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घुँघरू की रुनझुन

बात उन दिनों की है जब, तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग, में काम करने वाले मेरे पति की नियुक्ति 'बॉम्बे हाई' (तेल क्षेत्र का नाम) के सागर तल की सतह के अध्ययन के लिए डेटा एकत्रित करने के लिए हुई थी। 

हम मुंबई के एक उपनगर में रहते थे। मेरी गोद में उन दिनों दो वर्ष की बेटी थी। पति को कई-कई दिनों तक घर से बाहर अन्वेषी पोतों पर रहना होता था। हमारा घर चौथी मंज़िल के एक फ़्लैट में था, जहाँ से गोराई खाड़ी का सुंदर दृश्य दिखलाई पड़ता था और समुद्री हवाओं के झोंके घर में बेरोकटोक आते-जाते थे। 

दीपावली का त्यौहार आया, इस अवसर पर पति घर में थे, तो ख़ूब आनंद से त्यौहार मनाया गया। उन दिनों घरों की सजावट के लिए बिजली के बल्बों की रोशनी का प्रचलन नहीं था, व्यापारिक संस्थान ही इनका उपयोग करते थे, हवा के झोंकों के कारण दीये-मोमबत्ती का अधिक देर तक टिक पाना कठिन था, पर दीपावली हो और घर की सजावट ना हो! 

सौभाग्य से हमारी इमारत ऐसी जगह थी, जहाँ बिल्कुल पास में हापुस (अल्फांसो) आमों का बग़ीचा था। हम बग़ीचे से ख़ूब सारे आम्र-पत्र तोड़ लाए। मैंने बंदनवार बना डाले। प्रवेश द्वार पर तो तोरण बाँधे ही, खिड़कियों पर भी बाँधे। एक फ्रेंच विंडो खाड़ी की तरफ़ खुलती थी, इस खिड़की पर तो कुछ अधिक ही बंदनवार बाँध दिए, कहते हैं ना इस कलयुग में लक्ष्मी जी ’पिछले दरवाज़े’ अधिक कृपा करती हैं, फिर मुंबई तो लक्ष्मी का नगर ही ठहरा!! 

तो ख़ूब सजावट की गई उस खिड़की की! त्यौहार हो गया। रोज़ की दिनचर्या शुरू हो गई। कुछ दिन बीते, पति के फिर सर्वे बोट पर जाने का समय आ गया। 

अधिकतर सजावट समेट दी गई थी, बड़ी खिड़की की बंदनवार मैंने इसलिए छोड़ दी कि शायद भूले-भटके लक्ष्मी जी को मेरी खिड़की दिखलाई ही पड़ जाए!! हमारी इमारत अभी नई बनी थी, बीस फ़्लैटों में से अभी केवल तीन में परिवार रहते थे, बाक़ी ख़ाली पड़े थे। हमारा घर चौथी मंज़िल पर था, उसके नीचे की दो मंज़िलों में कोई नहीं रहता था। पति जब बाहर गए होते तो एक छोटी बिटिया के साथ रहने के कारण मैं अतिरिक्त सावधान रहती थी। शाम से ही सारे खिड़की दरवाज़े बंद कर लेती थी। उस दिन भी सब कुछ रोज़ की तरह किया। बिटिया को अपने पलंग पर ही लेकर सो गई। रात में अचानक नींद हल्की हुई तो रुनझुन की अतिप्रिय ध्वनि कानों में आई। इस सुमधुर ध्वनि को सुन मेरी नींद काफ़ूर हो गई। चैतन्य होकर सोचने लगी कि यह कौन है? छत से आवाज़ आ नहीं रही है! नीचे की मंज़िलें ख़ाली पड़ी है! लेटे-लेटे मन में शाम की सारी गतिविधियाँ दोहरा डालीं, कोई खिड़की दरवाज़ा खुला नहीं छोड़ा था, फिर यह कौन चल रहा है, इतने दबे पैरों? सोचते-सोचते शरीर में झुरझुरी हो गई, हो न हो यह कोई ’भूतनी’ है? बिल्डिंग के कई फ़्लैट यूँ ही ख़ाली पड़े हैं, हो सकता है किसी में इसका बसेरा हो! अभी तक तो कभी भूत-प्रेत पर विश्वास करने का अवसर नहीं आया था, परंतु अपने परिजनों से दूर, इस महानगर के एकाकी-से फ़्लैट में बेटी के लिए स्वयं को उत्तरदायी पाकर मन एक अनजान भय स़े भर गया। कहा गया है, ’मोह तो जायते भयम्’ इस भय ने इस ध्वनि को किसी पराशक्ति द्वारा उत्पन्न की गई ध्वनि मानने को विवश कर दिया। हृदय की गति तीव्र होती जा रही थी। शरीर पसीने-पसीने हो रहा था और उधर रह-रह कर वह मधुर नूपुर ध्वनि कानों में आती ही जा रही थी! जब भीति हद से बाहर होने लगी और पुत्री के प्रति उत्तरदायित्व की भावना ने विचलित कर दिया, तो धीरे से उठी, मरता क्या न करता! सभी देवता-देवी देवताओं को मन ही मन प्रणाम किया, विशेष रूप से संकट मोचन हनुमान को। 

शयनकक्ष की छोटी-मद्धिम रोशनी जलाई और आँखें फाड़-फाड़ कर कमरे का निरीक्षण किया, कहीं कुछ भी असामान्य न था। बिटिया चादर के नीचे बाल-सुलभ गहरी नींद में सो रही थी। बत्ती बुझा कर काँपते क़दमों से मैं हॉल की ओर बढ़ी। वहाँ की रोशनी पूरी तरह जला दी, सब ठीक! कुछ भी ग़लत नहीं! मुख्य द्वार बंद! खिड़कियों के पर्दे के पीछे भी झाँक कर देखा, सब दुरुस्त और तभी फिर! ट्यूब की भरपूर रोशनी में भी वही रुनझुन!! सावधानी से ध्यान लगाकर ध्वनि की दिशा का अनुमान किया। बालकनी की ओर खुलने वाली फ्रेंच विंडो की ओर से यह ध्वनि आ रही थी! कोई बालकनी में तो नहीं है, यह देखने के लिए उस तरफ़ का रुख़ किया और तभी इस इस रुनझुन घुँघरू बजाने वाली ’भूतनी’ या ’चुड़ैल’ का रहस्य समझ में आ गया!!! दीपावली पर जो बंदनवार इस द्वार पर बाँधे थे, वे सूख गए थे, खिड़की के पल्लों की दरारों से आने वाली खाड़ी की हवा के हल्के-हल्के झोंकों से ये सूखे पत्तों के गुच्छ हिल हिल रहे थे और खिड़की के पटों से टकरा कर किंकिणी की धुन निकाल रहे थे। मेरी जान में जान आई, ऐसा लगा मानो गले में अटके प्राण फिर से अपने यथा स्थान स्थिर से हो गए हों साँसें सामान्य होने लगीं, पैरों का काँपना कम होने लगा। 

इस ’भूतनी’ से छुटकारा पाने के लिए सारे बंदनवार मैंने तुरंत काट डालें और वापस शयनकक्ष में बिटिया को गोद में ले सोने की कोशिश करने लगी। इसके बाद भी देर तक नींद नहीं आई। बचपन में ’पराग’ नामक बाल-पत्रिका में पढ़े गए एक धारावाहिक की याद आ रही थी, जिसका नाम था ’एक डर पाँच निडर’, जिसमें इस तरह के कई ’डरों’ का कारण बच्चे ढूँढ़ लेते थे। कहीं अचेतन में अवश्य उसका प्रभाव रहा होगा, जिसने मुझे ध्वनि का स्रोत ढूँढ़ने के लिए विवश किया। शायद बहुत से ’भूत-भूतनियों’ के क़िस्से इसी प्रकार बनते होंगे!! 

आज तक भी मैं यह तय नहीं कर पाती कि वह रुनझुन भूतनी के या फिर महालक्ष्मी जी की पायल की थी, जिनके स्वागत के लिए मैंने यह बंदनवार बाँधी थी?

पाठक, आप क्या सोचते हैं?? 

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टिप्पणियाँ

मधु 2022/01/18 10:02 PM

झुरझुरी पूर्ण अनुभव! रुनझुन की वास्तविकता जानकर मैं बंदनवार टंगा रहने देती ताकि पवन के झोंकों द्वारा महालक्ष्मी जी की उपस्थिति का मधुर आभास सा बना रहता।

shaily 2022/01/13 04:09 PM

सजीव अभिव्यक्ति

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