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परम सुंदरी—रूपिता

 

मूल कहानी: फंटा ग़ीरो-पर्सोना बेला; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (फ़ैंटा ग़ीरो-द ब्यूटीफ़ुल); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स

प्रिय पाठक, 

लोक कथाएँ एक ओर जहाँ मनुष्य की अपार्थिव इच्छाओं, लालसाओं, व्यवहारों का प्रतिबिंबन करती हैं, कामनाओं के पूरा होने के काल्पनिक मार्ग ढूँढ़ती हैं, वहीं वे समाज के रीति-रिवाज़ से भी अनुप्राणित होती हैं। इन कथाओं की परिकल्पना करने, रचने वाले न कभी कोई नाम कमाते हैं, न कभी किसी पुरस्कार से अलंकृत होते हैं, बस समय के साथ उनके रचे कथानक, रूप बदलते, बरसों-बरस पीढ़ी दर पीढ़ी जिह्वाओं पर चलते-मचलते रहते हैं। 

आज इटली की जिस लोक कथा का अनूदित रूप में प्रस्तुत कर रही हूँ वह स्त्री और पुरुष के कार्य क्षेत्र की भिन्नता और उसकी सीमाओं का निर्धारण अपने रचनाकाल के आधार पर करती दिखलाई देती है। इस कथा का रचना काल क्या रहा होगा कौन जाने? कथा मुझे रोचक लगी अतः आपसे साझा कर रही हूँ, आनंद लें:

 

बहुत पुराने ज़माने की बात है, एक राजा था। इसके कोई बेटा न था, हाँ, तीन बेटियाँ थीं—सबसे बड़ी सुनीता, बुद्धिमान और संवेदनशील, फिर अनीता और सबसे छोटी रूपिता, जिसने सबसे अधिक रूपवती होने के कारण यह नाम पाया था। 

राज्य का उत्तराधिकारी बनाने के लिए एक बेटा न होने के कारण राजा उदास-निराशा रहा करता था, इस कारण वह अक़्सर बीमार रहने लगा। 

राजा के पास तीन कुर्सियाँ थी, एक आसमान की तरह नीली, एक अँधेरी रात की तरह काली और एक तपते सूरज की तरह लाल। 

रोज़ सुबह जब तीनों राजकुमारियाँ अपने पिता से मिलने जातीं तो इस बात का हमेशा ध्यान रखतीं कि उनके पिता किस कुर्सी पर बैठे हैं। यदि वह नीली कुर्सी पर हों तो ख़ुश हैं, काली पर हों तो मरणासन्न हैं, और यदि लाल पर हों तो युद्ध का अंदेशा है। 

एक दिन जब तीनों राजकुमारियाँ अपने पिता से मिलने पहुँचीं तो देखा कि वह लाल कुर्सी पर बैठे हैं। 

“क्या हुआ पिताजी? बताइए न,” सबसे बड़ी बेटी सुनीता ने पूछा। 

राजा बोले, “अभी-अभी मुझे अपने पड़ोसी राजा की चेतावनी मिली है कि उनकी शर्तें न मानने पर वह युद्ध छेड़ देगा। तुम सब जानती हो कि मैं बीमार रहता हूँ। अब ऐन समय पर मैं एक सेना नायक कहाँ से लाऊँ जो सेना की अगुवाई करे और सुलह-सफ़ाई की भी।”

“यदि आप कहें तो मैं सेनापति बन सकती हूँ। क्या आपको मैं इस योग्य नहीं लगती?” बड़ी राजकुमारी सुनीता उत्साह से बोली। 

“क्या तुम्हारी बुद्धि मारी गई है?” राजा बोले, “यह स्त्रियों का काम नहीं है।”

“मुझे आज्ञा तो दीजिए पिताजी,” सुनीता ने विनती की। 

“ठीक है, तुम कोशिश करके देखो!” राजा ने समझाया, “लेकिन याद रखो, यदि तुमने लड़ाई के लिए जाते हुए घरेलू कामों के बारे में बात भी की तो तुम्हें तुरंत वापस आना पड़ेगा।”

सुनीता ने शर्त मान ली। 

राजा ने अपने सबसे अधिक विश्वासपात्र सामंत देवी सिंह को राजकुमारी के साथ उसकी रक्षा और निगरानी के लिए जाने को कहा और उसे यह भी समझाया कि यदि युद्ध के सिवा राजकुमारी किसी भी दूसरी घरेलू काम की बातें करें तो उसे तुरंत वापस ले आया जाए। 

अब सामंत देवी सिंह और राजकुमारी सुनीता पड़ोसी राजा से बातचीत के लिए सेना लेकर निकल पड़े। 

वे रास्तों, मैदानों से होते हुए जा रहे थे कि रास्ते में बाँसों का एक जंगल पड़ा। सुंदर चिकने, मज़बूत बाँस के तनों को देखकर राजकुमारी बोल उठी, “वाह कितने बढ़िया बाँस हैं। इससे तो बड़े मज़बूत, सुंदर, चरखे बन सकते हैं।”

“क्षमा करें राजकुमारी,” देवी सिंह बोल उठे, “मुझे राजा साहेब की आज्ञा है कि आप जब भी राजकाज और युद्ध के अलावा कोई और बात सोचें भी तो मैं तुरंत आपको वापस ले आऊँ।”

इस बात को सुनते ही राजकुमारी का सिर झुक गया और देवी सिंह के साथ सारी सेना वापस राजधानी की ओर लौट पड़ी। 

जब मँझली राजकुमारी अनीता को यह मालूम हुआ तो वह भी पिता के पास गई और सेना का नेतृत्व करने की आज्ञा माँगी। राजा ने कहा, “याद रखो शर्त वही रहेगी जो तुम्हारी बड़ी बहन के लिए थी। जैसे ही तुम युद्ध-समझौते के अलावा किसी भी और काम के बारे में सोचोगी, तुम्हें वापस चले आना होगा!”

अनीता, “जी पिताजी, मुझे स्वीकार है।” अनीता सैनिक वेश में सज-धज, घोड़े पर सवार हो देवी सिंह के साथ चल पड़ी पड़ोसी राजा के राज्य की ओर। 

वे खेत, मैदान, बाँस के जंगल पार करते बढ़े जा रहे थे, रास्ते में जब वे चीड़ के जंगल से होकर गुज़रे तो चीड़ के चिकने सीधे काट कर रख गए फट्टों को देखकर राजकुमारी अनीता अपने को रोक न सकी बोली, “देवी सिंह जी देखें तो ज़रा इन सीधे चिकने चीड़ के फट्टों को, इनसे तो चरखों में लगने वाले बेहतरीन तकुए बन सकते हैं।” यह सुनते ही देवी सिंह ने घोड़े की रास पड़कर उसे रोका और राजकुमारी अनीता से कहा, “राजकुमारी जी, राजा साहेब की आज्ञानुसार आप भी युद्ध करने नहीं जा सकतीं। आपने घरेलू काम के बारे में सोचा है।”

अनीता ने लज्जित हो अपना घोड़ा वापस मोड़ लिया और उसके साथ ही सारी सेना भी वापस राजधानी लौट आई। 

जब सबसे छोटी राजकुमारी रूपिता सेना का नेतृत्व करने की आज्ञा माँगने गई तब राजा की समझ में नहीं आया कि क्या करें! 

“नहीं, नहीं, हज़ार बार नहीं!” राजा आवेश में बोले, “जब तुम्हारी बड़ी बहनें यह न कर सकीं तो तुम तो अभी उम्र से भी कच्ची हो।”

“पिताजी मुझे कोशिश तो कर लेने दीजिए,” रूपिता बोली, “क्या हार मान लेने से यह अच्छा नहीं होगा कि मैं भी मौक़ा पाऊँ?” 

हार कर राजा ने रूपिता को आज्ञा दे दी। रूपिता ने बड़ी सावधानी से पुरुष योद्धाओं वाली अपनी साज-सज्जा की। ज़िरह-बख़्तर, तीर-तलवार से लैस होकर घोड़े पर सवार होकर देवी सिंह के साथ चल पड़ी पड़ोसी राजा की राजधानी की ओर। 

खेत-खलिहान, झाड़ी-जंगली, बाग़-बग़ीचे पर करते हुए वे पड़ोसी राज्य की सीमा तक आ पहुँचे। रूपिता ने देवी सिंह से कहा कि अब वह सबसे पहले राजा से अकेली ही बातचीत करने जाएगी शायद बिना ख़ून ख़राबे के ही बात बन जाए! 

इस राज्य का राजा अभी नवयुवक ही था और नया-नया राजगद्दी पर बैठा था। जब पुरुष योद्धा के वेश में रूपिता पड़ोसी राजा से सेनानायक के रूप में उससे मिली तो वह आशंकित हो गया। उसे लगा कि हो ना हो यह योद्धा पुरुष नहीं स्त्री है। उसने रूपिता को युद्ध के कारणों और युद्ध को टालने की शर्तों पर बातचीत करने के लिए महल में आमंत्रित कर लिया। 

महल पहुँचकर राजकुमार राजमाता के पास गया और बोला, “माँ, पड़ोसी राजा के साथ मैंने युद्ध की घोषणा की है। उनका जो सेना-नायक बातचीत करने आया है, मुझे लगता है कि वह पुरुष नहीं स्त्री है: 

“वह कोमल सुकुमार है 
 आँखें उसकी काली-काली, 
 बोली रस की धार है, 
 ऐसा लगता है मुझको
 वह पुरुष नहीं, वह नार है।”

माँ ने बेटे को समझाया, “तुम उसे शस्त्रागार में लेकर जाओ। यदि सेनापति सचमुच स्त्री होगी तो वह अस्त्र-शस्त्रों को रुचि से नहीं दिखेगी, बस नज़र डालकर हटा लेगी।” नवयुवक राजा रूपिता को लेकर हथियार ख़ाने में गया और कनखियों से उस पर निगाह रखता रहा। रूपिता ने वहाँ पहुँचकर तलवार-बरछी की धार परखी, कुछ को मूठ से पकड़ कर घुमा कर देखा। बंदूक और पिस्तौल की नलियों को मोड़कर उनकी जाँच की। 

राजा वहाँ से निकालकर फिर माता के पास आया और बताया, “माँ उसने हथियारों की जाँच एक कुशल योद्धा की तरह की है, कुछ को चलाकर भी देखा है उसने। लेकिन मेरे मन में बार-बार वही बात आती है:

“वह कोमल सुकुमार है, 
आँखें उसकी काली-काली
बोली रस की धार है
लगता है मुझको ऐसा
वह पुरुष नहीं, वह नार है”

पुत्र की शंका का निवारण करने के लिए अब माँ ने उसे दूसरा उपाय सुझाया, “बेटा उस सेनापति को फुलवारी में घुमाने ले जाओ। यदि वह पुरुष है तो गुलाब के फूल पसंद करेगा, अपने कपड़ों के काज में लगाने के लिए और यदि स्त्री है, तो वह बेला, चमेली, मोगरे पर ध्यान देगी, वेणी बनाने के लिए, बालों में लगाने के लिए।”
 राजा रूपिता को लेकर फुलवारी में घूमने चला। वहाँ रूपिता ने एक गुलाब की कली तोड़ी, सूँघी और अपने कोट के काज में लगा ली। इस बात से राजा बहुत उदास हो गया। हवा खोरी के बाद वह सीधा राजमाता के कमरे में जाकर बोला, “माँ तुम्हारे कहे अनुसार इस बार फिर उस जनरल ने पुरुषोचित व्यवहार ही किया है। लेकिन मैं अपने मन को क्या कहूँ, जो बार-बार यही कहता है:

"वह कोमल, सुकुमार है
 आँखें उसकी काली-काली, 
 बोली रस की धार है, 
 ऐसा लगता है मुझको
 वह पुरुष नहीं वह नार है!”

राजमाता समझ गईं कि उसका बेटा चाहे-अनचाहे उस जनरल के प्रेम में पड़ रहा है। अब उसने एक और उपाय सोचा और युवा पुत्र से कहा, “उसे अपने साथ भोजन करने के लिए बुलाओ। यदि वह भोजन की ओर ध्यान से देखे बिना, जल्दी-जल्दी खाए तो वह पुरुष है। और यदि छोटे-छोटे निवाले बनकर, ध्यान से खाए तो वह अवश्य ही स्त्री है।”
 लेकिन इस परीक्षा का भी कोई मनचाहा परिणाम न निकला। भोजन के समय रूपिता बातें करती, बेध्यानी से जल्दी-जल्दी खाना निगलती रही और बेचारा राजा मन मार कर उसे देखता रहा! 

माँ के पास एक बार फिर जाकर उसने अपना दुखड़ा सुनाया, “कुछ तो करो माँ, मुझे तो अब भी यही लगता है:

 “वह कोमल सुकुमार है, 
 आँखें उसकी काली-काली
 बोली रस की धार है, 
 मुझे से मन मेरा कहता 
 वह पुरुष नहीं वह नार है।”

पुत्र की दशा देखकर माता भी विह्वल हो गई। अब उसने स्वभाव ही नहीं बल्कि सेनापति की शारीरिक परीक्षा लेने की सलाह दी। 

“तुम इस बात के लिए अब एक अंतिम परीक्षा भी कर लो। जनरल को अपने साथ तैरने और जल क्रीड़ा करने के लिए फुलवारी के सरोवर में आने को कहो। यदि वह नार है तो मना अवश्य कर देगी और तुम्हारी तसल्ली हो जाएगी।”

राजा ने मेहमान जनरल को सरोवर में नहाने और तैरने का आमंत्रण दे दिया। सेना नायक ने उसे तुरंत, ख़ुशी-ख़ुशी मान भी लिया। उस समय साँझ हो रही थी। अगले दिन सुबह का समय सरोवर में तैरने के लिए निश्चित कर लिया गया। 

अब रूपिता ने देवी सिंह से गुप्त मंत्रणा करते हुए उनसे कहा कि रातों-रात किसी तेज़ घुड़सवार को पिताजी के पास भेजा जाए और राजमुद्रा से अंकित एक ऐसी चिट्ठी उनसे मँगवाई जाए कि वे सख़्त बीमार हैं और मृत्यु से पहले अपने जनरल को देखना चाहते हैं। 

अगली सुबह जनरल और राजा सरोवर पर पहुँचे। राजा ने कपड़े उतारे और पानी में घुस गए, फिर जनरल को आने को कहा। रूपिता ने कहा, “मैं तो इस समय पसीने से तर ब-तर हूँ, तनिक यह सूख जाए तो ताल में आऊँगा,” यह कहते हुए उसके कान घोड़े की टाप सुनने को बेक़रार थे। 

राजा ने जब उससे फिर पानी में उतरने का इसरार किया तो रूपिता बोली, “न जाने क्यों मेरा मन अचानक ही बेचैन हो रहा है, ऐसा लगता है कि कुछ अघट घटने वाला है।”

“पागल मत बनो जनरल, कुछ बुरा नहीं होने वाला है,’ राजा बोला, “कपड़े उतारो और आ जाओ, पानी सचमुच बहुत सुखद है। मन को शान्ति मिलेगी।” 

और तभी देवी सिंह घोड़े पर सवार, घबराया-सा हुआ वहाँ आ पहुँचा और राजमुद्रा से अंकित चिट्ठी रूपिता को पकड़ा दी। 

पत्र को पढ़कर रूपिता का चेहरा फक हो गया, वह घबराकर बोली, “बड़ी बुरी ख़बर है राजा जी, मेरे पिताजी मृत्युशैय्या पर हैं और अंतिम बार मुझे देखना चाहते हैं। मैं अभी आपसे विदा चाहूँगा। शान्ति के लिए हम कई मुद्दों पर बात कर ही चुके हैं। यदि कुछ बाक़ी है तो मैं आपके बुलावे पर कभी भी हाज़िर हो जाऊँगा। तैराकी फिर कभी करेंगे। अभी के लिए तो विदा लेता हूँ।”

राजा ताल में नंगा खड़ा का खड़ा रह गया, रूपिता चली गई। 

पानी ठंडा था और राजा हताशा के गर्त में डूब गया। वह समझ गया था कि जनरल स्त्री ही थी, पर वह इस सत्य को सिद्ध नहीं कर पाया। 

राज्य छोड़ने से पहले रूपिता अपने कमरे में गई और अपने पलंग पर एक कवित्त लिखकर रख दिया: 

“जो पुरुष में वेश में आई थी
वह दृढ़ संकल्पित नारी थी, 
ली कई परीक्षा तुम सब ने, 
लेकिन मैं भला कब हारी थी?” 

राजा को जब यह पत्र मिला तो उसे पढ़ कर वह बड़ी देर तक मूर्तिवत् खड़ा रह गया, उसका मन क्रोध और ख़ुशी दोनों से लबालब था। वह दौड़कर राजमाता के पास गया और बोला, “माँ, माँ, मेरा अनुमान बिल्कुल ठीक निकला। वह जनरल स्त्री ही था।” 
फिर अपनी माँ की किसी भी बात का इंतज़ार किए बिना वह अपने रथ पर सवार हो, रूपिता के रास्ते पर चल पड़ा। 

अपने राज्य में पहुँचकर पिता के पास जाकर रूपिता ने उन्हें प्रणाम किया और उन्हें बताया कि कैसे उसने बिना युद्ध के शत्रु देश को मित्र बना लिया है। उन्होंने युद्ध का विचार छोड़ दिया है। 

अभी उनकी बातचीत हो ही रही थी कि बाहर से हो-हल्ला सुनाई दिया। मालूम हुआ कि पड़ोसी राजा आया है, जो रूपिता के प्रेम में पागल है। 

रूपिता पर नज़र पड़ते ही वह बोला, “जनरल, क्या तुम मुझसे विवाह करोगी?” विवाह का समारोह संपन्न हो गया। 

दोनों राजाओं के बीच शान्ति हो गई। रूपिता को राज्य का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया गया। 

जय हो! जय हो! 

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