सयानी सरस्वती
अनूदित साहित्य | अनूदित लोक कथा सरोजिनी पाण्डेय1 Jun 2025 (अंक: 278, प्रथम, 2025 में प्रकाशित)
मूल कहानी: कैटरीना ला' सेपियंट; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो; अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (कैथरीन द वाइज़);
पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स; हिन्दी में अनुवाद: ‘सयानी सरस्वती’-सरोजिनी पाण्डेय
बहुत पुरानी बात है, पालनपुर में एक बहुत धनी और संपन्न व्यापारी रहता था। उसकी एक बेटी थी, जो बहुत बुद्धिमान, चतुर और चालक थी, अब उसकी समझदारी तो इसी बात से समझ लीजिए कि जबसे उसने बोलना सीखा तबसे ही उसकी सलाह घर के हर काम के बारे में ली जाने लगी। उसकी बुद्धिमानी को जानते हुए उसके पिता ने बेटी का नाम रख दिया ‘सरस्वती देवी’। जैसा नाम वैसे ही गुण थे उसमें। बहुत कम समय में ही उसने कई भाषाएँ और अनेक विद्याएँ सीख लीं।
भाग्य का खेल, जब सरस्वती देवी सोलह साल की हुई तो उसकी माता का देहांत हो गया। वह इतनी दुखी हुई कि उसने अपने को एक कमरे में बंद कर लिया। बस उसी कमरे में थोड़ा बहुत खा लेती, वहीं सोती, न बाहर निकलती, न घूमने फिरने जाती। हँसना-बोलना-बतियाना, सब बंद कर दिया। सरस्वती तो अपने पिता की आँखों का तारा थी, उसके जीने का सहारा थी। बेटी की ऐसी हालत देखकर उन्होंने शहर के बुज़ुर्गों की सलाह लेने की सोची। अनुभवी, समझदार, दयालु लोगों की एक सभा बुलाई गई।
व्यापारी ने उनसे कहा, “महानुभावों, आप जानते हैं कि मेरी बेटी मेरे जीने का सहारा एकमात्र सहारा है। अपनी माँ की मौत के बाद उसने अपने को घर की एक अँधेरी कोठरी में बंद कर लिया है। वह एक चुहिया की सी ज़िन्दगी जी रही।”
सभा में आए लोगों ने आपस में सलाह की और व्यापारी से कहा, “तुम्हारी बेटी की बुद्धि की बात तो दूर-दूर तक फैली है। तुम धनवान हो, एक बड़ा स्कूल खोल दो, जहाँ लोग कुछ सीखने-पढ़ने आएँ। हो सकता है कि दूसरों को पढ़ाने में उसे सुख मिले और वह माँ की मौत का दुख धीरे-धीरे भूल जाए।”
सरस्वती के पिता को यह सुझाव अच्छा लगा। उन्होंने एक दिन अपनी बेटी से कहा, “बेटी तुम हर समय अपनी माँ की याद में ही डूबी रहती हो। कहीं आना-जाना, यहाँ तक कि अपने कमरे से बाहर निकलना भी तुम्हें पसंद नहीं। अगर मैं एक स्कूल खोल दूँ और तुम उसका सारा प्रबंध देखो, विद्यार्थियों को पढ़ाओ तो कैसा रहे?”
यह प्रस्ताव सरस्वती को तुरंत ही पसंद आ गया। स्कूल खुल गया। स्कूल के बाहर एक तख़्ती पर लिखकर लगा दिया गया ‘सरस्वती विद्या मंदिर में विद्यार्थियों का स्वागत है-पढ़ाई एकदम मुफ़्त’।
देखते ही देखते पढ़ने वाले बालक-बालिकाओं के झुंड आने लगे। सरस्वती बिना भेदभाव, बिना किसी अलगाव के सबको बैठने की जगह देने लगी।
किसी ने दबी ज़ुबान से कहा, “यह लड़का तो कोयला बेचने वाले का है!”
“यहाँ कोई भेदभाव न होगा, राजकुमारी को भी कोयले वाले के बेटे के साथ बैठना पड़ सकता है। जो जब आएगा-तब जगह पाएगा,” उसे सुनने को मिला।
और स्कूल चल निकला।
सरस्वती अनुशासन प्रिय थी। वह सबको एक जैसा पढ़ाती थी लेकिन जो ठीक से ध्यान नहीं लगाते थे उनको कड़ी सज़ा भी देती थी। धीरे-धीरे इस विद्यालय का नाम दूर-दूर तक फैल गया। राजमहल तक भी सरस्वती विद्यालय की प्रसिद्धि जा पहुँची। राजकुमार ने भी सरस्वती विद्या मंदिर में पढ़ना चाहा।
एक दिन वह अपने राजसी कपड़ों में सजा-धजा विद्यालय जा पहुँचा। उसने एक ख़ाली जगह देखी और वहीं चला गया। सरस्वती ने उसे बैठने को कहा। वह सभी से कुछ प्रश्न कर रही थी। जब राजकुमार की बारी आई तो सरस्वती ने उससे भी एक सरल प्रश्न पूछा। राजकुमार को उत्तर नहीं मालूम था। सरस्वती ने राजकुमार के गाल पर उल्टे हाथ का एक झापड़ जड़ दिया। इस चोट से राजकुमार का गाल जलने लगा। ग़ुस्से में लाल, तिलमिलाता राजकुमार महल वापस लौट आया और सीधा अपने पिता के पास पहुँचा।
“पिताजी,” वह बोला, “मेरा ब्याह कर दीजिए और सरस्वती को ही मेरी दुलहन बना दीजिए। मैं आपके पैरों पड़ता हूँ।”
राजा ने तत्काल सरस्वती के पिता को राज दरबार में आने का संदेश भेजा। सरस्वती का पिता दौड़ता-भागता आया और राजा के क़दमों में गिर पड़ा।
“उठो-उठो, मेरे बेटे का दिल तुम्हारी बेटी सरस्वती पर आ गया है, हमारे पास उनकी शादी कर देने के सिवाय कोई दूसरा रास्ता नहीं है।”
“आप जैसा हुक्म दें महाराज! लेकिन मैं एक व्यापारी हूँ और आप हमारे स्वामी हैं!”
“इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। मेरा बेटा यही शादी करना चाहता है।”
व्यापारी घर लौट आया और अपनी बेटी से पूछा, “सरस्वती, राजकुमार तुमसे शादी करना चाहता है। तुम्हारी इस बारे में क्या इच्छा है?”
“मुझे यह रिश्ता स्वीकार है, पिताजी!”
दोनों ओर धन-दौलत की कोई कमी तो थी नहीं! एक सप्ताह में ही शादी की सारी तैयारियाँ पूरी हो गईं। मंडप सजा, दुलहन के साथ-साथ उसकी बारह सहेलियाँ भी सज-धज के साथ मंडप में पधारीं और शादी हो गई।
दुलहन जब राजमहल में पहुँची तो रानी ने दुलहन की सहेलियों को उसकी सहायता के लिए जाने को कहा, लेकिन दूल्हे ने सबक़ो वापस भेज दिया और माँ से कह दिया, “मेरी दुलहन को कोई दासी-दास या सहायक नहीं चाहिए।”
जब राजकुमार अपनी दुलहन के साथ कमरे में अकेला हुआ तो उसने अपनी दुलहन से कहा, “सरस्वती, तुम स्कूल में मुझे मारे गए झापड़ के लिए माफ़ी माँगो!”
“माफ़ी? बिल्कुल नहीं! मेरा बस चले तो तुम्हें एक और चपत लगाऊँ।”
“अच्छा तो तुम माफ़ी नहीं माँगोगी?”
“कभी नहीं, बिल्कुल नहीं, “
“तो तुम्हारी इतनी ऐंठ है? ठीक है! अब मैं भी तुमको सबक़ सिखाऊँगा।”
यह कहकर उसने एक रस्सी ली जिसे सरस्वती की कमर में बाँधकर उसे तहख़ाने के गड्ढे में उतारने चला। अब उसने एक बार फिर सरस्वती से कहा, “एकबार फिर सोच लो, माफ़ी माँग लो नहीं तो मैं तुम्हें अँधेरे तहख़ाने में गिरा दूँगा।”
“वहाँ तो ठंडक होगी!” सरस्वती ऐंठ से बोली। अब राजकुमार ने उसे तहख़ाने में उतार दिया, जहाँ केवल एक कुर्सी, एक मेज़, एक घड़े में पानी और कुछ रूखी-सूखी रोटी रखी थी।
अगली सुबह प्रथा के अनुसार राजा और रानी अपनी नई बहू से मिलने आए लेकिन राजकुमार ने ‘सरस्वती की तबीयत ठीक नहीं है’ कह कर उन्हें भीतर आने से रोक दिया। जब माता-पिता चले गए तब राजकुमार ने फ़र्श पर बने तहख़ाना के पट को खोल और पूछा, “तो कल की रात कैसी रही?”
“बहुत अच्छी, ताज़गी भरी!” जवाब मिला।
“तुम उस झापड़ के बारे में क्या सोचती हो जो तुमने मुझे स्कूल में मारा था?”
“मैं सोचती हूँ कि अभी एक और लगाना बाक़ी है!”
दो दिन बीत गए! सरस्वती को भूख ने सताना शुरू कर दिया। जब कुछ समझ में नहीं आया तो उसने अपने जूड़े में लगा क्लिप निकाला और दीवार खुरचने लगी। धीरे-धीरे दीवार में एक छेद बनने लगा, लगातार बिना रुके वह हाथ चलाती रही। चौबीसों घंटे हाथ चलाने के बाद उसे बाहर से सूरज की रोशनी, उस छेद से आती दिखाई दी। अब सरस्वती दुगनी ताक़त से छेद को बड़ा करने लगी। जब छेद बड़ा हो गया तो उसने उसमें अपनी आँख लगा कर देखा। छेद के उस पार उसे अपने पिता का मुनीम धनीराम दिखाई पड़ा। सरस्वती ने आवाज़ लगाई, “धनीराम, धनीराम।”
धनीराम को कुछ समझ में नहीं आया कि आवाज़ कहाँ से आ रही है। फिर उसने सुना, “मैं सरस्वती हूँ, मेरे पिताजी से कहो कि मैं उनसे अभी बात करना चाहती हूँ।”
थोड़ी देर में धनीराम सरस्वती के पिता के साथ दीवार में बने छेद के सामने आ खड़ा हुआ!
“पिताजी, मेरा दुर्भाग्य देखिए मैं इस समय यहाँ तहख़ाने में क़ैद हूँ। आप यहाँ से लेकर महल के द्वार तक सुरंग खुदवा दीजिए और सुरंग में हर बीस क़दम पर रोशनी भी लगवा दीजिए। आगे जैसा भगवान की इच्छा।”
पिता अपनी इकलौती बेटी के लिए सब कुछ करने का तैयार था। उसने सुरंग खुदवाना और रोशनी लगवाना शुरू कर दिया, छेद से बेटी के लिए थोड़ा बहुत खाना भी भीतर भेजा जाने लगा। हर दिन राजकुमार अपने कमरे के फ़र्श के दरवाज़े से नीचे झाँकता और सरस्वती से पूछता, “सरस्वती अब तो तुम अपने किए की माफ़ी माँग लो।”
“माफ़ी भला किस बात के लिए? अब जो थप्पड़ तुम मुझसे पाओगे वह तुम्हें जन्म भर याद रहने वाले हैं।”
और धीरे-धीरे महल के द्वार से तहख़ाने की दीवार तक सुरंग तैयार हो गई जिसमें हर बीस क़दम के बाद कमानों से बत्तियाँ लगी थीं। जब राजकुमार तहख़ाने के दरवाज़े से सरस्वती से सवाल-जवाब करके पट बंद कर देता तब वह सुरंग से अपने पिता के घर चली जाती।
लेकिन राजकुमार यह सब कब तक करता रहता! अब वह सरस्वती से एक ही उत्तर सुनते-सुनते थक गया था। एक दिन उसने दरवाज़ा खोला और सरस्वती से कहा, “सरस्वती मैं नवदीप जा रहा हूँँ। क्या तुम मुझसे कुछ नहीं कहोगी?”
सरस्वती देवी, “तुम्हारी यात्रा शुभ हो। नवदीप से अपनी कुशल क्षेम भेजते रहना।”
“क्या मैं सचमुच नवदीप चला जाऊँ?”
“अरे! क्या तुम अभी गए नहीं?”
और निराश राजकुमार चला गया। जैसे ही तहख़ाना के पट बंद हुए, सरस्वती दौड़कर अपने पिता के घर पहुँची और बोली, “पिताजी अब आप मुझे सँभालिए, मेरे लिए एक दो मस्तूल वाला जहाज़ तैयार करवाइए जिसमें पूरी गृहस्थी का समान हो, उत्सव में पहनने लायक़ कपड़े हों, उस जहाज़ को नवदीप भेज दीजिए, हमारे सेवक लोग वहाँ पहुँचकर मेरे लिए राजमहल के पास ही कोई हवेली किराए पर ले लें और वहाँ मेरा इंतज़ार करें।” व्यापारी पिता ने अपनी प्यारी बेटी की यह इच्छा तुरंत ही पूरी कर दी।
अपने पिता की हवेली के बारजे से सरस्वती ने राजकुमार के तीन मस्तूल वाले लड़ाई के जहाज़ को भी समुद्र में नवदीप की ओर जाते देखा। अब सरस्वती भी एक छोटी, तेज़ गति की नौका से नवदीप की ओर चल पड़ी और राजकुमार से पहले ही वहाँ पहुँच गई। राजकुमार का तो जहाज़ भारी-भरकम लड़ाई का जहाज़ था न! राजमहल की बग़ल की हवेली की छत पर सरस्वती रोज़ एक से एक नई और सुंदर पोशाक पहनकर टहलने चढ़ जाती थी। राजकुमार भी कभी महल के बारजे और कभी छत पर से सरस्वती को देखता और उसाँसें भरता, सोचता, “यह मेरी अपनी ब्याहता सरस्वती से कितनी मिलती-जुलती है!”
धीरे-धीरे राजकुमार के मन में पड़ोस की इस सुंदरी से मिलने की इच्छा मचलने लगी। एक दिन एक हरकारे को इस सुंदरी के पास राजकुमार ने अपना संदेश लेकर भेजा, “माननीया, यदि आपको असुविधा न हो तो हमारे राजकुमार आपसे मिलना चाहेंगे।”
“ज़रूर, क्यों नहीं!”सरस्वती ने उत्तर भेज दिया।
राजकुमार अपनी पूरी सज-धज के साथ आया और सरस्वती के आगे सम्मान से नत हुआ। जब बातचीत कुछ आगे बढ़ गई तब उसने बड़ी विनम्रता से पूछा, “देवी जी, क्या आपका विवाह हो चुका है?”
सरस्वती, “अभी तक तो नहीं और आप? क्या आप विवाहित हैं?”
“आपको ऐसा क्यों लगा? मैं भी अभी अविवाहित ही हूँ। हाँ, पालनपुर में एक युवती मुझे पसंद आई थी। आप कुछ-कुछ उससे मिलती हैं। क्या आप मुझसे शादी करना चाहेंगीं?”
“आपका प्रस्ताव मुझे स्वीकार है।”
और कुछ दिनों बाद ही राजकुमार और सरस्वती का विवाह हो गया।
विवाह के बाद नौ महीने पूरे होते ही सरस्वती में एक चाँद जैसे बेटे को जन्म दिया। बहुत ख़ुश होकर राजकुमार ने अपनी पत्नी सरस्वती से पूछा, “मेरी प्यारी रानी, भला बताओ तो हम इस बेटे का क्या नाम रखें?”
“नवदीप,” सरस्वती तुरंत बोली और बेटे का नाम पड़ा ‘नवदीप’।
दो वर्ष बीत गए। अब राजकुमार का मन नवदीप में नहीं लग रहा था। उसने सरस्वती से कहा कि वह अपने राज्य के ‘जानसर’ शहर में जाकर रहना चाहता है। सरस्वती ने उसे रोकना चाहा लेकिन उसने सरस्वती को एक शपथ पत्र लिखकर दिया कि ‘नवदीप मेरा पहला पुत्र है, समय आने पर वही मेरे राज्य का उत्तराधिकारी होगा।’ यह शपथ पत्र सरस्वती के हवाले करके वह जानसर चला गया। इधर सरस्वती ने भी अपने पिता से कहकर एक जहाज़ सारी सुविधा, वैभव की सामग्री के साथ जानसर की ओर रवाना करवा दिया। पहले की तरह इस बार भी सरस्वती के जानसर पहुँचने से पहले राजकुमार के राजमहल के पास की एक हवेली किराए पर ले ली गई और सुख सुविधा से पूर्ण कर दी गई। सरस्वती भी राजकुमार के पहुँचने से पहले वहाँ पहुँच गई।
यहाँ भी नवदीप की कहानी दोहराई जाने लगी। राजकुमारी ने जब सरस्वती को देखा तो उसे अपनी पत्नी की याद आ गई, जिसे वह तहख़ाने में बंद छोड़ आया था। उसके दिलसे आह निकली, ‘यह स्त्री सरस्वती से कितनी मिलती-जुलती है!’
अब राजकुमार ने इस नई पड़ोसन से जान पहचान बढ़ायी। कुछ दिनों में जब मित्रता कुछ गहरायी तो राजकुमार ने पूछा, “क्या आप अकेली हैं?”
सरस्वती ने उत्तर दिया, “मैं विधवा हूँ और आप?”
“मैं विधुर हूँँ और मेरा एक बेटा भी है। कैसा संयोग है कि आपकी शक्ल-सूरत ऐसी दो महिलाओं से मिलती है जिन्हें मैं जानता हूँँ एक नवदीप में रहती है और दूसरी पालनपुर में।”
“क्या सचमुच?” सरस्वती ने भेद भरी मुस्कुराहट के साथ कहा, “कहते हैं भगवान एक तरह के सात लोग बनाकर धरती पर भेजता है। आपने भी यह कहावत ज़रूर सुनी होगी।”
और फिर, कुछ दिनों में दोनों का ब्याह हो गया। विवाह के नौ महीने बाद सरस्वती ने फिर एक बेटा जना जो पहले वाले से भी अधिक प्यारा और सुंदर था। इस नए बालक का नाम रखा गया ‘जानू’!
दो साल बीतते न बीतते राजकुमार का मन जानसर से भी उचाट हो गया। जब उसने कहीं और जाने की बात की, तो सरस्वती ने दुखी होकर कहा “आप एक बच्चे की ज़िम्मेदारी अकेले मेरे ऊपर छोड़कर कहीं और जाने की बात कैसे सोच ले रहे हैं?” इस बार राजकुमार ने फिर एक शपथ पत्र बनाकर सरस्वती को दे दिया, जिसमें लिखा गया ‘राजकुमार जानू मेरा औरस पुत्र है और मेरा दूसरा बेटा है, इसमें हमारा शाही ख़ून है।’ इस ज़रूरी दस्तावेज़ के बन जाने के बाद राजकुमार मायापुरी जाने की तैयारी करने लगा। इधर सरस्वती ने फिर व्यापारी, धनवान पिता से कहकर मायापुरी में अपने लिए घर, नौकर-चाकर, ऐशोआराम का प्रबंध करवा लिया और राजकुमार भी अपने युद्धपोत से मायापुरी की ओर चल पड़ा। मायापुरी में भी राजकुमार का स्वभाव न बदला।
एक दिन जब उसने अपने पड़ोस में शान-शौकत के साथ रहने वाली, सरस्वती की झलक वाली सुंदर स्त्री को उसकी खिड़की में देखा तो चौंक पड़ा।
“यह तो जानसर और नवदीप में रहने वाली मेरी दोनों बीवियों की तरह ही दिखाई देती है! और पालनपुर में रहने वाली सरस्वती देवी भी तो ऐसी ही लगती है!” उसने तुरंत अपना एक दूत उस पड़ोसी महिला के पास भेजा और मिलने की इच्छा प्रकट की। मिलने पर वह अपनी प्रतिवेशिनी से बोला, “आपको मेरी बात पर विश्वास नहीं होगा लेकिन मैं आप जैसी शक्ल सूरत वाली तीन और महिलाओं को जानता हूँँ, एक पालनपुर में, दूसरी नवदीप में और तीसरी जानसर में रहती है!”
“अच्छा? लोग तो कहते हैं कि दुनिया में हर किसी के सात जुड़वें होते हैं, शायद यह बात सच्ची है!”
और बातचीत आगे बढ़ी और शादी तक आ पहुँची, “आप शादीशुदा हैं?”
“मैं विधवा हूँ, और आप? “
“मैं दो बेटों वाला विधुर हूँ!”
और इस बार भी कुछ ही दिनों में दोनों का विवाह हो गया!
इस बार सरस्वती ने एक सुंदर सलोनी बेटी को जन्म दिया और बेटी का नाम रखा गया ‘माया’!
जैसे-तैसे दो साल बीते और फिर राजकुमार जी का जी मचलने लगा। आख़िर में वह फिर अपनी पत्नी से बोला, “मैं तुम्हें एक शपथ पत्र लिखकर दूँगा जिसमें यह लिखा होगा कि ‘यह मेरी बेटी है और राजपरिवार का रक्त ही उसमें है’।” शपथ लिखी गई और इस बार राजकुमार सीधे पालनपुर जा पहुँचा।
इधर पिता की तेज़ रफ़्तार छोटी नाव के कारण सरस्वती राजकुमार के बड़े जहाज़ से पहले ही पालनपुर पहुँच गई और सुरंग से होती हुई तहख़ाने में जा छुपी।
राजकुमार पालनपुर के अपने महल में पहुँचते ही सीधे अपने कमरे में गया और तहख़ाने का पट खोलकर आवाज़ लगाई, “सरस्वती तुम कैसी हो?”
“अरे तुम आ गए? मैं ठीक-ठाक हूँ।”
“क्या अब इतने सालों तक तहख़ाने में बंद रहने के बाद, मुझसे अपने थप्पड़ के लिए क्षमा माँग लोगी? तुम्हें अपने किए पर पछतावा तो ज़रूर हो रहा होगा! सुनो सरस्वती तुम अपने किए की माफ़ी माँग लो नहीं तो अब मैं दूसरा विवाह कर लूँगा“
“तुम्हें रोका किसने है? जो दिल चाहे करो, जहाँ तक मेरी बात है, मैं तो चाहती हूँ कि अब जो थप्पड़ मैं तुम्हें लगाऊँ वह तुम अपने जीवन भर ना भूलो!”
“अगर तुम माफ़ी माँग लोगी तो मैं तुम्हें ही अपने साथ रखूँगा!”
“कभी नहीं, कभी नहीं!”
उसके बाद राजकुमार ने अपनी पत्नी की मृत्यु की आधिकारिक घोषणा करवा दी और विवाह के लिए राजघरानों से प्रस्ताव भी आमंत्रित कर लिए। अनेक राजपरिवारों से युवतियों के चित्र सहित प्रस्ताव आए। राजकुमार को अंग देश की राजकुमारी का चित्र पसंद आगया और राजकुमारी के परिवार को विवाह के लिए आमंत्रण भेज दिया गया। अंग देश का राज परिवार जल्दी ही पालनपुर में आ गया और विवाह का दिन भी नियत हो गया। इसी बीच में सरस्वती ने अपनी तीनों संतानों नवदीप, जानू और माया के लिए राजसी पोशाकें तैयार करवायीं। राजकुमार के विवाह के दिन स्वयं भी महारानी की तरह सज गई। नवदीप को उसने युवराज का स्थान दिया और एक गाड़ी में अपने पिता के घर से राजमहल की ओर चल पड़ी। अंग देश की राजकुमारी की सवारी भी विवाह की रस्मों के लिए राजमहल की ओर आ रही थी। इस समय सरस्वती ने अपने बच्चों से कहा, “जाओ, अपने पिता को प्रणाम करो।”
इन बच्चों के साथ साक्षात् सरस्वती को देख कर राजकुमार को अपनी हार स्वीकार कर लेनी पड़ी। वह बोल उठा, “तो यह तुम्हारा थप्पड़ है, जो मुझे जीवन भर याद रखना है! सरस्वती!” इस वाक्य के साथ ही राजकुमार ने अपनी तीनों संतानों को गले लगा लिया!
अंग देश से आए सभी लोग यह सब देखकर भौचक्के रह गए और कुछ समय बाद लौट चले।
बाद में समय आने पर सरस्वती ने अपने जैसी अन्य महिलाओं का रहस्य राजकुमार को बता दिया। राजकुमार बाक़ी की ज़िन्दगी सरस्वती से क्षमा तो माँगता रहा परन्तु उसके सुख और प्रेम में कोई कमी न आयी।
ईश्वर सरस्वती जैसी बुद्धि और धैर्य सभी को दें।
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