पिद्दी की करामात
अनूदित साहित्य | अनूदित लोक कथा सरोजिनी पाण्डेय15 Nov 2022 (अंक: 217, द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)
मूल कहानी: सेसिनो इ् इल् ब्यू; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अँग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (पीट एण्ड दऑक्स); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स
हिन्दी में अनुवाद: सरोजिनी पाण्डेय
प्रिय पाठक, यह लोक कथा ऐसी आयु के बच्चों को विशेष आनंद देगी जो अभी समाजिक शिष्टता के नियमों को सीख रहे होते हैं। यदि आपके हृदय के किसी कोने में वह बालपन अभी तक सुरक्षित है तो, आप भी इस कथा को अवश्य पसंद करेंगे। यदि यह आपको अधिक बचकानी लगे तो परिवार के बच्चों को अवश्य सुनाएँ:
बहुत पुराने ज़माने की बात है, एक औरत भोजन के लिए चने पका रही थी, उसी समय उधर से एक बहुत भूखी लड़की गुज़री। उसने उस स्त्री से खाने के लिए कुछ चने माँगे। स्त्री बोली, “अगर चने तुमको दे दूँगी तो हमारे खाने के लिए क्या बचेगा?” इस पर वह लड़की दुखी हो गई और लगभग श्राप देते हुए बोली, “भगवान करे पतीली में उबलते सारे चने तुम्हारे बच्चे बन जाएँ,” ऐसा कह कर वह आगे बढ़ गई।
जैसे ही लड़की ने अपनी पीठ उधर से फेरी, चूल्हे की आग बुझ गई और पतीली में से सैकड़ों की संख्या में चने के बराबर के बच्चे उछल-उछल कर बाहर आने लगे। कोई कहता, “माँ हम भूखे हैं!”, कोई, “माँ मुझे प्यास लगी है” कोई, “माँ मुझे गोदी में उठा लो!”
पूरी रसोई में फैल गए बच्चे ही बच्चे, बर्तनों में, टोकरी में, अलमारी में! बेचारी औरत बहुत घबरा गई। उसने मुट्ठी भर-भर कर वे नन्हे बच्चे पकड़े और ओखली में डालकर मूसल से कुचलने लगी, मानो उनकी लुगदी बना रही हो!
जब उसे लगा कि उसने सब को मार डाला है, तब वह फिर से खाना बनाने में जुट गई। लेकिन अब वह खाना बनाने के साथ-साथ अपने किए कुकर्म पछताने भी लगी कि उसने इतने सारे बच्चों को क्यों मारा? अगर उनमें से एक भी बच्चा बचा होता तो उसकी मदद करता। कम से कम अपने बाप के लिए खाना लेकर दुकान पर तो पहुँचा आता!
अभी वह यह सब सोचकर पछता ही रही थी कि पतली सी एक आवाज़ सुनाई दी, “रो मत माँ, मैं हूँ ना! यह आवाज़ उस बच्चे की थी, जो एक गिलास के पीछे छुपा रहकर बच गया था। औरत की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा, “इधर आओ बेटा, तुम्हारा नाम क्या है?” बच्चे को पुचकारते हुए, वह बोली। गिलास के पीछे से निकलकर, लड़का स्त्री के पास आकर बोला, “मेरा नाम पिद्दी है।”
“मुझ पर भगवान की कृपा हो गई, पिद्दी!” स्त्री ख़ुशी से बोली, “अब तुम खाना लेकर अपने पिता की दुकान पर जाओगे।”
उसने भोजन एक टोकरी में सजा कर रख दिया और पिद्दी खाने की टोकरी सिर पर लेकर चल पड़ा।
राह पर चलते पिद्दी को देखकर ऐसा लगता था मानो टोकरी अपने आप ही चली जा रही है क्योंकि पिद्दी चने जैसा छोटा जो था!
जिन लोगों से भी पिद्दी अपने पिता की दुकान का रास्ता पूछता, वह समझता कि अपने आप चलने वाली टोकरी ही बोल रही है और वह अपनी जान की ख़ैर मनाते हुए भाग जाता!
ख़ैर, पिद्दी किसी तरह खाने की टोकरी अपने सिर पर लिए, अपने पिता की दुकान पर पहुँच ही गया और बोला, “बापू, मैं तुम्हारे लिए खाना लेकर आया हूँ।”
“यह कौन बोल रहा है?” बापू हैरान हो गया, “मेरा तो कोई बच्चा ही नहीं है, फिर मैं बापू किसका?“
वह दुकान के बाहर निकल आया और एक टोकरी देखी। टोकरी के नीचे से बारीक़ आवाज़ आई, “टोकरी उठा कर देखो बापू, मैं तुम्हारा बेटा हूँँ, पिद्दी, और आज ही पैदा हुआ हूँँ,” दुकानदार ने टोकरी उठाई और वहाँ चने के बराबर उसका बेटा खड़ा था!
दुकानदार जो कि तालासाज़ था, बेहद ख़ुश हो गया। उसने पिद्दी से कहा, “अब तुम मेरे साथ गाँव में चलना वहाँ हम देखेंगे कि तालों की मरम्मत का कितना काम हमें मिलता है,” यह कहकर बापू ने पिद्दी को अपनी जेब में रख लिया और मरम्मत के काम की तलाश में चल पड़ा।
राह चलते दोनों आपस में बातें करते जाते थे, देखने वाले लोग समझते थे कि तालासाज़ पागल हो गया है, जो अपने आपसे ही बातें कर रहा है।
बेचारा तालासाज़ दिन भर काम की तलाश करता रहा। लोगों के पास मरम्मत का काम तो था, पर कोई भी ऐसे पागल से, जो अपने आप से ही बातें करता हो, काम कराने को तैयार न था।
एक किसान ने आख़िर कह ही दिया, “ताला ठीक तो कराना है, पर तुम से नहीं करवाएँगे, तुम तो पागल हो।”
इस पर तालासाज़ ने कहा, “पागल? कौन कहता है मैं पागल हूँ! मैं उस की अक़्ल ठिकाने लगा दूँ जो मुझे पागल समझे!”
“तुम अपने आप से बातें करते हो ऊपर से तुर्रा यह कि तुम पागल नहीं हो!”
“किसने कहा मैं अपने आप से बातें करता हूँ? मैं तो अपने बेटे से बतियाता हूँँ!”
“अच्छा, तो भला तुम्हारा बेटा कहाँ है? दिखाना तो ज़रा!”
“मेरा बेटा मेरी जेब में है।”
“अच्छा जी और तुम मानते हो कि तुम पागल नहीं हो?”
“तब लो देखो!” यह कहते हुए उसने अपनी जेब में हाथ डाला और एक उँगली पर चढ़कर बैठा, पिद्दी बाहर आ गया।
उसको देखकर किसान बोल पड़ा, “यह तो सचमुच बड़ा सजीला है। क्या तुम अपना बेटा मुझे कुछ दिनों के लिए दे सकते हो? गाँव में बैल चोर बहुत आते हैं, वे चारागाह से बैलों को भगा ले जाते हैं। यह मेरे बैलों की रखवाली करेगा।”
“बेटा पिद्दी, क्या तुम यह काम करना पसंद करोगे?”
“जी बापू!”
“तो ठीक है, तुम यहीं रुको। दिन भर चरते हुए बैलों की रखवाली करना। मैं रात में तुम्हें लेने आऊँगा।”
फिर पिद्दी को एक बैल के सींग पर बैठा दिया गया। दूर से देखने पर लग रहा था कि चारागाह में केवल बैल हैं, कोई उनकी रखवाली नहीं कर रहा है।
दो बैलचोर उधर से गुज़रे। जब उन्होंने बैलों को छुट्टा चरागाह में देखा तो एक बैल हाँकर ले जाने लगे। बस फिर क्या था! पिद्दी लगा ज़ोर से चिल्लाने, “मालिक, मालिक! जल्दी आओ।”
जब चोरों ने किसान को पास आते देखा तो भोले बन गए और किसान से ही पूछ लिया, “यह आवाज़ कहाँ से आ रही है भाई साहब?”
किसान ने कहा, “अरे, यह तो पिद्दी है जो मेरे बैल की सींग पर बैठा है।”
चोरों ने जब पिद्दी को देखा तो सोचा—यह तो बड़े काम का आदमी है। एक चोर ने किसान से कहा, “क्या आप पिद्दी को कुछ दिनों के लिए हमें दे सकते हैं? हम आपको इसके बदले में मालामाल कर देंगे।” कुछ देर सोचकर किसान ने पिद्दी को चोरों के साथ भेज देने की बात मान ली।
पिद्दी को जेब में रखकर चोर राजा के अस्तबल से घोड़े चुराने के लिए गए। अस्तबल के द्वार पर ताला लगा था। पिद्दी ने अपना पतला, नन्हा-सा हाथ चाबी के छेद में डालकर ताला खोल दिया। चोरों ने घोड़े चुरा लिए और पिद्दी एक घोड़े के कान में बैठ कर बाहर आ गया। चोरों ने घर पहुँचकर पिद्दी से कहा, “हम थक गए हैं, आराम करेंगे। तुम घोड़ों को रातब (घोड़ों का चारा) दे देना।”
पिद्दी ने रातब से भरे तोबड़े घोड़ों के मुँह पर बाँध दिए। लेकिन वह इतना थका था कि आख़िरी तोबड़ा बाँधते-बाँधते उसी में गिर गया और सो गया। और लो ऽ ऽ ऽ! घोड़ा रातब के साथ पिद्दी को भी खा गया।
जब बड़ी देर तक पिद्दी आराम करने नहीं आया तो एक चोर उसे ढूँढ़ने के लिए बाहर आया। पिद्दी को कहीं न पाकर उसने आवाज़ लगाई थी, “पिद्दी तुम कहाँ हो?”
“मैं यहाँ हूँँ,” एक धीमी सी आवाज़ आई, “मैं इस घोड़े के पेट के अंदर हूँँ।”
“कौन से में?”
“इसी में, जिसमें मैं हूँ।”
अब चोरों ने पिद्दी को पाने के लिए एक घोड़े का पेट चीरा। जब उसमें वह नहीं मिला तो दूसरे का चीरा। उसमें भी वह न मिला तो एक और का।
इस तरह, “मैं इस में हूँँ . . .” की आवाज़ सुनते-सुनते उन्होंने सारे घोड़ों के पेट चीर डाले, लेकिन पिद्दी नहीं मिला।
सारे चोर पसीने से लतपथ हो गए। वे आपस में बात करने लगे, “अब हम किसान को क्या जवाब देंगे? कितनी शर्म की बात है कि अपने इतने काम के पिद्दी को हमने गवाँ दिया और सारे घोड़ों से भी हमें हाथ धोना पड़ा।”
चोरों ने घोड़ों की लाशों को जंगल में फेंक दिया और गाँव छोड़कर भाग गए।
इधर जंगल में एक भूखा भेड़िया घूम रहा था। उसने जब घोड़ों की लाशें पाईं, तो पेट भर कर दावत उड़ा ली। और मज़े की बात यह कि उस घोड़े की आंत भी भेड़िया खा गया, जिसमें बेचारा पिद्दी रातब की लुगदी में फँसा था।
इस तरह पिद्दी अब पहुँच गया भेड़िए के पेट में।
कुछ समय बाद जब भेड़िए को फिर भूख लगने लगी तो वह एक बकरी पकड़ने के लिए लपका। तभी भेड़िए के पेट में पिद्दी ज़ोर से चिल्लाने लगा, “भेड़िया ऽ ऽ भेड़िया ऽ ऽ ” यह आवाज़ बकरिहे (बकरियों की रखवाली करनेवाला) ने सुन ली। उसने अपनी लाठी को पटक-पटक कर भेड़िए को डराकर भगा दिया।
इधर भेड़िया अपने पेट की आवाज़ों की वजह से चिंता में पड़ गया था। उसे लगा कि उसके पेट में बहुत गैस भर गई है, उसी से यह आवाज़ आ रही है। उसने दम लगाकर गैस निकालने की कोशिश की। एक बार ऽ ऽ , दो बार ऽ ऽ , उसके बाद उसे लगा अब पेट से पूरी गैस निकल गई है। फिर उसे भूख भी और ज़ोर से लग गई। अब भेड़िया जंगल में चर रही भेड़ों के एक रेवड़ की ओर बढ़ा। लेकिन इस बार फिर पेट में फँसे पिद्दी ने चिल्लाना शुरू कर दिया, “भेड़िया ऽ ऽ भेड़िया ऽ ऽ”
पिद्दी तब तक ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता रहा जब तक कि पेड़ के नीचे सोता हुआ गड़रिया जाग नहीं गया और अपनी भेड़ों को हाँक कर दूर लेकर नहीं चला गया। भेड़िया बेचारा पेट की आवाज़ से बहुत घबरा गया, “बाप रे कितनी गैस मेरे पेट में भरी पड़ी है, अगर यह नहीं निकली तो मैं तो मर ही जाऊँगा” उसने पूरा दम लगा कर पेट की गैस फिर निकालनी शुरू कर दी– एक बार ऽ ऽ दो बार ऽ ऽ तीन बार ऽ ऽ और चौथी बार में पिद्दी गैस के साथ बाहर निकल गया और भाग कर पास की झाड़ी में दुबक कर बैठ गया।
भेड़िया अब हल्का होकर फिर से शिकार की तलाश में जुट गया।
अब संजोग देखो, जहाँ पर पिद्दी छुपा था वहीं तीन लुटेरे आ धमके और लूटे हुए धन का बँटवारा करने लगे। एक लुटेरे ने सोने के सिक्के गिनने शुरू किए, “एक, दो, तीन, चार” झाड़ी में छुपे पिद्दी को शरारत सूझी, उसने भी कहा, “एक, दो, तीन, चार” लुटेरे को लगा उसके साथी मस्ती कर रहे हैं, चिढ़कर बोला, “तुम लोग चुप रहो!! मेरी गिनती गड़बड़ हो जाती है।”
वह फिर से गिनने लगा—एक, दो, तीन, चार . . . पिद्दी कहाँ चुप रहने वाला था! उसने फिर दोहराया—एक, दो, तीन, चार . . .
“तुम मेरी बात नहीं सुन रहे हो न! अब लो!”
और लुटेरे ने अपने एक साथी को ग़ुस्से के मारे मार डाला। फिर अपने बचे हुए एक साथी से कहा, “ख़बरदार अगर तुमने भी यही बेवक़ूफ़ी दोहराई तो तुम्हारा भी यही हाल होगा। अगर तुम चुप रहोगे तो सारे माल का आधा तुम्हारा होगा।”
और उसने फिर से गिनती शुरू की—एक, दो, तीन, चार। उधर पिद्दी तो अलबेला ही था, वह भी कहने लगा, “एक, दो, तीन, चार।”
“मैं कुछ नहीं बोला! मैं एकदम चुप हूँ,” साथी लुटेरा घबरा कर, काँपता हुआ बोला।
लेकिन सरदार लुटेरा तो ग़ुस्से से भरा बैठा था चीख कर बोला, “मुझे बेवक़ूफ़ समझते हो न! यह लो!!” और उसने अपने दूसरे साथी को भी मार डाला।
फिर सोचा, “अब मैं शान्ति से सारा धन गिनूँगा और सारा का सारा मेरा ही होगा।” और गिनना फिर शुरू किया—एक, दो, तीन, चार . . . पीछे-पीछे पिद्दी भी बोलता रहा, “एक, दो, तीन, चार . . .”
इस बार लुटेरे के रोंगटे खड़े हो गए—यहाँ ज़रूर कोई छुपा बैठा है, अब तो मेरी ख़ैर नहीं! वह सारा माल छोड़कर जान बचाने के लिए सिर पर पैर रखकर भाग चला, एक, दो, तीन फु र्र र्र!!!
पिद्दी ने लुटेरों की लूट के माल की थैली सिर पर उठा ली और ठुमक-ठुमक चल पड़ा, अपने घर की ओर!
घर आकर द्वार थपथपाया और उसकी माँ ने किवाड़ खोले। उसे एक थैली के सिवा कुछ नहीं दिखा तो, उसने थैली उठाकर देखा और थैली तो पिद्दी के सिर पर थी!!!! माँ ने बेटे को उठाकर गले लगा लिया, “ओ पिद्दी, पिद्दी मेरे लाल!!”
आज सुने तुमने पिद्दी के कारनामे।
चलती हूँ मैं भी इक नई कहानी लाने॥
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
अनूदित लोक कथा
- तेरह लुटेरे
- अधड़ा
- अनोखा हरा पाखी
- अभागी रानी का बदला
- अमरबेल के फूल
- अमरलोक
- ओछा राजा
- कप्तान और सेनाध्यक्ष
- काठ की कुसुम कुमारी
- कुबड़ी टेढ़ी लंगड़ी
- केकड़ा राजकुमार
- गंध-बूटी
- गिरिकोकोला
- गुमशुदा ताज
- गोपाल गड़रिया
- ग्वालिन-राजकुमारी
- चतुर और चालाक
- चतुर चंपाकली
- चतुर फुरगुद्दी
- चलनी में पानी
- छुटकी का भाग्य
- जग में सबसे बड़ा रुपैया
- ज़िद के आगे भगवान भी हारे
- जादू की अँगूठी
- जूँ की खाल
- जैतून
- जो पहले ग़ुस्साया उसने अपना दाँव गँवाया
- तीन कुँवारियाँ
- तीन छतों वाला जहाज़
- दर्दीली बाँसुरी
- दूध सी चिट्टी-लहू सी लाल
- दो कुबड़े
- निडर ननकू
- नेक दिल
- पंडुक सुन्दरी
- परम सुंदरी—रूपिता
- पिद्दी की करामात
- प्यारा हरियल
- प्रेत का पायजामा
- फनगन की ज्योतिष विद्या
- बहिश्त के अंगूर
- भाग्य चक्र
- भोले की तक़दीर
- महाबली बलवंत
- मूर्ख मैकू
- मूस और घूस
- मोरों का राजा
- राजकुमार-नीलकंठ
- राजा और गौरैया
- रुपहली नाक
- लम्बी दुम वाला चूहा
- लालच अंजीर का
- लालच बतरस का
- लालची लल्ली
- लूला डाकू
- वराह कुमार
- शाप मुक्ति
- शापित
- संत की सलाह
- सात सिर वाला राक्षस
- सुनहरी गेंद
- सुप्त सम्राज्ञी
- सूर्य कुमारी
- सेवक सत्यदेव
- स्वर्ग की सैर
- स्वर्णनगरी
- ज़मींदार की दाढ़ी
- ज़िद्दी घरवाली और जानवरों की बोली
कविता
- अँजुरी का सूरज
- अटल आकाश
- अमर प्यास –मर्त्य-मानव
- एक जादुई शै
- एक सँकरा पुल
- करोना काल का साइड इफ़ेक्ट
- कहानी और मैं
- काव्य धारा
- क्या होता?
- गुज़रते पल-छिन
- जीवन की बाधाएँ
- झीलें—दो बिम्ब
- तट और तरंगें
- दरवाज़े पर लगी फूल की बेल
- दशहरे का मेला
- पशुता और मनुष्यता
- पारिजात की प्रतीक्षा
- पुरुष से प्रश्न
- बेला के फूल
- भाषा और भाव
- भोर . . .
- भोर का चाँद
- भ्रमर और गुलाब का पौधा
- मंद का आनन्द
- माँ की इतरदानी
- मेरी दृष्टि—सिलिकॉन घाटी
- मेरी माँ
- मेरी माँ की होली
- मेरी रचनात्मकता
- मेरे शब्द और मैं
- मैं धरा दारुका वन की
- ये तिरंगे मधुमालती के फूल
- ये मेरी चूड़ियाँ
- राधा की प्रार्थना
- वन में वास करत रघुराई
- विदाई की बेला
- व्हाट्सएप?
- शरद पूर्णिमा तब और अब
- सदाबहार के फूल
- सागर के तट पर
- सावधान-एक मिलन
- सावन में शिव भक्तों को समर्पित
- सूरज का नेह
- सूरज की चिंता
- सूरज—तब और अब
यात्रा-संस्मरण
ललित निबन्ध
काम की बात
वृत्तांत
स्मृति लेख
सांस्कृतिक आलेख
लोक कथा
आप-बीती
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं