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काव्य धारा

 
भारत भू पर यह काव्य धार 
शिव के डमरू से निकली है
फिर सुरसरि के जल में मिलकर
धरती को सिंचित करती है, 
 
वेदों में उसके स्वर गूँजे और
सामवेद से लयबद्ध हुए, 
वाल्मीकि, व्यास की पा लेखनी, 
ये आदिकाल से सतत बहे, 
 
कवि माघ, भास और कालिदास ने
अविरल इसे बहाया है, 
अपनी प्रतिभा का कौशल दे
पीढ़ियों इसे पहुँचाया है, 
 
कुछ नियम-छंद का बँधन ले
संयमित धार बन आते हैं, 
शाश्वत बहती इस नदिया को
कुछ समृद्ध और बनाते हैं, 
 
कुछ उच्छृंखल-उन्मुक्त कवि 
इस में आकर घुल जाते हैं 
वे छंद-बंध में बिना बँधे 
भावों से वेग बढ़ाते हैं, 
 
कुछ बरसाती नदियों-जैसी
धाराएँ इसमें मिलती हैं 
कुछ पल की उथल-पुथल करके 
इसमें ही समाहित होती हैं, 
 
कुछ पृथुल काव्य की धाराएँ
सदियों से मंथर बहती हैं
वे आदिकाल से ही बह कर
जन-मन को उर्वर करती हैं, 
 
यह अविरल बहती काव्य धार 
जन-मन आप्लावित करती है
जो रसिक हृदय के होते हैं 
उनको आनंदित करती है, 
 
जीवन के व्यस्त पलों में से
कुछ पल मुक्ति के ले आओ
बैठो इसका काव्य-सरित के तट
तन मन की विश्रांति पाओ
 
दो घूँट अंजुली में भरकर 
काव्यामृत का रसपान करो, 
दो पल को नयन-पलक मूँदो 
प्राणों तक अमृत सिंचन हो॥

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