लोकजीवन की शक्ति से जुड़े सामर्थ्यवान व्यंग्यकार अशोक परूथी "मतवाला": फारूक़ आफरीदी
समीक्षा | पुस्तक समीक्षा अशोक परुथी 'मतवाला'14 Nov 2016
पुस्तक: काहे करो विलाप
लेखक: अशोक परूथी "मतवाला"
प्रकाशक: amazon.com
मूल्य: $7.99 US
आजकल व्यंग्य लेखन धड़ल्ले से हो रहा है। इसका अर्थ यह कतई नहीं लगाया जाना चाहिए कि सारा का सारा सार्थक ही रचा जा है। अख़बारों ने व्यंग्य को एक ख़ास तरह की खानापूर्ति का हिस्सा मान लिया है और इस बहाने हमारे तथाकथित कॉलमिस्ट जो मन में आए वही पेल रहे हैं। उन्हें ख़ुद पता नहीं कि वे क्या लिख रहे हैं। उन्हें तो रोज़ कुछ ना कुछ घसीटना है क्योंकि उनका"कमिटमेंट" जो है।
समाचार पत्र का पेट भरने में वे एक ग्रास का योगदान कर रहे हैं। अब वैसे संपादक भी नहीं रहे जो ये देखें कि इस तरह के लेखन से वे पाठकों को क्या दे रहे हैं। एक ज़माने में साहित्यिक समझ के लोग संपादक हुआ करते थे जबकि आज कॉर्पोरेट संपादकों की भरमार है या वे मालिकों के मर्ज़ीदान हैं। ऐसे में साहित्यिक संपादकों की बात करना बेमानी है। अलबत्ता कुछ समाचार पत्र अभी भी ऐसे हैं जहाँ लेखकों की रचनात्मक क्षमता पर भरोसा किया जाता है। व्यंग्य के क्षेत्र में कुछ ब्रांड नेम चल रहे हैं और नई प्रतिभाओं के लिए वहाँ कोई स्पेस नहीं रह गया है। इससे कुछ नया और सार्थक व्यंग्य लिखने वाला युवा वर्ग कदाचित हतोत्साहित भी हो रहा है। देश में व्यंग्य पत्रिकाएँ भी बहुत कम हैं। व्यंग्य यात्रा ने ज़रूर यह बीड़ा उठाया है कि व्यंग्यकारों की पुरानी और नयी पीढ़ी एक दूसरे को जाने। व्यंग्य के शिल्प और कथ्य के साथ उसकी आलोचना पर भी बराबर ध्यान दिया जा रहा है किन्तु आलोचना का पक्ष अभी भी बहुत कमज़ोर है। व्यंग्यकार ही आलोचक की भूमिका निभा रहे हैं। यह ग़नीमत है की अब हिन्दी साहित्य ने व्यंग्य को एक विधा के रूप में स्वीकार कर लिया है। पुराने ख़्याल के ख्यातनाम साहित्यकार तो अभी भी इसे पचा नहीं पा रहे हैं लेकिन जैसे-जैसे व्यंग्य आलोचना के स्तर पर परखा जाने लगा है वह स्वयं एक समृद्ध विधा के रूप में स्थापित होने लगा है।
व्यंग्य और गंभीर व्यंग्य लेखन के साथ हास्य व्यंग्य की विभाजन रेखा को भी समझने की ज़रूरत है। व्यंग्य के इतिहास को भी समझने की ज़रूरत है। देश के महान साहित्यकारों ने इस विधा को जितना समृद्ध किया आज उतने ही नौसिखिये उसे तबाह करने पर तुले हैं। इस बीच कुछ अच्छे व्यंग्यकार भी सामने आ रहे हैं जो आशा जगाते हैं। भ्रष्टाचार, अनैतिकता, अन्याय, सामाजिक-सांस्कृतिक-राजनैतिक विद्रूपता और भेदभाव के शमन के जिस महान उद्देश्य को लेकर इस विधा का प्रादुर्भाव हुआ है। इन पर धीर गंभीर लेखन से ही इस विधा को जीवित और जीवंत बनाए रखा जा सकता है। यह विधा तो समाज की विद्रूपताओं और विसंगतियों की छीछालेदर और समाज में तेज़ी से पनप रही असमानता, भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, अनाचार, अत्याचार से लोहा लेने और सामाजिक जागृति का शंखनाद करने के लिए ही जन्मी है। व्यंग्यकार समाज को बदलने का दावा नहीं कर सकता बल्कि व्यंग्य तो सामाजिक बदलाव लाने की एक सतत प्रक्रिया भर है। इसमें वही व्यंग्यकार सफल है जो अपनी बात को बिना किसी लाग-लपेट के चुभन के साथ अपनी शैली में बड़ी सफ़ाई से गहरी पैठ रखने वाली भाषा और शैली में प्रस्तुत कर सकता है। मसखरी का यहाँ कोई स्थान नहीं हैं। देश और समाज के साथ मसखरी करने वालों पर प्रहार करने का काम व्यंग्य का है। यह जटिलताओं और जोखिम भरा काम है। इसे सरल मानकर चलने का जो एक चलन हो गया है वह बहुत ख़तरनाक है। चाटुकारिता और असहिष्णुता के इस समय में देश एवं समाज के हितों के लिए अपनी प्रतिबद्धता रखने वाले लेखकों के लिए यह एक बड़ी और गंभीर चुनौती है।
वर्तमान समय व्यंग्य के लिए अधिक संकट का समय है। यह स्वतंत्र अभिव्यक्ति पर गहरे प्रश्नचिन्ह लगाने वाला समय है। असहिष्णुता के इस दौर में किसी पर व्यंग्य करना ख़तरे झेलने से कम नहीं है। करारा व्यंग्य करने पर यहाँ तक कहा जाने लगा है कि "अब यह तो गया काम से।" चेतावनी भरे लेखन को लेकर असहिष्णुता पहले भी रही है किन्तु वर्तमान में असहिष्णुता कुछ ज़्यादा ही बढ़ गयी है। यह असहिष्णुता अब कई रूपों में देखी जा सकती है। अगर लेखक की यह अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता ही छिन गयी तो साहित्य समाज को वह क्या नई दिशा देगा। हर दौर में लेखक ने समाज में बढ़ती सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक उच्छ्खृंलता पर अपनी क़लम चलाई है। समाज और सत्ता ने लेखक को लिखने की आज़ादी दी है लेकिन अब अभिव्यक्ति की आज़ादी के मायने और उसकी मर्यादायें समझाई जाने लगी हैं। जब हालात ऐसे हों तो व्यंग्य को और भी गंभीरता से लेने और इसके इस्तेमाल के लिए नए औज़ारों पर सोचना ज़रूरी हो जाता है। इसके लिखने वालों की ज़िम्मेदारी और ख़तरे दोनों भी बढ़ जाते हैं। इसे व्यंग्य के क्षेत्र में आने वाली नई पीढ़ी को समझना होगा।
अशोक परूथी "मतवाला" एक ऐसे व्यंग्यकार हैं जो भारतीय पृष्ठभूमि के हैं और अढ़ाई दशकों से अमेरिका में बसे हुए हैं। पहले से ही हास्य-व्यंग्य लिखते रहे हैं और भले ही कम लिखते हों किन्तु बराबर लिखते आ रहे हैं। सद्य व्यंग्य संग्रह "काहे करे विलाप" उनकी पहली व्यंग्य कृति है जो देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनके अब तक छुटपुट लेखकीय अनुभव का विस्तार है और इस नाते बधाई के पात्र हैं।
जैसा कि अशोक परुथी ने पुस्तक समर्पण में लिखा है कि उन्हें श्लोकों, दोहों, टोटकों, व्यंग्य, कथा-कहानियों आदि को संग्रह करने की रुचि प्रारम्भ से थी और यह संस्कार उन्हें अपने पिता से विरासत में मिले जो किसी भी बात को बड़ी सरलता से कहावतों, चुटकलों, टोटकों और शायरी-दोहों आदि के माध्यम से कह देते थे। वे अपने तीखे व्यंग्य और अप्रत्याशित ढंग से किसी भी बात को कहने में बड़े निपुण और कुशल थे और उनका मिज़ाज विशेषकर मज़ाहिया था। यह निश्चय ही एक गौरवशाली विरासत है जिसका असर लेखक की रचनाओं में उभर कर सामने आता है।
इस संग्रह में सिर्फ गंभीर व्यंग्य रचनाएँ ही नहीं हैं जो जीवन के उतार-चढ़ावों के बीच विषाद, हताशा, संघर्ष, पीड़ा, वेदना, करुणा और हर्ष की अभिव्यक्ति रही हों बल्कि हास्य-रस से ओतप्रोत रचनाओं से भी साक्षात्कार करती हैं जिनमें लेखक का अनुभूतियों भरा कौशल दिखाई देता है। इस संग्रह को सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत बनाने का काम देशी मुहावरों और लोकोक्तियों ने किया है। यहाँ कहना होगा कि लोक मानस की रचनाओं पर गहरी छाप है। इसे आप ज़मीन से जुड़े रहने कि संज्ञा भी दे सकते हैं और सर्जनात्मक लेखन को यह ख़ूबी पुख़्ता बनाती है।
‘पापी पेट का सवाल है" में वे लिखते हैं – "पेट यदि इंसान को विवश करने पर उतर आये तो पूरे शरीर को सरे बाज़ार दाँव पर लगाकर बिकने पर मजबूर कर दे! पेट अपने काम में बड़ा सक्षम है। सब्र और पेट की तो एक तरह से दुश्मनी ही है।" इस बहाने वे मानुषी की धन लिप्सा और हवस पर गहरी चोट करते है। वे आगे लिखते हैं – भगवान ने हमें दिल दिया, दिमाग़ दिया, आँखें दी, नाक दिया, हाथ-पाँव दिये और शरीर रूपी गाड़ी दी जिसके सुचारू संचालन के लिए कई कलपुर्जे जोड़े। यह सब तो बहुत अच्छा किया लेकिन पेट देकर मानो यह कहावत ही चरितार्थ कर दी – "बकरी ने दूध दिया, मींगने डाल कर!" "आइडेंटिटी थेफ्ट" पर इनका एक व्यंग्य "रामजी के रिकार्ड रूम से चोरी" है जिसे इन्होंने बहुत रोचक शब्दों में लिखा है। किराए के मकान तलाश करने वाले छड़ों की समस्या पर उनका करारा व्यंग्य है – इसी तरह किराए के मकान तलाश करने वालों की व्यथा को दर्ज करते हुए लिखा है – "हम छड़ों" को ऐसे देखता है जैसे "हम" कोई उग्रवादी हों या फिर उनकी जवान लड़की को ले उड़ेंगे!" इसमें कहीं "रंडी के जँवाई की तरह" जैसे शानदार मुहावरे प्रयुक्त किए गए हैं तो कहीं स्वयं पर चुटकी ली है और कहीं मकान मालिक की मनःस्थिति को भी भाँपने की कोशिश की गयी है।
टी.वी. या रेडियो चैनल अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाते हैं इस पर भी ज़ोरदार कटाक्ष करने से लेखक चूका नहीं है। इसी तरह डॉक्टरी के पेशे पर जिस तरह "वित्त विचार" है उस पर भी लेखक ने क़लम चलाई है तो राजनीति पर भी उसकी चुप्पी नहीं है। आजकल राजनेता अपने नए नए शगूफ़ों से नागरिकों को बरगलाए रखते हैं उनका चित्रण भी इन व्यंग्य रचनाओं में बख़ूबी और भली भाँति हुआ है। सामयिक घटनाओं पर उनके व्यंग्य की जो शैली अपनाई गयी है वह भी रोचक बन पड़ी है। पारिवारिक सम्बन्धों में बढ़ती जा रही ख़राश, मानव मन की पीड़ाओं और विपदाओं के साथ जीवन को बाहर से प्रभावित करने वाली घटनाओं और दुर्घटनाओं, मिलावटखोरी सहित विविध विषयों पर इस संग्रह में ऐसी अनेक उल्लेखनीय रचनाएँ हैं जिन्हें पढ़कर पाठक को लगेगा कि ये उसकी अपनी रचनाएँ हैं और अशोक परूथी "मतवाला" ने उन्हें शब्दों में बाँधा है। "बस, यही थोड़ी तकलीफ़ है", "यह तो होना ही था", "हाय मेरी बत्तीसी", "बोलो जी, आज क्या बनाऊँ" और "साडे नाल रहोगे तो योगा करोगे" कुछ ऐसे ही व्यंग्य हैं।
"मतवाला" एक संभावनाशील रचनाकार है और वे जिस तरह लोक जीवन से जुड़े हैं उससे आशा की जानी चाहिए कि उनके इस संग्रह का पाठक हृदय से स्वागत करेंगे और भविष्य में वे और बेहतर संग्रह के साथ व्यंग्य उपन्यास पर भी विचार करेंगे।
शुभ कामनाओं सहित,
जनाब फारूक़ आफरीदी
(वरिष्ठ व्यंग्यकार, कवि, राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ और भारतेंदु हरिश्चंद्र संस्थान के उपाध्यक्ष तथा गौसेवा और मानव सेवा के लिए समर्पित आह्वान संस्था के अध्यक्ष। मुख्यमंत्री के पूर्व विशेषाधिकारी।)
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