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धृतराष्ट्र के पुत्र

महर्षि वेद व्यास रचित ’महाभारत’, भारत देश के प्राचीन ग्रंथों के ख़ज़ाने का एक बहुमूल्य रत्न है। इसमें अर्जुन को श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया ज्ञान, ’गीता’ है, जो हिंदू धर्म का मूल ग्रंथ माना जाता है। कुरुक्षेत्र में लड़ा गया महायुद्ध, जिसको महर्षि ने ’महाभारत’ नाम दिया, इस ग्रंथ को सर्वाधिक लोकप्रिय बनाता है। महाभारत कुरुक्षेत्र में धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों (कौरव) और पांडु के पाँच पुत्र (पांडवों) के बीच राज्य पाने के लिए लड़ा गया युद्ध था। इस युद्ध में धृतराष्ट्र के निन्यानवे पुत्रों की मृत्यु हुई। पाठक के मन में सहज ही यह जिज्ञासा आती है कि धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने आखिर सौ पुत्रों को जन्म कैसे दिया? किस प्रकार वे सभी एक समय में युद्ध करने की आयु को भी प्राप्त हो चुके थे? पूरे ग्रंथ में धृतराष्ट्र की किसी अन्य पत्नी का नाम भी नहीं आता जबकि पांडु की दो पत्नियाँ अवश्य थीं! महाभारत की लोक प्रचलित कथाओं में धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के जन्म की कथा कुछ अनसुनी सी ही रह जाती है। कथा कुछ इस प्रकार है:

कुरुवंश के राजा विचित्रवीर्य की विवाह के पश्चात, निस्संतान रहते हुए ही मृत्यु हो गई। देवव्रत 'भीष्म' ने राज्य और विवाह न करने की सौगंध उठा ही ली थी। ऐसा लगा कि कुरुवंश समाप्त हो जाएगा। ऐसे में महर्षि वेदव्यास ने अपनी माता, सत्यवती—मत्स्यगंधा के आदेश पर विचित्रवीर्य की पत्नियों, अंबिका और अंबालिका से नियोग के द्वारा पुत्र उत्पन्न किए। अंबिका के गर्भ से धृतराष्ट्र का जन्म हुआ और अंबालिका ने पांडु को जन्म दिया। धृतराष्ट्र पांडु से बड़े थे, वंशानुक्रम से राजसिंहासन पर उनका ही अधिकार परंतु वे जन्मांध होने के कारण राजा बनने के योग्य न थे। अतः पांडु ने राज्य भार सँभाला।

पांडु का विवाह तो दो राजकुमारियों, कुंती और माद्री से हो गया परन्तु धृतराष्ट्र की दृष्टिहीनता के कारण उनका विवाह नहीं हो पा रहा था।

भीष्म ने जब सुना कि गांधार के राजा सुबल की कन्या ने शिव को प्रसन्न कर सौ पुत्रों की प्राप्ति का वरदान पाया है, तो वह धृतराष्ट्र से उनका विवाह करने के लिए प्रयत्न करने लगे। पहले तो सुबल ने कुछ अरुचि दिखलाई परंतु कुरु वंश की ख्याति, उनकी धन संपदा और सबसे बढ़कर, भीष्म के प्रताप से प्रभावित हो यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। पांडु, धृतराष्ट्र और विदुर के कार्यों से कुरुवंश उत्तरोत्तर उन्नति करता रहा। पांडु ने दिग्विजय कर कुरु राज्य का विस्तार किया।

किंदम ऋषि के श्राप के कारण पांडु को संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने राज्य का परित्याग कर, संन्यास ले, अपनी दोनों पत्नियों के साथ वनवास का जीवन अपना लिया। जहाँ कुंती को देवताओं के अंश से युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन जैसे पुत्रों की प्राप्ति हुई और माद्री ने नकुल और सहदेव को जन्म दिया। राज सिंहासन सूना तो रह नहीं सकता था, अतः धृतराष्ट्र राज्य कार्य संपन्न करने लगे।

एक बार महर्षि व्यास हस्तिनापुर आए, जहाँ गांधारी ने उनकी सेवा करके उन्हें प्रसन्न कर लिया। व्यास जी ने गांधारी से वरदान माँगने को कहा, गांधारी ने अपने पति के समान बलवान सौ पुत्रों का वरदान माँग लिया।

समय पर वह गर्भवती हुई। परंतु दो वर्षों तक गर्भ पेट में ही रुका रहा। इस बीच कुंती के गर्भ से युधिष्ठिर का जन्म हो चुका था। गांधारी व्याकुल हो उठी। घबराकर उसने, धृतराष्ट्र से छुपाकर गर्भपात करवा लिया। उसके गर्भ से एक लोहे के सामान लगने वाला, मांस-पिंड निकला। दो वर्ष तक गर्भ में रहने के बाद भी उसका कड़ापन देखकर गांधारी ने उसे फिंकवाने का विचार किया। भगवान व्यास ने अपनी योग-दृष्टि से यह घटना जान ली। वे झटपट हस्तिनापुर पहुँचे और गांधारी से बोले, “ओ सुबल की बेटी! तू यह क्या करने जा रही है?” गांधारी ने व्यास जी से सारी बातें सच-सच कह दीं। उसने कहा, “भगवन! आपके आशीर्वाद से गर्भ तो मुझे पहले रहा, परंतु संतान कुंती को ही पहले हुई। दो वर्ष पेट में रहने के बाद भी सौ पुत्रों के बदले यह मांस-पिंड पैदा हुआ है। यह क्या बात है?” व्यास जी ने कहा, “गांधारी मेरा वरदान सत्य होगा। मेरी बात कभी झूठी नहीं हो सकती क्योंकि मैंने कभी हंँसी में भी किसी से झूठ नहीं कहा है। अब तुम चटपट सौ कुंड बनवा कर उन्हें घी से भरवा दो और किसी सुरक्षित स्थान में उनकी रक्षा का विशेष प्रबंध कर दो।”

जब सारा प्रबंध हो गया तब तब व्यास जी ने गांधारी से पिंड पर शीतल जल छिड़कने को कहा, जल छिड़कते ही वह पिंड सौ टुकड़ों में विभाजित हो गया। प्रत्येक टुकड़ा अँगूठे के एक पोर के बराबर था। उसमें एक टुकड़ा सौ से अधिक भी था।, व्यास जी की आज्ञा अनुसार जब सब टुकड़े कुंडों में रख दिए गए तब उन्होंने कहा, “उन्हें दो वर्ष बाद खोलना!” इतना कहकर वे तपस्या करने के लिए हिमालय पर चले गए। समय आने पर उन्हीं मांस-पिंडों से सबसे पहले दुर्योधन और उसके बाद गांधारी के अन्य पुत्र उत्पन्न हुए। जन्म लेते ही दुर्योधन के कंठ से शिशु-रुदन के स्थान पर गधे के रेंकने का स्वर निकला। यह स्वर सुनते ही गधे, गीदड़, गिद्ध और कौए भी शोर मचाने लगे। आँधी चलने लगी। कई स्थानों में आग लग गई। इन उपद्रवों से भयभीत होकर धृतराष्ट्र ने ब्राह्मणों, भीष्म, विदुर आदि सगे-संबंधियों तथा कुरुकुल के श्रेष्ठ पुरुषों को बुलवाया और कहा, “हमारे वंश में पांडु नंदन युधिष्ठिर ज्येष्ठ कुरुकुमार हैं। उन्हें तो उनके गुणों के कारण ही राज्य मिलेगा, इस संबंध में मुझे कुछ नहीं कहना है। युधिष्ठिर के बाद मेरे पुत्र को राज्य मिलेगा या नहीं यह बात आप लोग बताइए . . .” अभी उनकी बात पूरी भी नहीं हो पाई थी कि मांस-भोजी जंतु गीदड़ आदि चिल्लाने लगे। अमंगल सूचक अपशकुनों को देखकर ब्राह्मणों के साथ-साथ विदुर जी ने भी कहा, “राजन आपके इस ज्येष्ठ पुत्र के जन्म के समय ऐसे अशुभ लक्षण प्रकट हो रहे हैं उनसे तो मालूम होता है कि यह पुत्र कुल का नाश करने वाला होगा। अतः इसे त्याग देना ही उचित रहेगा। इसका लालन-पालन करने पर पूरे कुरुकुल को दुख उठाना पड़ सकता है। यदि आप वंश का कल्याण चाहते हैं तो ’सौ में से एक कम ही सही’, ऐसा समझ कर इसे त्याग दीजिए और अपने कुल तथा सारे जगत का मंगल कीजिए। शास्त्र स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि कुल के लिए एक मनुष्य का, ग्राम के लिए एक कुल का, देश के लिए एक ग्राम का और आत्म-कल्याण के लिए सारी पृथ्वी का भी परित्याग कर देने में अधर्म नहीं है।” सब के समझाने बुझाने पर भी पुत्रमोह वश राजा धृतराष्ट्र दुर्योधन को न त्याग सके। उन एक सौ एक टुकड़ों से सौ पुत्र और एक कन्या उत्पन्न हुई।

जिन दिनों गांधारी गर्भवती थी और धृतराष्ट्र की सेवा करने में असमर्थ थी, उन दिनों एक वैश्य कन्या धृतराष्ट्र की सेवा में रहती थी। जब मांस-पिंड के टुकड़ों से दुर्योधन आदि का जन्म हुआ उसी समय उसके गर्भ से धृतराष्ट्र का युयुत्सु नाम का पुत्र हुआ। वह बड़ा ही विचारशील और विनीत था। महाभारत के युद्ध के समय युयुत्सु ने पांडवों का पक्ष लिया। अपने सभी भाइयों में केवल वही जीवित बचा। धृतराष्ट्र के पुत्रों में दुर्योधन सबसे बड़ा और युयुत्सु सबसे छोटा था। दुःशासन, दुःसह, दुःशल, जलसंध, सम, सह, सुबाहु, दुर्धर्ष, विंद, अनुविंद दुर्मुख, आदि, आदि कुल सौ पुत्र थे। सभी का लालन-पालन राजपुत्रोचित विधि से हुआ। सभी कौरव शूरवीर, युद्ध- कुशल, शास्त्रों में पारंगत और विद्वान थे। धृतराष्ट्र ने समय आने पर सब का विवाह योग्य कन्याओं के साथ किया। दुःशला, जो धृतराष्ट्र की इकलौती बेटी थी, उसका विवाह राजा जयद्रथ के साथ हुआ जो सिंधु देश का राजा था।

इस प्रकार कुरु वंश के राज सिंहासन पर जन्मानुसार धृतराष्ट्र का अधिकार था परंतु अपनी अपंगता के कारण वह राजा न बन सके। दूसरी तरफ़ युधिष्ठिर कार्यकारी राजा की प्रथम संतान और कुरुवंश की भी अगली पीढ़ी के प्रथम पुत्र थे, उनका भी राज्य पर जन्मानुसार अधिकार था। दुर्योधन अपने पिता के जन्मजात राजा बनने अधिकार के बल पर राज्य का उत्तराधिकार चाहता था। महाभारत के युद्ध के पीछे यही कारण था, और यह थी धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के जन्म की कथा।

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