति है इसी में आपकी भलाई और हित है और आप 'हिट' भी है। अपना कोई भी गीत (कोई दीवाना कहता है...को छोड़कर।) गुनगुनायेँ, इसमें मुझे या मेरे किसी हिमायती को कोई आपत्ति नहीं है।
अपने आपको मुशायरों में सक्रिय और गतिशील रखिये या इसके इलावा आपका कोई और 'फुल-टाइम' पेशा है तो उसी में अपनी रुची रखें। चुनाव लड़ने के नियमों के अनुसार अगर आप अपना पिछला पद खो बैठे हैं या बड़ी उम्र हो जाने के कारण नई नौकरी पाने के अयोग्य हो गये हैं या फिर लोग आपके वही छंद सुन-सुनकर अक गए हैं (कोई दीवाना कहता है, जैसा मैंने ऊपर ज़िक्र किया है) या जिनको सुन-सुनकर लोगों के कान अब पक गए हैं तो आम आदमी की तरह आप भी सड़क के किनारे, फुटपाथ पर केलों या मूँगफली का छाबा लगाने से न हिचकिचाएँ। एक भारतीय होने के नाते आपका यह जन्म-सिद्ध अधिकार है। इसके लिए बेचने वाले को न तो कोई दुकान या लाईसेंस लेने की ज़रूरत पड़ती है और न ही खाने वाले को मूँगफली और केले खाकर सड़क पर उसके छिलके कहीं भी फेंकने की रोक-टोक है। इस काम में यदि आप पड़ेंगे तो आपका चुनावी वादा भी पूरा हो जाएगा, हरेक एक पाव मुगफ़ली लेने वाले को या एक दर्जन चितरी के केले खरीदने वाले को चुनाव अभियान से बची हुई एक-एक झाड़ू 'गिफ्ट' में देकर। इससे लोग यह कहने लगेगें कि आप ही पहले हारे हुए एक-मात्र ऐसे नेता हैं जिसने अपनी हार के बावजूद भी चुनाव से पहले जनता को किये हुये अपने वादों को पूरा किया है।
और हाँ, कुछ ही दिनों बाद अगस्त के महीने में आप हमारे देसियों के ‘ह्यूस्टन’ में अपना 'शो' करने आ रहे हैं। आपको ‘घुटकर’ मिलने और आपके मुशायरे में शामिल होने का मैं बेसबरी से इंतज़ार कर रहा हूँ। इस आशा को लेकर मेरा मन 'गार्डेन-गार्डेन’ हो रहा है। 'मतवाला' आपके स्वागत में लाल दरी बिछाकर और अपनी रोटी-रोज़ी भुलाकर बैठा है। आजकल उसकी रातों की नींद उड़ी हुई है।
और हाँ एक शुभचिंतक होने के नाते आपको सूचित करना चाहूँगा कि पता नहीं, किस नासमझ ने आपके आने के निमंत्रण पर यह भी छपवा दिया है कि अगर लोगों को आप का शो देखकर आनंद न आया तो उनके पूरे पैसे वापिस किये जाएँगे। यह कहीं यहाँ के लोगों और आयोजकों की आपके विरुद्ध कोई साज़िश तो नहीं? कहीं यह न हो कि लोग आयें, पकोड़े, मिठाई और 'शो' का मज़ा लेने के बाद यह कहने लगें कि सब कुछ तो ठीक था मगर पकोड़े पालक और गोभी वाले नहीं थे, सारा का सारा मज़ा किरकिरा हो गया,...और इसके परिणाम स्वरूप आपको नुकसान अपनी जेब से भरना पड़े और उनके पैसे लौटाने पड़ जाएँ।
हाँ, मगर ख़ूब तैयारी करके आइयेगा और नई-नई अपनी कृतियों से ह्यूस्टन-वासियों का मन लुभाइयेगा। लेकिन, ख़बरदार, अगर आपने यहाँ राजनीति की कोई बात की तो...।
आपका शुभचिंतक और 'फ़ैन'। खुदा-हाफिज़, शब्बा-खैर और याली-मदद। अल्हा, आपको सत्तबुद्धि और सेहत अता फ़रमायें।
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