सूरज—तब और अब
काव्य साहित्य | कविता सरोजिनी पाण्डेय15 Apr 2023 (अंक: 227, द्वितीय, 2023 में प्रकाशित)
मेरे बचपन का सूरज
कभी मैदान, कभी खेत—
कभी नदिया के पार से निकलता था,
कभी किसी पर्वत की चोटी पर
धीरे-धीरे चढ़कर
हल्की हल्की थपकियाँ दे,
मुझको जगाता था,
और कभी-कभी तो
दूर तक, क्षितिज में ही रहते हुए
रेलगाड़ी के डिब्बे से मुझको बाहर बुलाता था,
कभी किसी मुँडेर पर चढ़,
किसी आम की अमराई में,
अंम्बियो के बीच से ताक-झाँक कर
मुझको चिढ़ाता था!
कभी यही दंगाई/नटखट सूरज
गर्मी की दुपहरी में
आँगन की ईंटों को तवे-सा तपा कर
मेरे नरम तलवे झुलसा,
मुझको सताता था!!
बारिश के उदे, अँधियारे दिनों में
भीग जाने के डर से यह
बादल में छुप जाता था,
पर मौक़ा पाते ही
रंग और कूची ले
झटपट नभ के फलक पर
कई सतरंगी धनुष,
उकेर जाता था,
क्वार की अलसाई
कुछ हल्की, कुछ बोझिल-सी शामों को
ऊदे-सफ़ेद,
रूई के गालों से हल्के बादलों को,
पीला, गुलाबी, नारंगी रंग जाता था,
सर्दियों की स्वेटर में लिपटी
दोपहरी में
सुखद और खुलती,
प्यारी गर्माहट दे,
मूँगफली-गुड़, सिंघाड़े संग-संग खाने को,
प्यार से इशारे कर,
मुझे आँगन में बुलाता था,
वही मेरा पुराना,
बचपन का साथी सूरज
गाँव से मेरे संग चलकर
महानगर आते-आते
कुछ शांत, कुछ क्लान्त,
कुछ अनमना-सा लगता है,
धुँध, कोहरे, बहुमंज़िला भवन भरे
क्षितिज से,
उदास, थका-सा,
बेमन से निकलता है,
लेता रहता है वह
दिन भर उबासियाँ
गाँव के जैसी ठिठोली
अब कहाँ करता है?
कई बार हम शहरियों के
अत्याचारों से व्यथित हो,
हफ़्तों तक हमसे वह मुँह फेर लेता है!!
सुबह, साँझ, दुपहरी
ढूँढ़ती हैं आँखें उस नटखट बाल-सखा को
मेरे साथ जो कभी
हँसता-खिलखिलाता था,
कभी चिढ़ाता, कभी मुझको दुलाराता था!!
क्या मानी सूरज कभी हमें माफ़ कर पाएगा?
अपनी वे दुआओं-सी
अनमोल नेमतें
क्या वह मेरी आने वाली पीढ़ियों पर भी लुटाएगा?
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
अनूदित लोक कथा
- तेरह लुटेरे
- अधड़ा
- अनोखा हरा पाखी
- अभागी रानी का बदला
- अमरबेल के फूल
- अमरलोक
- ओछा राजा
- कप्तान और सेनाध्यक्ष
- काठ की कुसुम कुमारी
- कुबड़ी टेढ़ी लंगड़ी
- केकड़ा राजकुमार
- गंध-बूटी
- गिरिकोकोला
- गुमशुदा ताज
- गोपाल गड़रिया
- ग्वालिन-राजकुमारी
- चतुर और चालाक
- चतुर चंपाकली
- चतुर फुरगुद्दी
- चलनी में पानी
- छुटकी का भाग्य
- जग में सबसे बड़ा रुपैया
- ज़िद के आगे भगवान भी हारे
- जादू की अँगूठी
- जूँ की खाल
- जैतून
- जो पहले ग़ुस्साया उसने अपना दाँव गँवाया
- तीन कुँवारियाँ
- तीन छतों वाला जहाज़
- दर्दीली बाँसुरी
- दूध सी चिट्टी-लहू सी लाल
- दो कुबड़े
- निडर ननकू
- नेक दिल
- पंडुक सुन्दरी
- परम सुंदरी—रूपिता
- पिद्दी की करामात
- प्यारा हरियल
- प्रेत का पायजामा
- फनगन की ज्योतिष विद्या
- बहिश्त के अंगूर
- भाग्य चक्र
- भोले की तक़दीर
- महाबली बलवंत
- मूर्ख मैकू
- मूस और घूस
- मोरों का राजा
- राजकुमार-नीलकंठ
- राजा और गौरैया
- रुपहली नाक
- लम्बी दुम वाला चूहा
- लालच अंजीर का
- लालच बतरस का
- लालची लल्ली
- लूला डाकू
- वराह कुमार
- शाप मुक्ति
- शापित
- संत की सलाह
- सात सिर वाला राक्षस
- सुनहरी गेंद
- सुप्त सम्राज्ञी
- सूर्य कुमारी
- सेवक सत्यदेव
- स्वर्ग की सैर
- स्वर्णनगरी
- ज़मींदार की दाढ़ी
- ज़िद्दी घरवाली और जानवरों की बोली
कविता
- अँजुरी का सूरज
- अटल आकाश
- अमर प्यास –मर्त्य-मानव
- एक जादुई शै
- एक सँकरा पुल
- करोना काल का साइड इफ़ेक्ट
- कहानी और मैं
- काव्य धारा
- क्या होता?
- गुज़रते पल-छिन
- जीवन की बाधाएँ
- झीलें—दो बिम्ब
- तट और तरंगें
- दरवाज़े पर लगी फूल की बेल
- दशहरे का मेला
- पशुता और मनुष्यता
- पारिजात की प्रतीक्षा
- पुरुष से प्रश्न
- बेला के फूल
- भाषा और भाव
- भोर . . .
- भोर का चाँद
- भ्रमर और गुलाब का पौधा
- मंद का आनन्द
- माँ की इतरदानी
- मेरी दृष्टि—सिलिकॉन घाटी
- मेरी माँ
- मेरी माँ की होली
- मेरी रचनात्मकता
- मेरे शब्द और मैं
- मैं धरा दारुका वन की
- ये तिरंगे मधुमालती के फूल
- ये मेरी चूड़ियाँ
- राधा की प्रार्थना
- वन में वास करत रघुराई
- विदाई की बेला
- व्हाट्सएप?
- शरद पूर्णिमा तब और अब
- सदाबहार के फूल
- सागर के तट पर
- सावधान-एक मिलन
- सावन में शिव भक्तों को समर्पित
- सूरज का नेह
- सूरज की चिंता
- सूरज—तब और अब
यात्रा-संस्मरण
ललित निबन्ध
काम की बात
वृत्तांत
स्मृति लेख
सांस्कृतिक आलेख
लोक कथा
आप-बीती
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
शैली 2023/04/11 03:05 PM
भाव पूर्ण प्रकृति चित्रण, उत्तम रचना