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विदाई की बेला

   
विदाई की बेला दुल्हन रो रही थी
गुज़रे समय को वो फिर जी रही थी,
 
वो शाला को जाना लिए पीठ बस्त्ता,
लड़ते-झगड़ते ही कट जाता रास्ता,
 
वह खेली थी गलियों में कंचे व गिल्ली
कई मीत थे उसके कुछ थीं सहेली,
 
कभी गुड़िया रानी की शादी रचाई
कभी रात भर जगके की थी पढ़ाई,
 
कभी खुल के रोना, कभी खिलखिलाना,
कभी 'चाचा-चाची' की खिल्ली उड़ाना,
 
जो गुज़री शरारत कभी हद से बाहर,
तो माँ-बाप से जम के थप्पड़ भी पाना,
 
सभी अक्स आते थे आँखों के आगे,
क़दम आगे बढ़ते, हृदय पीछे भागे,
 
किसी की छुअन ने 'किशोरी' बनाया,
नए भावों ने मन में डेरा जमाया,
 
नई -सी तरंगे भी उठती थी मन में,
नए स्वप्न बसने लगे थे नयन में,
 
नई स्वर लहरियों पर वह तिर रही थी
इधर द्वार पर आकर डोली लगी थी!
 
खड़ा था सजीला युवक, बाँधे सेहरा,
क्या जीवन का साथी यही होगा मेरा?
 
आँचल में उसके वो बचपन बँधा था,
सौभाग्य सिंदूर माथे सजा था,
 
नए बंधनों में सिमटकर खड़ी थी
विदाई की बेला दुल्हन रो रही थी॥

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