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भाषा और भाव

 

मानव मेधा में भाव उगे, 
भावों से हृदय हुआ विह्वल, 
जब भावों का उद्रेक हुआ
मानव का मन हो गया विकल, 
 
भावातिरेक से व्याकुल हो
मानव ने रच डाली ‘भाषा’, 
भाषा का उद्गम होते ही
गुंफित भावों को मिली राह, 
 
’वाणी’ का पा आशीष यही
भाषा सरिता बनकर निकली, 
वक्ता की जिह्वा से फूटी
श्रोता के मन में जा के टिकी, 
 
इस संप्रेषण की ऊर्जा से
सभ्यता लगी विकसित होने, 
एकांत मिट गया मानव का
साहित्य लगे जाने रचने, 
 
भाषा ने मेधाएँ जोड़ीं
मानव का शक्ति करण किया, 
हम अमर बनें इस सृष्टि में
भाषा ने यह दायित्व लिया, 
 
अब सुनती हूँ ये भाषाएँ
मानवता का विघटन हैं करतीं? 
“अति श्रेष्ठ हूँ मैं, तू क्षुद्र बहुत”
आपस में हैं लड़ती-भिड़ती? 
 
सभ्यता जिसे पाकर विकसी
क्या वैमनस्य वे करतीं हैं? 
मानव का इसमें दोष बड़ा
भाषा क्या दोषी होती है? 
 
भाषा को शस्त्र बनाओ मत, 
जन-जन चेतो, मत रार करो, 
गणतंत्र देश के हम वासी
इस राष्ट्रीयता का सम्मान करो, 
 
एक बड़ा भाग इस भारत का
हिन्दी में बातें करता है, 
इस तथ्य को यदि हम मानें तो
हिन्दी बहुमत की भाषा है, 
 
यदि सूत्र बने यह शक्ति पूर्ण
भारत का मान बढ़ाएगा, 
एक भाषा में दृढ़ता से बँधा
यह राष्ट्र सुदृढ़ कहलाएगा। 

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