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सीखने की भी एक उम्र होती है

प्रिय पाठकगण, आप में से अधिकांश तो इस शीर्षक को पढ़कर चौंक ही जाएँगे क्योंकि जीवन को सार्थक और सुखमय बनाए रखने के लिए अक़्सर इस भाव के विपरीत भाव की सूक्ति कही जाती है, ‘सीखने की कोई उम्र नहीं होती‘। कुछ समय पहले तक मैं भी इस सूक्ति में पूर्ण विश्वास रखती थी।

फिर भी अपने आलेख का शीर्षक मैंने ऐसा क्यों चुना? यह प्रश्न आपके जे़हन में आना बहुत स्वाभाविक और आवश्यक है, तो लीजिए सुनिए मेरे इस शीर्षक के पीछे का कारण—

मैं वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में हूंँ, आजीविका के लिए मैंने गृहणी का काम किया है, संपूर्ण निष्ठा और समर्पण के साथ! इस आयु में अधिकांश गृहस्थों के घोंसले ख़ाली रह जाते हैं, संतानें अपने पंख तोल कर उड़ जाती हैं और नए नीड़ बना लेती हैं। मेरे साथ भी ऐसा ही है।

हम पति-पत्नी एक बहुमंज़िली इमारतों वाली सोसाइटी में रहते हैं। इस ढंग की बस्तियों (बस्ती शब्द शायद कुछ लोगों को नागवार गुज़रे परन्तु कॉलोनी से बस्ती शब्द मुझे अधिक भारतीय लगता है) के घरों को कुछ लोग ‘कबूतर खाना‘ या ‘मुर्गी का दड़बा’ कहते हों, परन्तु हम जैसे ‘ख़ाली घोंसले’ में रहने वाले लोगों के लिए तो यह वरदान स्वरूप होती हैं। सोसाइटी की देखभाल, रख-रखाव के लिए जो संगठन बनाए जाते हैं, वे कभी त्योहारों का आयोजन करते हैं और कभी खेलकूद, भजन-कीर्तन या अन्य गतिविधियों का। मैं जिस सोसाइटी में रहती हूंँ वहाँ भी यह संगठन अत्यंत सक्रिय है और अनेक आयोजनों द्वारा निवासियों को सामाजिक मेल-जोल का मंच प्रदान करता है। मेरी प्रस्तावना तो शायद कुछ लंबी होती जा रही है, अब हम आते हैं मुख्य विषय पर–तो हुआ यूँँ कि एक दिन मैंने सोसाइटी के नोटिस बोर्ड पर (व्हाट्सएप) पढ़ा कि थिएटर का अभिनय सिखाने की कक्षाएँ आयोजित करने का विचार हमारी समिति कर रही है। अमुक तारीख़ को अमुक समय पर दो घंटे की एक सभा में प्रशिक्षण का नमूना दिखलाया जाएगा। संतुष्ट व इच्छुक लोग निर्धारित दिनांक तक अपना पंजीकरण करा कर, निर्धारित शुल्क देकर प्रशिक्षण ले सकते है। नमूने की कक्षा निःशुल्क थी। आयु की कोई सीमा नहीं दी गई थी। प्रशिक्षण के बाद प्रमाण पत्र भी प्रत्येक सफल प्रशिक्षणार्थी को मिलने वाला था। पूर्ण रूप से निश्चिंत होने के लिए आयोजकों से व्यक्तिगत रूप से बात कर पूछ लिया, आयु की ऊपरी सीमा नहीं थी . . . चिकित्सा जगत के चमत्कारी आविष्कारों, स्वास्थ्य के प्रति बढ़ती जागरूकता और सजगता, देश की बढ़ती हुई संपन्नता के कारण औसत भारतीय का जीवनकाल भी कुछ लंबा हो गया है। शायद इसी तथ्य का आर्थिक लाभ उठाने के लिए मोबाइल पर, अख़बारों में और अख़बार के बीच में रखी हुई विज्ञापन की पर्चियों पर आए दिन ऐसे विज्ञापन देखती रहती थी, जिनमें कहा जाता कि वरिष्ठ नागरिकों को जीवन की भाग दौड़ के बीच, भुला दिए गए अपने पुराने शौकों को फिर से जीवित करना चाहिए और ज़िन्दगी को भरपूर जीना चाहिए, कोई अँग्रेज़ी डांस तो कोई, कोई वाद्य यंत्र सिखाने के लिए तैयार बैठा दिखता, बुज़ुर्गों के लिए संगीत की कक्षाओं की भी कमी न थी।

मैंने नोटिस पढ़ा और कई-कई बार पढ़ा। अपने छात्र जीवन से ही मुझे अभिनय में रुचि रही थी। विद्यालय में मनाए जाने वाले लगभग सभी उत्सवों में भागीदारी की थी। बाद के जीवन में भी सार्वजनिक समारोहों में मंच पर आना होता रहा था, परन्तु औपचारिक प्रशिक्षण तो कभी मिला नहीं था! गृहणी होते हुए पाककला, सिलाई-कढ़ाई, हाउसकीपिंग, आदि, सब की थी परन्तु कभी कोई डिग्री या प्रमाण पत्र नहीं मिला। सोचा, चलो यह अवसर मिला है, इसका लाभ उठाया जाए, और कुछ हो न हो आत्म तुष्टि तो होगी! कहीं दूर जाना नहीं! घर में बहुत कम काम होने के कारण समय काटे नहीं कटता, इस बहाने कुछ दिनों की एक समय सारणी बन जाएगी। कुछ लोगों से मिलना जुलना हो जाएगा और प्रमाण पत्र मिलेगा सो बोनस!!

नियत दिन, नियत समय और नियत स्थान पर मैं जा पहुँची। हॉल में तीन प्रशिक्षक और आयोजक मंडल के चार-पाँच सदस्य मेज़ की एक तरफ़ बैठे थे उसकी दूसरी तरफ़ दस से पंद्रह वर्ष की आयु के बालक-बालिकाएँ बैठे थे। बग़ल में अभिभावकों के लिए स्थान नियत था। मैंने एक बार आयोजकों के पास जाकर फिर मालूम किया कि प्रशिक्षणार्थियों की कोई आयु सीमा तो निर्धारित नहीं है? परन्तु उत्तर इस समय भी नकारात्मक था। मैं अभ्यर्थियों के साथ जाकर कालीन पर बैठ गई। कुछ देर तक अभिनय सीखने के इच्छुक आते तो रहे परन्तु कोई किशोरावस्था के पार न था। मैं मन ही मन झुँझलाई, इतनी बड़ी आबादी में क्या मुझे छोड़कर किसी वयस्क को अभिनय में रुचि नहीं है? क्या हमारे बीच केवल प्रशिक्षित कलाकार ही हैं? टहलते, घूमते-फिरते तो कई वरिष्ठ नागरिकों से मुलाक़ात और दुआ सलाम होती रहती है, क्या किसी में जीवन के लिए कोई उत्साह नहीं बचा है? आख़िर ये विज्ञापित कक्षाएँ चलती कैसे हैं? मन डगमगाने लगा फिर भी मैं साहस बटोरे, बैठी रही, और मन ही मन दोहराती जाती थी ‘सीखने की कोई उम्र नहीं होती!’

बात आगे बढ़ी, प्रशिक्षकों ने अपनी सूची से नाम बुलाने आरंभ किए। अपना नाम पुकारे जाने पर जब मैं खड़ी हुई तो तीनों के तीनों मेरी तरफ़ कुछ विस्मय और शायद कुछ कौतुक भरी नज़रों से देखने लगे। एक ने कुछ झिझकते हुए पूछ ही लिया, “मैम आप गार्जियन है या स्टुडेंट?” मैं तो दृढ़ निश्चय कर चुकी थी कि थियेटर वर्कशॉप का प्रमाण पत्र लिए बिना मानूँगी नहीं, सो उत्तर के स्थान पर मैंने ही प्रश्न पूछ लिया, “क्या मेरी आयु के लोगों के लिए कक्षा में पाबंदी है?” बेचारा प्रशिक्षक मुझ से बीस वर्ष तो छोटा रहा ही होगा, अचकचा कर बोला, “नहीं-नहीं इट्स् फ़ाइन, यू आर मोस्ट वेलकम मैम!” अब तो मेरा उत्साह सातवें आसमान पर पहुँच गया। सर्टिफ़िकेट तो छोटी बात है, मैं कल्पना करने लगी, वर्कशॉप पूरी होने पर मेरा नाम राष्ट्रीय न सही स्थानीय अख़बारों में तो अवश्य छप जाएगा ‘सीनियर सिटिज़न महिला ने अभिनय का प्रशिक्षण सफलतापूर्वक पूर्ण किया!’ बारात में पार्टियों में नाच करते हुए वरिष्ठ नागरिकों के चित्र, सिनेमा देखने जाते हुए वरिष्ठ नागरिकों के चित्र, विस्तृत समाचार के साथ यदि समाचार-पत्रों में छप सकते हैं, ‘व्हाट्सएप‘ पर उनके विडिओ वायरल हो सकते हैं, तो फिर भला अभिनय का प्रशिक्षण पूरा करने पर मेरा नाम क्यों नहीं उजागर हो सकता? मैं तो अपने समवयस्कों लिए अनुकरणीय उदाहरण बन जाऊँगी, हो सकता है समाचारों से आकर्षित होकर कोई स्थानीय नाट्य संस्था अभिनय के लिये अवसर दे दे। सफलता मिलने पर नर्तकी श्रीमती प्रतिमा बेदी की तरह अभिनय में प्रसिद्धि मिले, जिन्होंने परिपक्व आयु में नृत्य सीख कर नाम कमाया! कल्पना के घोड़े बेलगाम, बगटुट भागे जा रहे थे।

छोटी मोटी औपचारिकताएँ, अभिवादन, परिचय के बाद प्रशिक्षण, या यों कहिए कि थिएटर अभिनय प्रशिक्षण आरंभ हुआ। सबसे पहले स्वर के उतार-चढ़ाव के लिए ज़ोर से बोलना, धीरे से बोलना, संकेत मिलने पर बोलना आदि हुआ। फिर गोला बनाकर चलना, दौड़ना, बैठना हुआ। मैं सभी गतिविधियाँ आनंद और उत्साह के साथ कर रही थी, उठना, बैठना, रुकना, चीखना, मुड़ना, हँसना आदि आदि। आख़िर में हमारे प्रशिक्षकों ने हमें एक क़तार में खड़ा किया, ज़मीन पर कालीन बिछाया गया था, एक-एक अभ्यर्थी का नाम पुकार कर बुलाया जाना था और उस अभ्यर्थी को निर्भय होकर, पछाड़ खाकर चारों खाने चित्त, पीठ के बल गद्दे पर गिरना था। देखने-सुनने से इस क्रिया में भी कोई कठिनाई नहीं लग रही थी। दो-चार बालक बालिकाएँ, जो किशोर वय के थे, आराम से पछाड़ खाकर गिर भी चुके थे। अपना नाम पुकारे जाने से पहले मैं द्विविधा में डूब गई। मेरा मन तेज़ी से पिछला इतिहास दोहराने लगा, घर की झाड़-पोंछ करते हुए, एक कुर्सी से टकराकर कलाई की हड्डी का टूटना, रिक्शे से गिरकर घुटने की हड्डी का चटक जाना, गोवा की यात्रा के समय ऐतिहासिक ‘पानी की टंकी’ पर घूमते हुए ठोकर खाकर गिरने से अंगुली का टूट जाना, सभी घटनाएँ एक-एक कर आँखों के सामने चलचित्र सी घूम गईं।

अब करूँ तो क्या करूँ? यदि अभी पछाड़ खाकर गिरने से पसली टूटी तो साँस भी ना ले पाऊँगी, दिनों दिन शरीर जवान तो हो नहीं रहा है! सुना है कि पसली टूटने पर प्लास्टर भी नहीं चढ़ता, बिस्तर पर लेटे रह कर समय बिताना होता है।

माँ की कूल्हे की हड्डी तो पलंग से ही सरक कर गिरने से टूट गई थी, महीनों लग गए उन्हें ठीक होने में, जबकि डॉक्टर ने ऑपरेशन कर प्लेट भी लगा दी थी। कितनी भागदौड़ करनी पड़ी थी हम पाँच भाई बहनों को। यहाँ तो पछाड़ खा कर गिरना है, यह पतला सा कालीन मेरे वज़न को भला कितनी उछाल देगा? मेरे तो दौड़-भाग करने वाले भी केवल दो ही बच्चे हैं, वे भी दूर-दूर! बेचारे पति को कितनी परेशानी होगी!, बच्चे कितना दौड़ेंगे? कब तक दौड़ेंगे? सब कुछ आँखों के सामने सब घूम गया। घबराहट से शरीर पसीने से भर गया। भय की तपन से अभिनय के क्षेत्र में झंडे गाड़ देने का मेरा स्वप्न भाप बनकर उड़ गय

मेरा नाम पुकारा गया मैं उठ खड़ी हुई, मैंने प्रशिक्षकों को और मंच समान कालीन को नमन किया और अपने स्थान पर वापस आकर बैठ गई।

मन में एक वाक्य ही बार-बार कौंध रहा था थिएटर “सीखने की भी एक उम्र होती है!”

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टिप्पणियाँ

हरि शंकर 2022/06/13 05:09 PM

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