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सदाबहार के फूल

एक महानगर के छोटे-से फ़्लैट की बालकनी में, 
एक छोटे-से गमले में, 
मैंने रोपा है
एक सदाबहार-सदाफुली का पौधा, 
 
बालकनी में गर्मियों की धूप आकर
घंटों उसे झुलसाती है
और शीत ऋतु में, 
उससे मुँह मोड़ कर
उसे महीनों थरथर कँपाती है, 
 
कई बार भूल जाती हूँ
उसको मैं सींचना, 
पानी के अभाव में यह कुछ तो घबराता है, 
परंतु जल पीकर कुछ ही मिनटों में
हर्षित हो जाता है, 
सिकड़े पुष्प-पत्रक, फिर से खुल जाते हैं, 
जल पिलाने वाले का आभार जताते है, 
 
यह छोटा-सा, नाज़ुक सा दिखने वाला पौधा
कभी नहीं मुरझाता! 
मुरझाना तो दूर
वह हर स्थिति में रहता है मुस्कुराता, 
 
फूल होते हैं गंधहीन, 
इकहरी पंखुड़ियों वाले
बैंजनी, गुलाबी, अतिकोमल, 
एक दिन खिल, 
अगले दिन झर जाने वाले, 
खिलते रहते हैं नित्य, 
कभी इक्का-दुक्का, कभी झोली भर
 
कैसी भी परिस्थिति हो
यह नहीं डिगता
फूल देते रहने का अपना कर्तव्य, 
अथक, निरंतर, सतत करता रहता, 
जताता उपस्थिति
अपने अस्तित्व की, 
मानता अनुग्रह अपने रचयिता की, 
 
इसे देखकर मैं हर रोज़ सोचती हूँ, 
इसकी तरह ही मैं भी क्यों नहीं जीती हूँ? 
सतत, निरंतर, अपने कर्तव्य में रत
अपने आसपास की स्थितियों से होकर विरत, 
होकर कृतज्ञ इस मानव तन के लिए, 
प्रभु के चरणों में करके नित शिर नत॥ 

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