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टोक्यो, जैसा जितना मैंने देखा

 

भारत में प्राचीन काल से ही वानप्रस्थ आश्रम में तीर्थाटन की परंपरा रही है, अब आधुनिक काल में इस परंपरा का परिवर्तित, देशाटन, रूप विश्व-भ्रमण के रूप में धीरे-धीरे विकसित हो रहा है। औद्योगिकरण, छोटे होते परिवार, विकसित होते त्वरित संचार साधनों के कारण विश्व का छोटा होता आकार और स्वतंत्रता के बाद जनता की बेहतर होती आर्थिक दशा इसके संभावित कारण हो सकते हैं। इस नई विकसित होती परंपरा के अनुसार हम पति-पत्नी ने भी ईश्वर की बनाई इस दुनिया के कुछ अन्य देशों को देखने-जानने का मन बनाया है। हमारे जैसे लोगों की एक नई जमात हमारे देश में खड़ी हो रही है, इस कारण सैलानियों की सहायता करने के लिए ‘टूर ऑपरेटर्स’ की एक जमात भी बन रही है। इन टूर ऑपरेटर के कारण विदेशों की सैर अपेक्षाकृत आसान होती है। ये लोग आपकी टिकट, वीज़ा, आवास, भोजन और स्थानीय यातायात की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर ले लेते हैं, आप बस पैसा ख़र्च करिए और यह आपको देश-विदेश की सैर करा देंगे। हम जैसे वानप्रस्थियों, जो शरीर और वित्त से थोड़े तंग, लेकिन यात्रा के शौक़ीन होते हैं, को इनके सहारे यात्रा करने के लाभ तो अनेक है, परन्तु कमी यह रहती है कि दर्शनीय स्थलों के चुनाव और इच्छानुसार किसी स्थान पर समय बिताने पाने की आपकी स्वतंत्रता समाप्त हो जाती है। पुरानी उक्ति है, ‘कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता, कभी ज़मीं तो कभी आसमां नहीं मिलता’! तो इसी उक्ति के अनुसार कुछ समझौता हमने अपनी रुचि से कर लिया और जापान देश देखने के लिए एक टूर ऑपरेटर के सहारे ‘सूर्योदय का देश’ देखने निकल पड़े। 

इस सैर में हमारा पहला पड़ाव, जापान की वर्तमान राजधानी और विश्व का सबसे बड़ा शहर टोक्यो रहा। नरीटा एयरपोर्ट से शहर, बस द्वारा, लगभग डेढ़ घंटे की दूरी पर है। 

बस से होटल जाते समय मेरी कल्पना का जापान, छोटे-छोटे लकड़ी के मकानों वाला, कहीं भी दिखलाई नहीं पड़ा। ऐसा नहीं है कि टोक्यो की गगनचुंबी इमारत के चित्र कभी ना देखे हों या उसकी सघन आबादी का ज्ञान न हो, परन्तु साक्षात् किसी भी अन्य आधुनिक विकसित देश के महानगर जैसी इन सफ़ेद शत मंज़िली इमारतों को देख, बचपन से एक खिलौने से बने नगर जैसे दिखने वाले परीलोक के शहर जैसे जापान का सपना चटक कर टूट गया। इसकी क्षणिक निराशा भी हुई। बालपन के स्वप्न संसार से निकली, तब जापान की गहरी तकनीकी जानकारी पर आश्चर्य हुआ कि ऐसी इमारतें रेक्टर स्केल 9 तक का भूकंप का झटका झेलने में सक्षम हैं। साफ़-सुथरी सड़कें, कहीं-कहीं सड़कों का जाल, शांत ट्रैफ़िक, हाँ, पश्चिमी देशों की तरह गाड़ियों की निरंतर क़तार कहीं नहीं दीखती। 

टोक्यो के शिनागावा क्षेत्र में रेलवे स्टेशन के एकदम सामने हमारा होटल था। इस देश की ज़मीन का क्षेत्रफल बहुत कम है, इसका असर होटल के कमरे के आकार पर भी दिखा, सुविधाएँ सभी थीं परन्तु जगह कम। 25 वीं मंज़िल पर हमें कमरा मिला। हमारे कमरे से सड़क पर खुलता हुआ रेल्वे स्टेशन का निकास दिखलाई देता था। हर चार-पाँच मिनट के बाद लोगों का हुजूम बाहर निकलता दिखाई देता, स्त्री-पुरुषों का मिला-जुला जत्था, सभी काली पैंट, काला कोट और सफ़ेद क़मीज़ पहने हुए! एक प्रतिशत लोग भी सड़कों पर किसी अन्य रंग के वस्त्रों में नहीं दिखाई पड़ते। कुछ स्त्रियाँ स्कर्ट पहनती हैं परन्तु वह भी काले रंग की। रंग की इस एक-रसता का कारण समझ में नहीं आया, मेरी कल्पना में तो जापानियों की रंग-बिरंगी पोशाकें, फूलों वाली डिज़ाइन की लहराती पोशाकें बसी थीं! एक और कल्पना को वास्तविकता का कंकर लगा। 

जापान की भीड़ में सभी स्वस्थ और चुस्त-तंदुरुस्त दिखाई देते हैं, बच्चे और स्थूलकाय लोग तो किसी सड़क पर दिखाई ही नहीं दिए। 

होटल के कमरे में आराम कर, बेंगलुरु से टोक्यो की यात्रा की थकान उतार, ताज़ा-दम हो हम शाम को ‘स्काई ट्री’ टावर देखने गए! टोक्यो शहर सुमिदा नदी के दोनों तरफ़ बसा है। भारत की नदियों की तुलना में यहाँ की नदियाँ बहुत पतले पाट की हैं, शायद गहराई भी वैसी न हो। पहली नज़र में तो यह नदी वेनिस की नहरों के अधिक निकट जान पड़ी। सड़कें पतली हैं और सड़क और भवनों के बीच में भी दूरी अधिक नहीं है। सभी इमारतें बहुमंज़िला, आवासीय और व्यावसायिक भवन मिले-जुले। गगनचुंबी आवासीय इमारतों में फ़्लैटों में बिजली की रोशनी थी, बड़ी-बड़ी शीशा लगी खिड़कियों से आती रोशनी देखकर ऐसा लग रहा मानो मार्ग के दोनों और जगमगाती जाली की दीवारें खड़ी हों। 

स्काई ट्री एक टीवी टॉवर है जिसकी ऊँचाई 650 मीटर है, दर्शक 350 मीटर तक जा सकते हैं। लिफ़्ट में 450वें तल का बटन दबता देख एक बार तो कलेजा धड़क ही गया। तीन सौ पचासवें तल का फ़र्श शीशे का बना है, जिससे आप नीचे बिखरे शहर देख सकते हैं और कल्पना कर सकते हैं कि आप आकाश में हैं और आपके पैरों के नीचे जगमगाती धरती फैली पड़ी है। आम सड़कों पर चलते लोग तो बहुत कम दिखाई देते परन्तु यहाँ ख़ूब रौनक़ थी। हर स्तर पर मेले का माहौल था, यहाँ की भीड़ को देखकर लगता था कि जापान के निवासी तो काले-सफ़ेद कपड़ों में ही थे, परन्तु दूसरे देशों से आए सैलानी रंग-बिरंगे कपड़ों में दिखे। 

हमारे स्थानीय गाइड, जो पिछले 25 वर्षों से जापान के निवासी थे, उन्होंने बताया कि जापानी सामान्य रूप से दूसरी संस्कृति के लोगों से मेल-जोल पसंद नहीं करते, इसलिए करोना के प्रकोप से पहले यहाँ की सरकार पर्यटन के पक्ष में नहीं थी। लेकिन जब महामारी ने विश्व की सभी अर्थव्यवस्थाओं को प्रभावित किया, तब इस देश ने भी पर्यटन को बढ़ावा देने की बात सोची है और कुछ उदार नीतियाँ बनाईं, जिससे पर्यटन को बढ़ावा मिले। 

हमारे पास टोक्यो में केवल 2 दिन थे और पहले दिन हम केवल एक पर्यटन स्थल ‘स्काई ट्री’ ही देख पाए! अगले दिन हम सबसे पहले आसागुसा के मंदिर में गए इस मंदिर का नाम ‘सेंसो जी’ है। जापानी भाषा में ‘जी’ मंदिर का समानार्थी शब्द है। हमारे गाइड ने बताया कि जापानी लिपि, जो कि चीनी लिपि के जैसी चित्रात्मक है उस पर चीनी लिपि का बहुत अधिक प्रभाव भी है। कहीं-कहीं एक ही चित्राक्षर को जापानी और चीनी ढंग से अलग-अलग उच्चारित किया जाता है। 

इस मंदिर के बारे में कथा है कि छठीं शताब्दी में सुमिदा नदी में बुद्ध की एक प्रतिमा तैरती हुई मिली। इस मूर्ति को कई बार नदी में ही डुबोकर बहा देने का प्रयत्न किया गया। परन्तु यह हर बार ऊपर तैरती मिलती। तब तत्कालीन स्थानीय राजा ने अपने ही घर को मंदिर बना दिया और इस मूर्ति को स्थापित कर दिया। यह बुद्ध के करुणामय रूप ‘बोधिसत्व’ का मंदिर है जिसे स्थानीय भाषा में ‘कारनोन बोधिसत्व’ कहा जाता है। क्या आपको ‘कारनोन’ और ‘करुणा’ में समानता नहीं दिखाई पड़ती? 

जापान के मंदिरों में जूते उतारने या सिर ढककर या खोलकर जाने के कोई नियम नहीं हैं। इस मंदिर में तो अब प्रतिमा दिखाई भी नहीं देती। वह एक संदूक में बंद है। संदूक के साथ एक छड़ जैसी चीज़ पर कुछ सफ़ेद लहराते रिबन जैसा लगाकर यहाँ प्रतिमा का प्रतीक मान लिया गया है। आराध्य को तीन बार शीश झुकाने और तीन तालियाँ बजा लेने से आपकी प्रार्थना पूरी हो जाती है। 

परिसर में तीन भव्य इमारतें हैं, सबसे बड़ा और भव्य पगोड़ा बुद्ध के मंदिर का, दूसरा' 'कमीनारी' देवता का, जो वर्षा और आकाशीय तड़ित के देवता माने जाते हैं, इनको हम अपने इंद्र के समकक्ष समझ सकते है। बुद्ध भगवान का मुख्य मंदिर पाँच मंज़िला पगोड़ा है, जो बहुत दूर से ही दिखलाई पड़ता है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बमबारी में यह मंदिर नष्ट-भ्रष्ट हो गया था, केवल एक दीवार बची थी, वर्तमान मंदिर जीर्णोद्धार के बाद का निर्माण है। कमीनारी देवता के मंदिर के द्वार पर बहुत बड़े-बड़े लाल और काले सजावटी लालटेन लगे हैं, संभवत यह तड़ित के ही प्रतीक हों। तीसरी इमारत ‘टोरी’ कहलाती है जो मंदिर के निर्माता का स्थान है। 

सेंसो जी के मंदिर में आकर लोग अपना भविष्य देखते हैं। 100 येन देने पर आपको अपनी इच्छा से एक छोटा बक्सा चुनने को कहा जाता है। जब आप यह बॉक्स खोलते हैं तो या तो उसमें एक सलाई निकलती है या फिर एक काग़ज़ जिस पर कुछ लिखा रहता है, समान्यतः लोग उस लिखावट को पढ़ते नहीं है, क्योंकि काग़ज़ निकलना बहुत शुभ नहीं माना जाता। यदि सलाई निकली तो आपका भविष्य उज्जवल और शुभ है, यदि काग़ज़ निकले तो आपको और अधिक ईश्वर कृपा की आवश्यकता है और आपको प्रार्थना करनी चाहिए। सलाई लोग अपने साथ ले जाते हैं और काग़ज़ को पट्टी की शक्ल में मोड़ कर एक निश्चित स्थान पर बाँधकर चले जाते हैं। देश, काल और भूमि चाहे जो भी हो, मानव-मन हर युग और हर स्थान पर एक समान होता है—अनजान से भयभीत और भविष्य जानने को उत्सुक!! 

इस मंदिर की आसपास की गलियों को ‘नाकामिसे डोरी’ कहा जाता है, ‘डोरी’ शब्द ‘गली’ के लिए प्रयोग किया जाने वाला जापानी शब्द है! इन गलियों में श्रद्धालु और पर्यटकों को लुभाने वाले सामानों की भरमार है। भारत के हर बड़े मंदिर के आसपास जैसा बाज़ार लगता है ठीक वैसा ही दृश्य यहाँ का भी रहता है। खाने-पीने के सामानों की दुकानें, खिलौने और पूजा की सामग्री की दुकानें, घर ले जाने के लिए यादगार चिह्नों की दुकानें। 

मंदिर में दर्शन और परिसर भ्रमण के बाद हमारे दल की सभी महिला पर्यटकों ने जापानी पारंपरिक परिधान ‘किमोनो’ पहनने का आनंद लिया, किमोनो यहाँ का पारंपरिक स्त्री परिधान है, मेरी कल्पना की आँखें बचपन से जापानी स्त्रियों को इन्हीं ढीली-ढाली, लहराती आस्तीनों वाली, कमर पर बँधी हुई, ख़ूबसूरत पोशाक को पहने हुए, बालों में फूल या ख़ूबसूरत सलाइयाँ लगाए, चाय परोसते हुए, तस्वीरों में देखती रही थी, आज उस पोशाक को स्वयं पहनने का आनंद सचमुच कुछ विशेष ही था। कोई महिला अकेले अपने आप किमोनो नहीं पहन सकती, एक सहायक की आवश्यकता अवश्य पड़ती है, क्योंकि इसे अपने शरीर की आवश्यकतानुसार आगे-पीछे बाँधना होता है। अब यह परिधान स्त्रियों केवल विशेष अवसर पर ही पहनती हैं, दैनिक जीवन में पश्चिमी ढंग के ही कपड़े पहने जाते हैं। मंदिरों में कभी-कभार कोई स्त्री किमोनो पहने दिख जाए तो आप भाग्यशाली हैं। 

हमारे दल के पुरुषों ने भी फोटो खिंचवाने के लिए ‘यूकाटा’ पहना (फोटो ना होगी तो फ़ेसबुक पर भला। क्या डालेंगे!) 

यूकाटा लुंगी के साथ लबादा जैसा पुरुषों का पहनावा होता है। जापान के दैनिक जीवन में इसका हल भी किमोनो जैसा ही है, रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में ये पारंपरिक पोशाकें लुप्त हो चुकी हैं। 

टोक्यो की गलियों में हमने मनुष्यों द्वारा खींचे जाने वाले रिक्शे भी चलते देखे। यहाँ स्त्रियाँ भी रिक्शा खींचते हुए दिखाई पड़ती हैं। जब लोग रिक्शे की सवारी के लिए सीट पर बैठ जाते हैं, तब उनके घुटनों से लेकर एड़ी तक के हिस्से को लाल चादर जैसे वस्त्र से ढक कर ही रिक्शा खींचा जाता है, इसका कारण समझ में नहीं आया। जापानी भाषा में इन्हें ‘जिनरिकिशा’ कहा जाता है, कहीं ‘जिन’ संस्कृत के ‘जन’ शब्द का भाई बंधु तो नहीं है? 

टोक्यो में जापान के सम्राट का महल ‘कोक्यो’ भी है। यह दोहरी खाई से घिरा क्षेत्र है। यह स्थान पर्यटकों के लिए वर्जित क्षेत्र है। वैसे तो जापान में लोकतांत्रिक तरीक़े से सरकार चुनी जाती है परन्तु साम्राज्य वंश परंपरा से ही मिलता है। अभी तक यहाँ पितृसत्तात्मक साम्राज्य व्यवस्था है, चाहे वह केवल सांकेतिक ही रह गई है। इन दिनों जापान में जो सम्राट है उनके पुत्र नहीं है, जबकि छोटे भाई को पुत्र है। सम्राट की संतानें पुत्रियाँ हैं। समस्या यह है कि आज के यौन-समानता के युग में परंपरागत नियमों को बदलकर बेटी को भी साम्राज्य का उत्तराधिकारी माना जाए जैसा कि इंग्लैंड में है या फिर छोटे भाई के पुत्र को ही सम्राट बनाया जाए! 

दोपहर के भोजन के बाद हम ‘हिए मंदिर’ देखने गए। यह शिन्टो पंथ मानने वालों का स्थान है। यहाँ आने वाले श्रद्धालु पारिवारिक सुख-शान्ति और सुखी दांपत्य के लिए प्रार्थना करने आते हैं। 18 वर्ष की आयु, जो जापान में वयस्कता की आयु है, होने पर नव वयस्क यहाँ आकर अपने को पंजीकृत कराते हैं। द्वितीय विश्व युद्ध में यह मंदिर भी नष्ट हो गया था, वर्तमान रूप में यह 1958 में आया। इस मंदिर तक पहुँचने के लिए 250 सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं परन्तु अब यहाँ स्वचालित सीढ़ियाँ लग गई हैं और बिना श्रम किए हम मंदिर तक पहुँच गए। कितना कुछ सहा है इस छोटे से देश ने द्वितीय विश्वयुद्ध में, और कितने कम समय में ही फिर उठ खड़ा हुआ है एक विकसित देश बन कर विश्व के पटल पर! वंदनीय है यहाँ के लोगों की कर्मठता और लगन! 

जापान के अधिकांश मंदिरों में द्वार रक्षक के रूप में कुत्ते अथवा सिंह बनाए जाते हैं; केवल इस मंदिर के द्वार रक्षक वानर के रूप में हैं। इन्हें लाल वस्त्र भी पहनाए गए थे, जिससे वह हमें अपने क्या चिरपरिचित ‘हनुमान जी’ लगे! हर मंदिर में प्रवेश द्वार और निकास द्वार अलग होते हैं। चटक नारंगी रंग की प्रधानता दिखाई दी इस मंदिर में। जब हम मंदिर के परिसर में घूम रहे थे तब हमें एक जापानी युवा जोड़ा पारंपरिक वेश में सजा दिखाई दिया। मंदिर के सामने दोनों एक दूसरे को देखते हुए मुस्कुराते से लगे। हमारे गाइड ने बताया कि यह विवाह का प्रस्ताव लेकर आए हैं। लड़के ने लड़की से कुछ कहा और जिसे सुनकर लड़की अपने घुटनों पर बैठ गई, इसके बाद दोनों ने हल्के से एक दूसरे को चूमा और बस। पश्चिमी देशों की तरह और अब तो अपने देश में भी—प्रेम का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हुए युवा जोड़े हमें नहीं दिखाई दिए, हाथ पकड़ कर चलते हुए भी हमने किसी युगल को नहीं देखा, गलबहियाँ और चुंबन तो बहुत दूर की बात है। 

जापान इन दिनों तेज़ी से बुड्ढी होती आबादी की समस्या से जूझ रहा है। युवा वर्ग ना तो जल्दी विवाह करना चाहता है नहीं परिवार बढ़ाना चाहता है। इस समस्या के सही कारण खोज कर उनका समाधान करना वहाँ की सरकार का बड़ा काम है। 

शाम को हम हम लोगों ने सुमिदा नदी में नौका विहार किया। नदी पर का कई सुंदर पुल बने हैं जिनका विहंगम। दृश्य पिछली शाम ‘स्काई ट्री’ से। हम। देख चुके थे। 

कुछ लोगों ने ख़रीदारी की। मैं भी कुछ ख़रीदना चाहती थी, लेकिन मेरी पसंद की हर चीज़ पर लिखा था ‘मेड इन चाइना’ अतः टोक्यो में ख़रीदारी की इच्छा नहीं हुई। अपने देश में रहकर हम चीन की बनी वस्तुओं का बहिष्कार करने का प्रयत्न करते हैं, परदेस में आकर मैं भला वह काम कैसे करती है! 

रात को भोजन के बाद हम अपने होटल लौट गए आज का टोक्यो दर्शन पूरा हुआ कल सुबह दूसरे शहर के लिए निकालना है। 

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टिप्पणियाँ

प्रतिभा राजहंस 2023/12/06 10:52 AM

बहुत सुन्दर। बहुत रोचक यात्रा वृत्तांत। सरल और सहज शब्दों में। साधुवाद।

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