निंदिया लागी रे
संस्मरण | आप-बीती सरोजिनी पाण्डेय1 Jun 2024 (अंक: 254, प्रथम, 2024 में प्रकाशित)
काय चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, उपदेशक सभी इस विषय पर एकमत हैं कि मनुष्य के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए चौबीस घंटे में आठ घंटे सोना आवश्यक है, वैसे आयु और दूसरी अनेक स्थितियों के आधार पर यह समय अधिक अथवा कम भी हो सकता है। हमारे सनातन धर्म में तो संसार के कर्ता-धर्ता श्री नारायण विष्णु भी वर्ष के बारह महीनों में, देवशयनी एकादशी से देवोत्थान एकादशी तक, चार महीने सोते हैं, और हम सभी जानते हैं कि भगवान का एक दिन हमारे एक वर्ष के बराबर होता है। तो बात तो वही हो गई कि हम मनुष्यों को भी कम से कम उतना तो सोना ही चाहिए जितना हमारे देवता सोते हैं! और अनुपाततः यह वही है जो मानव शरीर के लिए आवश्यक चौबीस घंटे में आठ घंटे का होता है। सृष्टि का आरंभ भी तभी हुआ जब प्रलय के बाद विष्णु जी अपनी निद्रा से जागे, कितने ज्ञानी थे हमारे पूर्वज!
शैशव काल से ही हमें नींद का महत्त्व समझाया जाता है। माँ शिशु को सुलाने के लिए बाँहों और पालने में उसे झुलाने का प्रयत्न करती है, गीतों की तो एक विधा ‘लोरी’ का जन्म ही हो गया, शिशु की निंदिया बुलाने के लिए। कृष्ण बाल लीला करते हुए यशोदा के पालन झुलाने और लोरी गाने के बावजूद—“कबहुं पलक हरि मूंदि लेत हैं कबहुं अधर फरकावैं”।
सूरदास की यशोदा तो बालकृष्ण को सुलाने के लिये लोरी गाती है लेकिन हमारी फ़िल्मों में तो पत्नी भी कहती है—“मैं जागूँ सारी रैन सजन तुम सो जाओ”।
या फिर अनिद्रा से ग्रसित प्रेमिका के लिए प्रेमी नायक अपने निद्रा का त्याग करता हुआ दिखाई देता है—“राम करे ऐसा हो जाए, मेरी निंदिया तोहे मिल जाए मैं जागूँ तू सो जाए।”
प्रेम में व्याकुल नायक-नायिका की नींद उड़ जाना तो ग़नीमत है, किसी अलबेली नायिका ने तो अपनी बिंदिया के खो जाने से ही नींद खो बैठने की बात कही है—“बिंदिया जाने कहाँ खोई ननदिया, मैं सारी रतियाँ नहीं सोई!”
एक नायिका यह है जो अपनी बिंदिया के खो जाने से हलकान हो कर अपनी निंदिया खो रही है, वहीं दूसरी नायिका, नायक को चेतावनी दे रही है कि मेरी बिंदिया की इतनी प्रशंसा तो ना करना वरना—“सजन निंदिया ले लेगी मेरी बिंदिया रे”। मतलब यह कि यदि किसी चीज़ की बहुत तारीफ़ करिएगा तो आप को उससे मोह हो जाएगा और यही—“मोह तो जायते भयम्, मोहतो जायते पापम्, मोहतो जायते दुखम्”।
वर्तमान युग में अच्छा करियर पाने, करियर को बचाए रखने, हर प्रकार के ऐश्वर्य की प्राप्ति शीघ्रतिशीघ्र कर लेने के मोह इतने व्यापक हो गए हैं कि उनके साथ-साथ अनिद्रा का रोग भी व्यापक होता जा रहा है। चिकित्सा विज्ञान में स्लीप मेडिसिन की विशेषज्ञता का एक नया विषय ही विकसित हो गया है, जिसमें अनिद्रा के रोग का इलाज किया जाता है।
एक और जहाँ गहरी नींद लाने के नुस्ख़े व्हाटस् ऐप, इंस्टाग्राम पर रोज़ दर्जनों की संख्या में तैरते दिखलाई पड़ते हैं, अनिद्रा की चिकित्सा होती है, वहीं दूसरी ओर जो ‘सोवत है वह खोवत है’ की कहावत सुनाने वाले भी कम नहींं है। विद्यार्थी जीवन में तो तत्काल खुल जाने वाली नींद, ‘श्वान निद्रा’ ही विद्यार्थी का सुलक्षण मानी जाती है।
एक और क्षीर सागर में शेषशैया पर, लक्ष्मी जी से पैर दबवाते हुए, सोने वाले हमारे नारायण पूजे हैं, तो वहीं बेचारा कुंभकरण अपनी छह मास की नींद के कारण बदनाम भी है।
कवि कहता है:
“लड़कपन खेल में खोया
जवानी, नींद भर सोया”
तो दूसरी ओर:
“मौत का एक दिन मुअय्यन है,
नींद क्यों रात भर नहींं आती?”
सोच-सोच कर परेशान होने वाला शायर भी है।
लोकगीत की गायिका इसलिए परेशान है कि उसका साजन द्वार से ही इसलिए लौट गया क्योंकि पुरवाई के ठंडे झोकों के असर से उसकी आँख लग गई थी:
“बहै पुरवइया मैं सोइ गयूं गुइयाँ,
सैंइयां दुआरे से चले गए।”
अब तक की गई बातों का लुब्ब-ए-लुबाब यह कि अति किसी की भी अच्छी नहींं होती चाहे वह अत्यावश्यक नींद ही क्यों ना हो। किसी कवि ने कहा है न:
“अति का भला न बरसना
अति की भली न धूप
अति का भला न बोलना
अति की भली न चूप।”
साथ में यह भी कहना चाहिए:
“अति का भला न जागना
अति की भली घूम/झोप” (बांग्ला/मराठी)।
इस आलेख को लिखते हुए, नींद संबंधित बातें सोचते हुए, उनका सिलसिला मिलने में 11वीं कक्षा में पढ़ी गई, भगवती प्रसाद वाजपेई की कहानी ‘निंदिया लागी’ बरबस याद आ रही है हालाँकि इस कहानी में इस गीत को गाने वाली स्त्री की मृत्यु के माध्यम से लेखक ने कहानी के नायक बेनी प्रसाद के चरित्र का विकास किया है परन्तु अपने मन का क्या करूँ जिसे इस आलेख के शीर्षक के कारण यह कहानी याद आ गई?
फिर आगे चलती हूँ क्योंकि इस नींद के बहाने से तो मुझे आपको अपने जीवन की एक घटना सुनानी है!
उसे दिन मेरी नींद के कारण मेरे सैंइयां द्वार से तो नहीं लौटे, लेकिन—
मेरे पति ने भारत की खनिज तेल निकालने वाली संस्था, तेल एवं प्राकृतिक गैस कॉरपोरेशन में काम किया है और मैं आजीवन गृहणी रही हूँँ। उन दिनों पति की नयी नियुक्ति मुंबई में हुई थी, जहाँ उन्हें समुद्र के तल में तेल की उपस्थिति जानने के लिए, समुद्र तल का अध्ययन करने के लिए, वैज्ञानिक संयंत्रों से आँकड़े इकट्ठे करने का काम मिला था। इस काम के लिए विशेष संयंत्रों सुविधाओं से युक्त, छोटे पोतों का प्रयोग किया जाता है, जो कई दिन तक समुद्र में रह कर वैज्ञानिक उपकरणों से आँकड़े इकट्ठे करते हैं। एक बार नौका पर जाने के बाद कई बार पति दस-पंद्रह दिन बाद भी घर आते थे, एक सप्ताह तो अवश्य ही रहना होता था। आवास के लिए हमें बोरीवली नामक, मुंबई के, एक उपनगर में दो कमरों का एक फ़्लैट मिला था जो पाँच मंज़िलें भवन में सबसे ऊपरी तल पर था। मुंबई में अभी कॉर्पोरेशन का नया ही काम शुरू हुआ था इसलिए अधिकांश फ़्लैट ख़ाली थे। नीचे की दो मंज़िल पर लोग रहते थे, बीच की दो मंज़िलों में अभी कौवे बोलते थे, फ़ोर्थ फ़्लोर या पाँचवीं मंज़िल (ज़मीन पर बनी मंज़िल को शून्य या ज़ीरो फ़्लोर कहा जाता था) पर हमारा फ़्लैट था, जिसमें हम पति-पत्नी ने दो वर्ष की छोटी बिटिया के साथ दो कमरे में अपना आशियाना बनाया था।
उस दिन एक सप्ताह की छुट्टी के बाद पति को काम करने समुद्र में नौका से जाना था। सुबह तैयार होकर, इस प्रवास के लिए कपड़े लत्ते बाँधकर अपनी अटैची लेकर पति ‘विक्टोरिया डॉक’ (मुंबई का वह बंदरगाह जहाँ से मेरे पति के छोटे जहाज़ को रवाना होना था) चले गए। दिन में ग्यारह बजे इनके छोटे से जहाज़ की ‘सेलिंग’ होनी थी और कम से कम एक सप्ताह तो पति को वहीं रहना था।
घर में मैं और मेरी दो बरस की बेटी-सामने एक सप्ताह का समय, जब केवल हम दोनों ही साथ रहने वाले थे।
दिन भर घर गृहस्थी के काम, चूल्हा-चौका सफ़ाई-सिलाई और एकाध नई बनी सहेलियों की गप-गोष्ठी में कब बीत गया पता ही नहीं चला।
बेटी शाम आठ बजे तक सो गई। उन दिनों टेलीविज़न तो होते थे, न मोबाइल का नाम ही किसी ने सुना था। तो मनोरंजन का सबसे लोकप्रिय माध्यम था, पुस्तक पढ़ना, और मैं ठहरी बचपन से ही किताबी कीड़ा। एक सप्ताह का समय बिताने के लिए एक नया उपन्यास पढ़ना शुरू कर दिया। पढ़ते-पढ़ते कब आँख लग गई कुछ पता भी न चला। कितनी देर तक सोई इसका भी कुछ अंदाज़ा न था। सहसा बहुत ज़ोर से तड़ाक ऽ ऽ तड़ाक ऽ ऽ ऽ की कठोर, कर्ण कटु, भयानक आवाज़ों से मेरी नींद खुल गई। मेरी तो जान ही निकल गई, हे भगवान, यह कैसी विपत्ति है? क्या समुद्र से तूफ़ानी हवाएँ आई हैं? भूकंप है? ओले पड़ रहे हैं? कोई खिड़की पर पत्थर फेंक रहा है? कुछ समझमें नहीं आ रहा था। कानों में यह भयंकर स्वर गूँज रहा था और दिल इतना ज़ोर से धड़क रहा था मानो छाती फट जाएगी। तनिक सचेतन होने पर समझ में आया कि कोई डंडे से खिड़की के बाहर खुलने वाले पट पर प्रहार कर रहा है। यह स्थिति शायद एक-आधा मिनट की रही होगी। फिर दरवाज़े पर पड़ती चोटें कुछ क्षणों के लिए रुकीं और एक पुरुष स्वर सुनाई दिया, “शोला नंबर (हमारा फ़्लैट नंबर) का शाब आया है। दरवाज़ा खोलो।” यह स्वर हमारी बिल्डिंग में तैनात नेपाली चौकीदार का लगा क्योंकि आसपास के अधिकतर लोग गुजराती और मराठी भाषा भाषी थे। मैंने ज़ोर से चिल्ला कर पूछा, “कौन है?”
ऊपर की तरफ़ से उत्तर आया, “मेम शाब मैं धन सिंह। आपका गुरखा। शाब आया है दरवाज़ा खोलो।”
“ठीक है, मैं दरवाज़ा खोलती हूंँ।”
इतना कहकर मैं अपने को सँभालती, मुख्य द्वार की ओर चली। अब तक सारा वातावरण शांत हो गया था, मेरी घबराहट भी कम हो गई थी। मैं मुख्य द्वार पर आयी, पीपिंग विंडो से बाहर खड़े आदमी को देखा, वह मेरे पतिदेव ही थे। द्वार खोलते ही वह भीतर आ गए, किवाड़ फिर से बंद किया और मुझ पर बरस पड़े, “ऐसे भी कोई सोता है? सारा महल्ला जाग गया, बस मेरी बीवी की नींद नहीं खुली। डोर बेल बजते-बजते बेकार हो गई, पर वाह रे कुंभकरण की अम्मा, तुम्हारी नींद नहीं खुली!!”
स्वाभाविक रूप से शांत स्वभाव के अपने पति के मुख से मैंने, अब तक के हमारे विवाहित जीवन में, ऊँची आवाज़ तक न सुनी थी, डाँट तो बहुत दूर की बात है। ग्लानि और लज्जा से मैं गड़ी जा रही थी।
पिता का इतना उत्तेजित स्वर सुनकर सोई हुई बेटी भी नींद से उठ गई। वह घबराकर रोने लगी। उसके रोने से एक लाभ यह हुआ कि इनका ग़ुस्सा उतर गया और वह बिटिया को गोद में लेकर उसे फिर से सुलाने में लग गए। उसके सो जाने के बाद कपड़े बदले और ग़ुस्से में भरे-भरे ही पलंग पर मुँह फेर कर लेट गए। कितना सोए, कितना जागे, कितना ग़ुस्साए मुझे मालूम नहीं।
मैं अपनी ग्लानि-लज्जा और कुछ अपमान से आहत, मरी जा रही थी। कितना रोयी कितना, सोयी कुछ याद नहीं। अगली सुबह यह फिर तड़के ही उठकर तैयार होने लगे। मुँह अब तक फूला ही था। लेकिन दोनों और की चुप्पी भला कब तक चलती?
मैंने सोचा नया दिन-नयी शुरूआत!
और पूछा, “आप तो एक हफ़्ते के लिए गए थे फिर क्या हुआ? आपकी अटैची कहाँ है?”
ग़ुस्से में मुँह फुलाए ही जनाब बोले, “जहाज़ को डॉक से बाहर जाने के लिए पायलट बोट की ज़रूरत होती है। ग्यारह बजे की हमारी सेलिंग थी। चार बजे तक जब पायलट बोट नहीं मिली तो सेलिंग कैंसिल हो गई। अब आज दस बजे सेलिंग है। सात बजे निकलूँगा। अटैची डॉक में ही है। कल डॉक में सोने से तो अच्छा था कि मैं घर जाकर सोता इसीलिए चला आया था। अगर ना आया होता तो ही अच्छा था!”
इतना सब सुनकर मेरी हिम्मत बढ़ी। पूछा, “घंटी क्यों नहीं बजायी?”
उत्तर मिला, “जब तीन-चार बार घंटी बजाने पर भी तुम नहीं आईं तो मैंने ग़ुस्से में डोर बेल के स्विच पर ही हाथ जमा दिए। शायद एक-दो मिनट तक लगातार बजने से शॉर्ट सर्किट होकर डोर बेल भी बंद हो गई। यह तो कहो कि हम सबसे ऊपर की मंज़िल पर हैं। चौकीदार को डंडा लेकर ऊपर छत पर भेजा। वहाँ से जब उसने बाहर खिड़की के पल्ले पर डंडा पीटा तब तुम जागीं। अगर तुमने खिड़की बंद रखी होती तब तो शायद फ़ायर ब्रिगेड ही बुलाना पड़ता। चिंता से मेरा दिमाग़ ही ख़राब हो रहा था कि तुमको और बच्ची को न जाने किस हालत में पाऊँगा। आज जाकर डॉक्टर को दिखा आना कि तुम्हें क्या हो रहा है।”
मन में दुख और लज्जा लिए, बड़े अशांत मन से मैंने पति को नाश्ता परोसा। ग़ुस्से के मारे वे कुछ खाने को तैयार न थे, बड़ी चिरौरी-विनती करने और यह कहने पर कि घर से बासी मुँह निकालना बहुत अशुभ होता है, बड़ी मुश्किल से इन्होंने दो निवाला खाए बाक़ी प्लेट सरका कर घर से निकल गए।
दिन में मैं सचमुच अपने को दिखाने के लिए डॉक्टर के पास चली गई। जाँच करके जब उसने बताया कि मेरी गर्भावस्था के कारण शायद यह स्थिति आई हो। कभी-कभी हारमोंस की उथल-पुथल से ऐसी नींद सम्भव है, समय-बेसमय कभी भी नींद आ सकती है कभी गहरी और कभी अनिद्रा भी हो सकती है। मैं गर्भवती थी यह तो मुझे मालूम था परन्तु मेरी नींद की इस दशा के लिए वह स्थिति भी ज़िम्मेदार हो सकती है, यह मैं नहीं जानती थी वरना मैं, ‘वूमंस लिब’ युग की स्त्री, उनसे लड़ ही पड़ती
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बिहार में प्रचलित एक बज्जिका लोकगीत याद आ गया। तुलसीदास जी आधी रात में ससुराल पहुँच के अपनी पत्नी को जगा देते हैं। उनकी पत्नी उनके उपर गुस्सा हो जाती है और उनसे शिकायत करते हुए कहती है.. काँची निनिया में हमरा जगवला बालमा जगवला बालमा हो सतवला बालमा