ये वन
काव्य साहित्य | कविता सरोजिनी पाण्डेय15 Nov 2024 (अंक: 265, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
मध्य प्रदेश के पर्यटन के दौरान
भोपाल से पचमढ़ी जाते हुए
रास्ते में विंध्य और सतपुड़ा की पर्वत शृंखलाएँ
क्षितिज को घेरतीं
पर्वत शिखरों को चिह्नित करतीं
तरंगित रेखाएँ,
विस्तृत सुनहरे मैदान
जिन से कट चुका था
जीवन पोषक धान,
और फिर
सतपुड़ा की पहाड़ियों के
सघन वन प्रांतर
मेरी दृष्टि में
मानो राम का वन-गमन उतर आया
कल्पना में मेरी विचरने लगे ‘राम’,
जानती हूँ नहीं मैं
यह ‘दंडक वन’ है या नहीं
परन्तु क्या वनों पर लिखे होते हैं नाम?
वट, बेर, कीकर, पलाश
पीपल, बरगद, मधूक
यही तो है उन वृक्षों के नाम
जो लिखे हैं वाल्मीकि ने
अपनी ‘रामायण’ में
उगे थे वहाँ, जहाँ-जहाँ गए थे राम!
चलते थे नग्न-पद
पीछे-पीछे लखन लाल
एक श्यामल, एक गौर वर्ण
दोनों चलते लिए धनुष,
कंधे लगा तूणीर
जिसमें भरे थे
तीखे नुकीले कई तरह के बान,
ढूँढ़ती थी नज़रें उनकी
जनक की दुलारी को
दशरथ की प्यारी पतोहू
मिथिला की राजकुमारी को,
भिन्न-भिन्न वृक्षों, वनस्पतियों से भरे
ये वन हमें जीवन देते,
धरती को सजाते हैं
पर इन वृक्ष, इन वनस्पतियों में से
हम कितनों के नाम भी जानते हैं?
हम से अपरिचित, रह कर अनजान
दत्तचित्त हो कर हमारे लिए
उपजाते रहते हैं
औषधियाँ,
भोजन और सबसे बढ़कर
स्वच्छ वायु, बचाने को हमारी जान,
और हम मूढ़, अकृतज्ञ, कृतघ्न मानव
करते हैं दोहन इनका
तत्पर रहते हैं सदा लेने को इनके प्राण!!!
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
कविता
- अँजुरी का सूरज
- अटल आकाश
- अमर प्यास –मर्त्य-मानव
- एक जादुई शै
- एक मरणासन्न पादप की पीर
- एक सँकरा पुल
- करोना काल का साइड इफ़ेक्ट
- कहानी और मैं
- काव्य धारा
- क्या होता?
- गुज़रते पल-छिन
- जीवन की बाधाएँ
- झीलें—दो बिम्ब
- तट और तरंगें
- तुम्हारे साथ
- दरवाज़े पर लगी फूल की बेल
- दशहरे का मेला
- दीपावली की सफ़ाई
- पंचवटी के वन में हेमंत
- पशुता और मनुष्यता
- पारिजात की प्रतीक्षा
- पुराना दोस्त
- पुरुष से प्रश्न
- बेला के फूल
- भाषा और भाव
- भोर . . .
- भोर का चाँद
- भ्रमर और गुलाब का पौधा
- मंद का आनन्द
- माँ की इतरदानी
- मेरी दृष्टि—सिलिकॉन घाटी
- मेरी माँ
- मेरी माँ की होली
- मेरी रचनात्मकता
- मेरे शब्द और मैं
- मैं धरा दारुका वन की
- मैं नारी हूँ
- ये तिरंगे मधुमालती के फूल
- ये मेरी चूड़ियाँ
- ये वन
- राधा की प्रार्थना
- वन में वास करत रघुराई
- वर्षा ऋतु में विरहिणी राधा
- विदाई की बेला
- व्हाट्सएप?
- शरद पूर्णिमा तब और अब
- श्री राम का गंगा दर्शन
- सदाबहार के फूल
- सागर के तट पर
- सावधान-एक मिलन
- सावन में शिव भक्तों को समर्पित
- सूरज का नेह
- सूरज की चिंता
- सूरज—तब और अब
अनूदित लोक कथा
- तेरह लुटेरे
- अधड़ा
- अनोखा हरा पाखी
- अभागी रानी का बदला
- अमरबेल के फूल
- अमरलोक
- ओछा राजा
- कप्तान और सेनाध्यक्ष
- काठ की कुसुम कुमारी
- कुबड़ा मोची टेबैगनीनो
- कुबड़ी टेढ़ी लंगड़ी
- केकड़ा राजकुमार
- क्वां क्वां को! पीठ से चिपको
- गंध-बूटी
- गिरिकोकोला
- गुनी गिटकू और चंट-चुड़ैल
- गुमशुदा ताज
- गोपाल गड़रिया
- ग्यारह बैल एक मेमना
- ग्वालिन-राजकुमारी
- चतुर और चालाक
- चतुर चंपाकली
- चतुर फुरगुद्दी
- चतुर राजकुमारी
- चलनी में पानी
- छुटकी का भाग्य
- जग में सबसे बड़ा रुपैया
- ज़िद के आगे भगवान भी हारे
- जादू की अँगूठी
- जूँ की खाल
- जैतून
- जो पहले ग़ुस्साया उसने अपना दाँव गँवाया
- तीन कुँवारियाँ
- तीन छतों वाला जहाज़
- तीन महल
- दर्दीली बाँसुरी
- दूध सी चिट्टी-लहू सी लाल
- दैत्य का बाल
- दो कुबड़े
- नाशपाती वाली लड़की
- निडर ननकू
- नेक दिल
- पंडुक सुन्दरी
- परम सुंदरी—रूपिता
- पाँसों का खिलाड़ी
- पिद्दी की करामात
- प्यारा हरियल
- प्रेत का पायजामा
- फनगन की ज्योतिष विद्या
- बहिश्त के अंगूर
- भाग्य चक्र
- भोले की तक़दीर
- महाबली बलवंत
- मूर्ख मैकू
- मूस और घूस
- मेंढकी दुलहनिया
- मोरों का राजा
- मौन व्रत
- राजकुमार-नीलकंठ
- राजा और गौरैया
- रुपहली नाक
- लम्बी दुम वाला चूहा
- लालच अंजीर का
- लालच बतरस का
- लालची लल्ली
- लूला डाकू
- वराह कुमार
- विनीता और दैत्य
- शाप मुक्ति
- शापित
- संत की सलाह
- सात सिर वाला राक्षस
- सुनहरी गेंद
- सुप्त सम्राज्ञी
- सूर्य कुमारी
- सेवक सत्यदेव
- सेवार का सेहरा
- स्वर्ग की सैर
- स्वर्णनगरी
- ज़मींदार की दाढ़ी
- ज़िद्दी घरवाली और जानवरों की बोली
सांस्कृतिक कथा
आप-बीती
सांस्कृतिक आलेख
यात्रा-संस्मरण
ललित निबन्ध
काम की बात
यात्रा वृत्तांत
स्मृति लेख
लोक कथा
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं