अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

पावन पावस-ऋतु पर्व

 

एक बार बादशाह अकबर ने बीरबल से एक प्रश्न पूछा, “बीरबल अगर बारह में से दो निकाल दिया जाएँ तो बाक़ी क्या बचेगा? बीरबल ने तपाक से कहा, “हुजूर कुछ भी नहीं बादशाह।” बादशाह ठठाकर हँस पड़े, “इतने आसान सवाल का भी जवाब तुम ग़लत बात गए बीरबल, तुमसे ऐसी उम्मीद ना थी।”

इस पर बीरबल ने कहा, “बिल्कुल नहीं जहाँपनाह, अगर साल के बारह महीनों में से बरसात के दो महीने निकाल दिए जाएँ तो खाने को कुछ नहीं बचेगा लोग भूखों मर जाएँगे|” और बादशाह यह सुनकर सकते में आ गए। 

इस वार्तालाप की प्रामाणिकता सिद्ध करने के लिए तो मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है परन्तु इसकी सार्थकता को सिद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है, कम से कम भारत के संदर्भ में यह बात तो आप सभी मानेंगे कि वर्षा ऋतु भारत की जीवन रेखा है। 

भारत के उसे भाग में जहाँ ऋतुएँ चरम बिंदु तक गरम, ठंडी और गीली होती है, हर ऋतु के अपने अलग त्योहार, भोजन वस्त्र और दैनिक जीवन की विशेषताएँ और महत्त्व है। सनातन युग से इस क्षेत्र के मानव ने प्रकृति का अवलोकन, निरीक्षण, अध्ययन किया और जीवन सुखद और निरापद हो सके उसके प्रतिमान स्थापित किया जो अत्यंत सहज स्वाभाविक और अनुकरणीय थे। 

ग्रीष्म ऋतु में जब सूर्य अपना प्रचंड ताप बिखरता है तब ‘गंगा दशहरा’ मनाया जाता है, नदियों का आभार व्यक्त करने को, जो हमारी प्यास बुझाती हैं। ‘वट सावित्री’ के अवसर पर वटवृक्ष की पूजा कर, संकेत किया जाता है वृक्ष लगाने और उसका संरक्षण करने की ओर, भला वटवृक्ष से बढ़कर और कौन सा वृक्ष सैकड़ों वर्षों तक कई एकड़ क्षेत्र में छाया दे सकेगा? बैसाखी का पर्व कुछ क्षेत्रों में यदि फ़सल का पर्व है, तो वहीं कुछ क्षेत्रों में इस दिन ‘सत्तू’ खाकर हल्का भोजन करने की ओर भी संकेत किया जाता है। 

जेठ आषाढ़ की गर्मी और उमस के बाद जब पावस ऋतु के महीने ‘सावन-भादो’ आते हैं, तो वर्षा का जल पाकर मानव के साथ प्रकृति भी नाचने लगती है। और पावस में तो मानो संपूर्ण ऋतु का ही उत्सव आरंभ हो जाता है। 

इस ऋतु का श्रावण मास शिव को समर्पित है। शिव आदि देव है, कैलाशवासी हैं, पशुपति हैं, सिंह और वृषभ, सर्पादि पर समान दृष्टि रखने वाले हैं। वर्षा के लिए कैलाश पर्वत का महत्त्व भला कौन नहीं जानता? श्रावण मास यदि शिव का है तो आश्चर्य कैसा? शिव का जलाभिषेक करने को कावड़ यात्राएँ आयोजित होती हैं। 

गंगा नदी से दूर बसे हुए क्षेत्र के लिए भी लोग गंगा का जल ले जाकर अपने गाँव के मंदिरों में शिवलिंग का गंगा जलाभिषेक करते हैं। हर सोमवार को शिव का विशेष पूजन-अर्चन होता है। इसी मास में अमरनाथ गुफा के विशेष हिम शिवलिंग के दर्शन किए जाते हैं। त्रयोदशी-चतुर्दशी को श्रावण शिवरात्रि के बाद शुक्ल पक्ष का आरंभ होते ही उत्सवों की धूम आरंभ हो जाती है। शुक्ल तृतीया को हरियाली तीज उत्तर भारत में धूमधाम से मनाया जाती है। स्त्रियाँ भरपूर शृंगार करती हैं। विवाहित पुत्री के लिए उसकी ससुराल में उपहार भेजे जाते हैं। इस अवसर पर एक विशेष पकवान ‘घेवर’ का प्रचलन उत्तर भारत के एक बड़े क्षेत्र में है। यह मैदा चीनी घी से जालीदार थाली के रूप में बनाया गया मीठा पकवान होता है। अब तो बड़े शहरों के आसपास बाग़-बग़ीचों का अभाव हो गया है परन्तु अब भी ग्रामीण अंचल में बाग़ों में झूले पड़ते हैं। झूले का भी उस समय की स्थिति में बहुत महत्त्व था, जब घरों में बिजली के पंख ना थे, तब तेज़ गर्मी के बाद पानी बरसने से वातावरण में जब आर्द्रता आ जाती है और पसीना भाप बनकर उड़ नहीं पाता और शरीर का तापमान गिर नहीं पाता, ऐसे समय में झूले पर झूलने से शरीर को हवा के झोंकों से जो आराम मिलता है वह परम सुखकारी होता है। हमारे त्योहारों की उत्पत्ति और प्रथाएँ कितनी तर्कसंगत रही हैं यह सोचकर गर्व होता है। एक ओर जहाँ उमस से बचने के उपाय के रूप में झूला झूलने का प्रचलन बना वहीं वर्षा से जब ज़मीन में बने सर्पादि कीट जीवों के बिलों-बांबियों में पानी भर जाता है और कीड़ों-मकोड़ों से बचने की आवश्यकता पड़ती है, तब हरियाली तीज के बाद नाग पंचमी का त्योहार मनाया जाता है। शिव के कंठ का भूषण नाग है तो शिव के प्रिय मास में नागों की पूजा ना हो तो कुछ अधूरापन रह जाएगा न! नाग पंचमी के त्योहार पर यह संकेत मिलता है कि साँपों से बचकर तो रहना है परन्तु उनकी पूजा भी करनी है, उन्हें नष्ट नहीं करना है क्योंकि वह किसान का परम मित्र भी तो है। 

श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन का त्योहार होता है, जो भारतवर्ष के बड़े भूभाग में मनाया जाता है। सोशल मीडिया के कारण इसका प्रचार बढ़ता ही जा रहा है इस पर्व के बारे में बस इतना कहना है कि भाई-बहन का त्योहार तो यह है ही, परन्तु कहीं-कहीं इसका सम्बन्ध पुरोहित और यजमान से भी है। यजमान की दीर्घायु और संपन्नता की कामना करते हुए पुरोहित यजमान को “येन बद्ध्यो बली राजा . . .” मंत्र के उच्चार के साथ कलाई पर रक्षा सूत्र बाँधते हैं और आशीर्वाद देकर दक्षिणा पाते हैं। 

भाद्रपद (भादों) के महीने की कृष्णा तृतीया उत्तर प्रदेश के पूर्वी क्षेत्रों में (प्रसंगवश बता दूँ कि मैं इसी क्षेत्र से हूँ) ‘कज्जली तीज’ या ‘कजरी तीज’ के रूप में मनाई जाती है। विंध्य पर्वतमाला के विंध्याचल में विंध्यवासिनी देवी का प्राचीन एवं सुप्रसिद्ध मंदिर है, जो महामाया का रूप मानी जाती है, इनकी पूजा अर्चना के बाद आसपास के क्षेत्र में यह कजरी तीज का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। झूला-पकवान तो वर्षा ऋतु के हर त्योहार के साथ जुड़े हैं, चाहे वह हरियाली तीज हो, नाग पंचमी या रक्षाबंधन, परन्तु कजली तीज का विशेष आकर्षण है ‘कजरी लोकगीत।’ इन गीतों की प्रतियोगिताएँ होती है, लोग। रात-भर जाग कर प्रसिद्ध गायकों के कंठ से कजरी का आनंद लेने के लिए जुटते हैं। अजीता श्रीवास्तव को हाल ही में कजरी गायन के लिए पद्म पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। गिरिजा देवी और अन्य शास्त्रीय संगीत गायको ने ने भी अर्द्ध शास्त्रीय विधा में कजरी गीतों को गाकर इस विधा को संपन्न किया है। अमीर खुसरो और बहादुर शाह जफर जैसे मुस्लिम कवियों ने भी ने भी कजरी गीत लिखे हैं। 

तीज का अगला दिन ‘बहुला चतुर्थी’ अथवा गणेश चतुर्थी के नाम से मनाया जाता है। गणेश विघ्नेश्वर, गणनायक और सभी विघ्नों को दूर करने वाले हैं इसलिए इनका व्रत पूजन इसी आकांक्षा से किया जाता है। श्रावण मास में दूर्वा घास बहुतायत प्राप्य होती है, अतः गणेश पूजन में दूर्वा के नवांकुर का विशेष महत्त्व होता है। ‘बहुला चौथ’ संतान की सुरक्षा, संपन्नता, और दीर्घायु की कामना से किया जाने वाला व्रत है। इसकी  कथा कुछ इस प्रकार है—बहुला नाम की गाय ने, वन में सिंह का सामना हो जाने पर अपने शिशु बछड़े को आख़िरी बार दूध पिलाकर आने के लिए सिंह से अपने प्राणों की भिक्षा माँगी, और लौट कर आने का वचन दे दिया। सिंह को दया आ गई और उसने उसकी बातों पर विश्वास कर उसे अपनी संतान को दूध पिलाकर आने के लिए छोड़ दिया। 

लेकिन जब बहुला अपने बछड़े को दूध पिलाकर लौटने लगी तो उसका बछड़ा भी साथ-साथ आया और सिंह से माता से पूर्व स्वयं को खा लेने का अनुरोध करने लगा। 

माता और पुत्र के इस अटूट प्रेम और त्याग को देखकर सिंह जैसे हिंसक पशु का हृदय भी दयार्द्र हो गया और उसने इन दोनों को छोड़ दिया। अतः इस दिन माताएँ अपनी संतान की सुरक्षा और दीर्घायु की भावना से व्रत करती हैं . . .।  इसी मास की षष्टी को अर्थात्‌ बहुला चौथ के दो दिन बाद कृष्ण के बड़े भाई बलभद्र की जन्म जयंती, ‘हल-षष्ठी’ मनाई जाती है। इस अवसर पर हल और बैल का पूजन किया जाता है। स्त्रियाँ व्रत रखती हैं और हल की सहायता से उपजाए गए अन्न को नहीं खातीं। भावना यह रहती है कि आज के दिन हल को विश्राम दिया जाए और हलधर की विशेष पूजा अर्चना की जाए। 

पावस ऋतु का सर्वाधिक लोकप्रिय और महत्त्वपूर्ण पर्व ‘श्रीकृष्ण जन्माष्टमी’ है जो भाद्रपद मास, कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मानते हैं। यह पर्व संपूर्ण भारतवर्ष में बड़ी श्रद्धा और समर्पण से मनाया जाता है। हर भारतीय को इस पर्व का ज्ञान बचपन से ही रहता है। योगेश्वर कृष्ण के जन्मोत्सव की सबसे अधिक धूमधाम वृंदावन में रहती है, परन्तु कृष्ण का या यूँ कहें कि कोई भी मंदिर इस पर्व से अछूता नहीं रहता। 

इस अवसर पर आयोजित होने वाली गोविंदा की ‘दधि-हांडी’ तो पूरे विश्व में ही प्रसिद्ध है। इसमें हमारी बॉलीवुड की फ़िल्मों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है। 

पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार और नेपाल तक, भाद्रपद की शुक्ला तृतीया को हरितालिका तीज के रूप में मनाया जाता है। स्त्रियाँ गौरा पार्वती की पूजा करती हैं। मान्यता है कि गौरा ने शिव को पाने के लिए जब तप किया तो हरितालिका तीज के बाद उन्होंने जल ग्रहण करना भी त्याग दिया था, इसलिए इस अवसर श्रद्धालु निर्जल उपवास करते हैं, परन्तु स्त्रियाँ शृंगार करना नहीं भूलती़ और न ही झूला झूलना! सजी-धजी स्त्रियाँ झूले पर शिव और पार्वती के अनन्य प्रेम की गाथाएँ गाती हुई पींगे लेती हैं, रात्रि जागरण करती हैं और अपने अखंड सौभाग्य और शिव पार्वती जैसे अटूट प्रेम की कामना भी करती है। इस पर्व पर गुजिया ठेकुआ और पूरे आदि बनाने का विधान होता है क्योंकि जिस दिन व्रत का पारण होता है वह दिन गणेश के जन्मोत्सव का होता है। 

तीज का अगला दिन महाराष्ट्र के सर्वविदित त्योहार ‘गणेश चतुर्थी’ का त्योहार होता है। इस दिन शिव-पार्वती के पुत्र गणेश की मूर्ति की स्थापना होती है। दस दिनों तक इसकी विधिवत्, तीन बार भोग लगाकर, आरती करके एकनिष्ठ भाव से पूजा की जाती है। गणेशोत्सव दस दिनों तक चलता है दसवाँ दिन अनंत चतुर्दशी कहलाता है। यह पर्व शरीर की नश्वरताऔर जीवन की निरंतरता का प्रतीक है। गणेश की प्रतिमा का विसर्जन और साथ ही पुनरागमन की प्रतीक्षा के माध्यम से इस सनातन सत्य को स्थापित किया जाता है कि जीवन निरंतर है, अनंत है, शरीर के नष्ट होने से जीवन समाप्त नहीं होता। 

पावस ऋतु के दूसरे महीने की अंतिम तिथि ‘भाद्रपद पूर्णिमा’ पितरों को समर्पित है। इसी दिन से दिवंगत पूर्वजों के श्राद्ध-तर्पण का पक्ष, ‘पितृपक्ष’ आरंभ होता है, 

तो पावस ऋतु शिव की आराधना से लेकर पितरों के श्राद्ध तक उत्सव ही उत्सव, आभार ही आभार व्यक्त करने की ऋतु है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश की जीवन रेखा इस ऋतु से ही सबसे अधिक प्रभावित होती है। पावस पर्व के सभी त्योहार जीवन के हर पक्ष को रेखांकित करते हैं। 

आशा है अब बीरबल के उत्तर से आप भी सहमत हो गए होंगे कि यदि बारह में से दो घटा दिए जाएँ तो ‘शून्य’ ही बचेगा!
 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

वृत्तांत

स्मृति लेख

सांस्कृतिक आलेख

लोक कथा

आप-बीती

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं