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व्हाट्सएप?

 

कल शाम मित्रों की एक टोली घर आई 
लतीफ़ों, कहानियों के बीच 
हमने चाय की चुस्कियाँ लगाईं
धीरे-धीरे बातें‘आज के ज़माने’ पर उतर आईं, 
कुछ तो अच्छा हो रहा है, कुछ में है बड़ी बुराई, 
आई-फोन, ई-मेल, फ़ेसबुक तो ठीक था, 
फिर बेचारे व्हाट्सएप की तो शामत ही बन आई, 
इसके कारण ही अब सखियाँ नहीं मिलतीं, 
गाहे-बगाहे मित्रों की महफ़िलें नहीं जमतीं, 
 
उस समय तो मैंने भी सबकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाई, 
पर ऐसा करते हुए मेरी नियत कुछ डगमगाई, 
मन ही मन सोचती, कुछ-कुछ गुनती रही, 
इस विधा के दोष-गुन, तोलती-गिनती रही! 
 
‘व्हाट्सएप’ ना होता तो मेरा क्या होता? 
हम जैसे अनाड़ी कवियों को कौन पढ़ता? कौन सुनता? 
नित्य जन्म लेने वाले दार्शनिक, वैद्य, विदूषक रह जाते अनसुने, 
जनता को इनसे मिलने वाले ‘लाभों’ की कौन गुने? 
 
सच है यह भी है ये कलाकार 
तालियाँ कम, गालियाँ ज़्यादा पाते हैं 
पर यह क्या कम है कि मंच की ‘हूटिंग’, 
और सड़े अण्डों से बच जाते हैं! 
 
वैद्य, हकीम, डॉक्टर, ज्योतिषी, कलाकारों से 
लेखक, अन्वेषक, कवियों, छायाकारों से 
कहती हूँ हाथ जोड़, “कहो और ख़ूब कहो, 
ई-ताली, ई-गाली, या ‘अँगूठा’ चाहे जो भी मिले, 
शांत-निर्विकार होकर उसे दोनों हाथों से गहो, 
साथ ही साथ एक और अर्ज़ है 
मेरी—‘फ़ॉरवर्ड’ से बचकर, 
कुछ मौलिक कुछ नया कह कहो!”
 
असली समस्या तो वे कुलबुलाती अंगुलियाँ हैं, 
जिन्हें कुछ और नहीं बस फ़ॉरवर्ड ही करना है
वही-वही संदेशे बार बार आते हैं, 
नंद-सूचना के बदले विक्षोभ दे जाते हैं, 
 
संयम के साथ अगर ‘व्हाट्सएप’अपनाया जाये, 
संचार का यह सर्वोत्तम साधन ही बन जाए॥

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