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वर्षा ऋतु में विरहिणी राधा

 

जिया मेरो पाथर भयो, कौनों गति ना होय, 
ओ कान्हा, बंसी बजा, हिय में हलचल होय॥
 
लखि नभ में श्यामल घटा, उठत हिया में दाह। 
दो नैना पथरा गए, तकत ‘श्याम’ की राह॥
 
पुरुरवा झोंका जब छुअत, मेरो यह तनु गात। 
नर्तन नटवर संग हो, हिय में उठत हुलास! 
 
केशव तू कारी घटा, बपु मेरी सुवरन रेख। 
गरबहियाँ जो डार दूँ, रितु हरसै हमें देख!! 
 
बरखा-बूँद भिगो गई, मेरो सगरो गात। 
बिनु कान्हा के दरस के, सावन दाहत जात। 
 
नाचत देख मयूर को‌, मन मेरो भरमाय!! 
मोर-पखा मोहे दिसत है, आनन किधौं लुकाय? 
 
कान्ह दरस मैं पाऊँ जो, सरित-नैन की राह। 
आँसू रस की धार सम, मिटै‌ अमिय की चाह॥
 
कालिंदी तट छांड़ि दयि, सागर तट तोहे भाय? 
खारो जल को जलधि सों, तू तिस्ना कैसे बुझाय? 
 
झूला कदम्ब कि डार पर, झोंकन में लहराय। 
‘बिहारी’ तेरे बिनु, वा पै चढ़्यो न जाय॥
 
जमुना जी में जल बढ़्यौ, मेरे उर की पीर। 
बढ़ीं नदी बिच बूड़िहौं, धरि न जात अब धीर॥

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