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राधा की प्रार्थना

आ धरा पर फिर मनुज बन
ओ कन्हाई! एक बार
मैं तुम्हारी राधिका हूँ 
अरज करती बार-बार, 
 
ऋतु शरद की है मदिर अति
गात उत्फुल्लित हुए 
सूर्य धुल पावस झड़ी से
तृप्त और कोमल हुए, 
 
साँझ से ही उतर आती
चहुँ दिशि उज्ज्वल जुन्हाई
चाँदनी का परस पा कर 
प्रकृति मानो मुस्कुराई, 
 
ले नयन में लाल डोरे 
तक रहा है हरसिंगार 
श्वेत सुरभित पुष्प के 
गूँथे हुए हैं कंठहार, 
 
सप्तपर्णी ताकता पथ
पुष्प की अँजुरी भरे 
राधिका के नयन प्यासे
जोहते पथ, साँवरे! 
 
आ पुनः, कर रास फिर से
जी उठे तेरी प्रिया
कर्म पथ पर अग्रसर हो
त्याग जिसका था किया, 

यह शरद ऋतु है तुझे प्रिय 
प्रार्थना सुन ले मेरी
हो रही धरती अपावन
तार दे इसको हरि!!

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टिप्पणियाँ

विजय नगरकर 2022/11/08 09:54 PM

बहुत सुंदर शब्द, ऋतु वर्णन, बधाई सरोजिनी जी

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