श्रद्धा
कथा साहित्य | लघुकथा सरोजिनी पाण्डेय1 Jun 2022 (अंक: 206, प्रथम, 2022 में प्रकाशित)
इन दिनों नींद उसकी आँखों से दूर-दूर भागी रहती है। बिस्तर में उसने एक बार फिर करवट बदली।
पिछले दो महीनों से यही हाल है। कैंसर की चिकित्सा और ऑपरेशन के कारण स्वयं को स्तनहीन और गंजा देखने की कल्पना ही दिन का चैन और रातों की नींद दूर भगाने के लिए काफ़ी थी।
उस दिन सहेली का साथ देने के लिए ही उसके साथ अस्पताल चली गई थी। सहेली जब डॉक्टर के कक्ष में चली गई, तब प्रतीक्षाकक्ष में बैठे-बैठे सामने की दीवार पर 'सेल्फ़ एग्ज़ामिनेशन ऑफ़ योर ब्रेस्ट' के पोस्टर पर नज़र गई। समय बिताने के लिए उसने उसे पूरा पढ़ डाला।
जब घर आई तो कपड़े बदलते समय, यूँ ही, शीशे के सामने निर्वस्त्र हो अपने दोनों स्तनों की जाँच करने लगी। पहली संतान के जन्म के बाद उसे एक स्तन में फोड़ा भी तो हो गया था! अब जब उसको दबा कर देखा तो, एक नन्ही सी गाँठ और उसके आसपास सिकुड़ती हुई त्वचा साफ़ दिखलाई पड़ी, न कोई दर्द, न जलन, न ही स्तन के आकार में कोई बदलाव। लेकिन दबाव से गाँठ और त्वचा पर सिकुड़न तो स्पष्ट थी, जो दूसरे स्तन पर एकदम नहीं थी। उसके प्राण कंठ में आकर अटक गए, फोड़े की बात भी पंद्रह वर्ष से अधिक पुरानी हो गई है। पोस्टर की हिदायतों के अनुसार उसे अस्पताल में जाकर अपनी जाँच करा लेनी चाहिए, हो सकता है यह कैंसर हो।
यदि यह कैंसर हुआ तो! यदि एक छाती काट कर निकाल दी गई तो! बस यही विष पिछले दो महीनों से प्रतिपल वह पी रही थी। ऐसे में आँखों में नींद भला कैसे आती?
स्त्रीत्व का सबसे सुंदर प्रतीक-सुडौल, सचिक्कण उरोज, घने श्यामल घटाओं जैसे बाल! इस रोग की चिकित्सा में ये दोनों ही उससे छिन जायेंगे। कैसे जी पाएगी वह इस अपंगता के साथ? उसके वैवाहिक जीवन का क्या होगा? पति की दृष्टि में उसका क्या मूल्य रह जाएगा? सखी-सहेलियों की करुणा भरी आँखें! ब्लाउज के नये नाप!
दिन रात वह इसी घुटन में जी रही थी। बात-बे-बात उसकी आँखें छलक आतीं, वह हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी कि कैसे परिवार के सामने इस बात को बताए। जब वह स्वयं को ही नहीं समझा पा रही थी, तो और कोई क्या समझेगा उसकी पीड़ा? अस्पताल जाकर जाँच कराने की कल्पना करते ही उसकी वेदना अति तीव्र हो जाती।
जब घबराहट हद से अधिक बढ़ गई तो वह बिस्तर में ही उठकर बैठ गई। शान्ति, शक्ति और साहस पाने के लिए कई मंत्रों के जाप कर डाले। अंत में वह महामृत्युंजय मंत्र का जाप करने लगी—ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे ऽ ऽ ऽ। मन में शिव के कल्याणकारी रूप का चिंतन करने लगी—शीश पर गंगा, माथे पर चंद्र मुकुट, गोदी में बाल गणेश, गले पर नाग, कंठ में विष, द्वार पर नंदी, बग़ल में माता पार्वती, कितना सुंदर तेजोमय स्वरूप-- ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे ऽ ऽ ऽ।
मंत्र जपते हुए भी मन की भटकन थमी न थी, सोचने लगी—मेरा पति भी तो मुझे कितना प्यार करता है, मानो हम शिव-पार्वती हों! क्या मेरे इलाज के बाद भी मेरे पति मुझे उतना ही प्यार कर पाएँगे? और तब सहसा उसने विचार किया कि शिव का प्यार तो पार्वती के प्रति इतना गहरा था कि उन्होंने अपने आधे अंग में गौरी को बसा लिया और स्वयं 'अर्धनारीश्वर’ बन गए। मन में कई बार अर्धनारीश्वर शब्द कौंधा! इस बात पर ध्यान जाते ही उसका हृदय अकस्मात् ही एक अपूर्व शान्ति से भर गया। उसे मन में एक दृढ़ता का अनुभव होने लगा। कहीं ऐसा तो नहीं है कि शिव उसकी परीक्षा ले रहे हैं? सोचने लगी, 'यह रोग देकर ईश्वर ने मेरी सहनशीलता और आस्था की परीक्षा लेनी चाही हो?’ एक स्तन कट जाने पर मैं भी तो प्रभु के अर्धनारीश्वर रूप के कुछ निकट पहुँच जाऊँगी! यह मेरे आराध्य प्रभु का आशीर्वाद ही ना हो!’
अब उसे भय कैसा? उसे लगा मानो शिवजी ने उसकी परीक्षा लेने के लिए ही उसे इस स्थिति में डाला है। अपने रूप का तनिक सा ज्ञान कराने के लिए उसको यह अवसर दिया है। हे प्रभु शिव! मेरी सहायता करना!!
उसने अगली सुबह अस्पताल जाकर जाँच कराने का निश्चय कर लिया, शिव का ध्यान करते हुए वह शान्ति से सो गई।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
डॉ पदमावती 2022/05/24 12:01 PM
मानसिक उहापोह का सजीव चित्रण । हाँ! जीवन में विश्वास ही सब कुछ है । दांपत्य जीवन का आधार शारीरिक सुंदरता कभी नहीं हो सकता ! आरंभ भले इसी से हो लेकिन धीरे-धीरे यह गौण और आत्मीयता प्रधान बन जाती है । यह एक ऐसा पवित्र रिश्ता है जो परस्पर प्रेम और विश्वास की महीन डोर को थामे चलता है ।हाँ,जहां तक भारत का संबंध है । हाल ही में एक कहानी पढ़ने का अवसर मिला था विष्णु प्रभाकर की लिखी ‘जज का फ़ैसला’ । बहुत ही रोमांचक कहानी थी जहां नायक ट्रेन एक्सीडेंट में कुरूप हुई प्राणों से भी प्रिय पत्नी की गला दबा कर हत्या कर देता है । पढ़कर रोंगटे खड़े हो गए । अपवाद भी है लेकिन विश्वास अपनी जगह क़ायम है । बहुत बधाई ।
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
अनूदित लोक कथा
- तेरह लुटेरे
- अधड़ा
- अनोखा हरा पाखी
- अभागी रानी का बदला
- अमरबेल के फूल
- अमरलोक
- ओछा राजा
- कप्तान और सेनाध्यक्ष
- काठ की कुसुम कुमारी
- कुबड़ा मोची टेबैगनीनो
- कुबड़ी टेढ़ी लंगड़ी
- केकड़ा राजकुमार
- क्वां क्वां को! पीठ से चिपको
- गंध-बूटी
- गिरिकोकोला
- गीता और सूरज-चंदा
- गुनी गिटकू और चंट-चुड़ैल
- गुमशुदा ताज
- गोपाल गड़रिया
- ग्यारह बैल एक मेमना
- ग्वालिन-राजकुमारी
- चतुर और चालाक
- चतुर चंपाकली
- चतुर फुरगुद्दी
- चतुर राजकुमारी
- चलनी में पानी
- छुटकी का भाग्य
- जग में सबसे बड़ा रुपैया
- ज़िद के आगे भगवान भी हारे
- जादू की अँगूठी
- जूँ की खाल
- जैतून
- जो पहले ग़ुस्साया उसने अपना दाँव गँवाया
- तीन कुँवारियाँ
- तीन छतों वाला जहाज़
- तीन महल
- दर्दीली बाँसुरी
- दूध सी चिट्टी-लहू सी लाल
- दैत्य का बाल
- दो कुबड़े
- नाशपाती वाली लड़की
- निडर ननकू
- नेक दिल
- पंडुक सुन्दरी
- परम सुंदरी—रूपिता
- पाँसों का खिलाड़ी
- पिद्दी की करामात
- प्यारा हरियल
- प्रेत का पायजामा
- फनगन की ज्योतिष विद्या
- बहिश्त के अंगूर
- भाग्य चक्र
- भोले की तक़दीर
- महाबली बलवंत
- मूर्ख मैकू
- मूस और घूस
- मेंढकी दुलहनिया
- मोरों का राजा
- मौन व्रत
- राजकुमार-नीलकंठ
- राजा और गौरैया
- रुपहली नाक
- लम्बी दुम वाला चूहा
- लालच अंजीर का
- लालच बतरस का
- लालची लल्ली
- लूला डाकू
- वराह कुमार
- विधवा का बेटा
- विनीता और दैत्य
- शाप मुक्ति
- शापित
- संत की सलाह
- सात सिर वाला राक्षस
- सुनहरी गेंद
- सुप्त सम्राज्ञी
- सूर्य कुमारी
- सेवक सत्यदेव
- सेवार का सेहरा
- स्वर्ग की सैर
- स्वर्णनगरी
- ज़मींदार की दाढ़ी
- ज़िद्दी घरवाली और जानवरों की बोली
ललित निबन्ध
कविता
- अँजुरी का सूरज
- अटल आकाश
- अमर प्यास –मर्त्य-मानव
- एक जादुई शै
- एक मरणासन्न पादप की पीर
- एक सँकरा पुल
- करोना काल का साइड इफ़ेक्ट
- कहानी और मैं
- काव्य धारा
- क्या होता?
- गुज़रते पल-छिन
- जीवन की बाधाएँ
- झीलें—दो बिम्ब
- तट और तरंगें
- तुम्हारे साथ
- दरवाज़े पर लगी फूल की बेल
- दशहरे का मेला
- दीपावली की सफ़ाई
- पंचवटी के वन में हेमंत
- पशुता और मनुष्यता
- पारिजात की प्रतीक्षा
- पुराना दोस्त
- पुरुष से प्रश्न
- बेला के फूल
- भाषा और भाव
- भोर . . .
- भोर का चाँद
- भ्रमर और गुलाब का पौधा
- मंद का आनन्द
- माँ की इतरदानी
- मेरी दृष्टि—सिलिकॉन घाटी
- मेरी माँ
- मेरी माँ की होली
- मेरी रचनात्मकता
- मेरे शब्द और मैं
- मैं धरा दारुका वन की
- मैं नारी हूँ
- ये तिरंगे मधुमालती के फूल
- ये मेरी चूड़ियाँ
- ये वन
- राधा की प्रार्थना
- वन में वास करत रघुराई
- वर्षा ऋतु में विरहिणी राधा
- विदाई की बेला
- व्हाट्सएप?
- शरद पूर्णिमा तब और अब
- श्री राम का गंगा दर्शन
- सदाबहार के फूल
- सागर के तट पर
- सावधान-एक मिलन
- सावन में शिव भक्तों को समर्पित
- सूरज का नेह
- सूरज की चिंता
- सूरज—तब और अब
सांस्कृतिक कथा
आप-बीती
सांस्कृतिक आलेख
यात्रा-संस्मरण
काम की बात
यात्रा वृत्तांत
स्मृति लेख
लोक कथा
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं
पाण्डेय सरिता 2022/05/24 12:42 PM
बहुत बढ़िया!शानदार