टोटका
आलेख | ललित निबन्ध सरोजिनी पाण्डेय15 Dec 2024 (अंक: 267, द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)
(व्यक्तिवाचक ललित निबन्ध)
दार्शनिक, आध्यात्मिक गुरु आदि ज्ञानी सदा उपदेश देते हैं कि सुख और दुख जीवन के दो अभिन्न अंग हैं। सुख के बाद दुख और दुख के बाद सुख मिलता है, परन्तु यह उपदेश चाहे कितना ही वास्तविक हो, कोई मनुष्य कभी दुख नहीं पाना चाहता। पूजा-पाठ, दान-धर्म, भजन-पूजन सदैव सुख पाने की इच्छा से ही होते हैं।
‘मुझे कभी दुख न मिले’ इसी भावना से प्रेरित क्रियाएँ होती हैं ‘टोटका’!
संसार की भिन्न-भिन्न संस्कृतियों, भिन्न-भिन्न भाषाओं में यह क्रियाएँ भिन्न होंगी, नाम विभिन्न होंगे परन्तु भाव एक ही रहता है, ‘भविष्य में होने वाले अनिष्ट-अशुभ-अप्रिय से बचाव’ या सुरक्षा! तनिक विचार करके देखिए, कार्य आरंभ में गणेश वंदना, घर से दही-गुड़ खाकर किसी शुभ कार्य के लिए निकलना, माता-पिता बड़ों का आशीर्वाद लेना, बच्चे के माथे पर काजल का टीका, सभी ऐसी ही क्रियाएँ हैं जो अनिष्ट से बचने के लिए और सुख की इच्छा से की जाती हैं। परन्तु भाषा की चाल देखिए कि ऐसे कुछ क्रिया-कलापों को सदाचार से और कुछ को अंधविश्वास से जोड़ दिया गया है। नए बनते घरों के आगे लटके राक्षसों के चेहरे, तीन पैरों वाला कछुआ, गाड़ियों के शीशे पर लटकी दिखती नींबू-मिर्च की मालाएँ ‘टोटकों’ के ही प्रतीक हैं! स्वभाव से मैं ‘टोटकों’ में विश्वास करने वाली नहीं हूँ, परन्तु हूँ तो मानव ही, अनिष्ट से भय से स्वाभाविक है। अतः ऐसे टोटके जिससे किसी का अहित ना हो, मात्र अपनी रक्षा और भय से मुक्ति का विचार निहित हो तो उसे करने में मुझे संकोच भी नहीं होता। मन में यह भाव भी आता है कि ये ‘टोटके’ हमारी संस्कृति का अंग हैं, इन्हें अगली पीढ़ी को देकर आगे बढ़ने में किसी का अहित नहीं होगा, हमारी पहचान बनी रहेगी। निर्दोष टोटके मैं दूसरों को भी बताने से नहीं चूकती।
इधर दो घटनाएँ ऐसी हुईं जिन्होंने मुझे यह सोचने पर विवश कर दिया कि कुछ टोटकों में सच्चाई तो नहीं? पिछले वर्ष की सर्दियों की बात है, हमारे घर के मुख्य प्रवेश द्वार की एक चाबी खो गई! हम पति-पत्नी एक बहुमंज़िली इमारत में रहते हैं। फ़्लैट के मुख्य द्वार की दो चाबियाँ हैं; एक-एक हम दोनों के पास रहती है, जिससे दोनों जब चाहे बाहर जा सकें और आ सकें। पति अवकाश प्राप्त अधिकारी हैं, मैं गृहणी, हम दोनों के ही बाहर आने-जाने का समय निश्चित नहीं रहता। इस प्रबंध से दोनों को सुविधा रहती है। एक चाबी खो गई तो दोनों का अलग-अलग जाना बाधित होने लगा। फिर यह डर भी सताने लगा कि चाभी यदि किसी ग़लत हाथ में पड़ गई तो घर में जो ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी सामान है भी वह चोरी न हो जाए। दो-तीन दिन इस संकट से जूझते निकल गए। मेरे दिमाग़ में हमेशा यही चलता रहता कि आख़िर चाभी गिरी या खोई तो किस जगह? चाभी मेरे पास से ग़ायब हुई या पतिदेव के पास थी, अभी मैं इन्हीं उलझनों में ही रह रही थी कि एक दिन फोन पर मेरी छोटी बहन से बात हुई। अब बहन से बात हुई तो बातों-बातों में मैंने उसे उस समय की अपने जीवन की सबसे ज्वलंत समस्या के बारे में भी बताया। बहन ने भी मेरी चुटकी लेने के ही भाव से कहा, “चाभी खोई है तो गिरगिट्टी का बच्चा बंधिए न, हो सकता है मिल जाए!” ऐसे टोटकों पर मुझे तनिक भी विश्वास नहीं है पर बहन ने समझाया, “जीजी, इसमें नुक़्सान ही क्या है? बस अपनी साड़ी, चुन्नी या किसी भी कपड़े में गाँठ लगा लीजिए और कहिए ‘हमारा माल हेराना है, गिरगिट्टी का बच्चा बान्हाँ है’अर्थात मेरा सामान खो गया है इसलिए मैंने गिरगिट के बच्चे को बाँध लिया है! उसके बाद भी चाबी को खोजने की कोशिश जारी रखिए हो सकता है, कहीं मिल ही जाए! अब आपकी चाबी खो तो गई ही है, मिली तो वाह वाह, और न मिली तो जो आपको करना है वह तो आप करेंगी ही!”
मैंने भी विचार किया तो लगा कि इस टोटके में किसी का नुक़्सान तो मैं करने नहीं जा रही हूँ, यहाँ तक कि गिरगिट के वास्तविक बच्चे को भी पकड़ कर बाँधने जैसी कोई दर्दनाक क्रिया मुझे नहीं करनी है, इस टोटके को करने में भला किसी का क्या नुक़्सान है? ऐसा सोच-विचारकर मैंने बहन का दिया मंत्र बोलते हुए, अपने दुपट्टे के कोने में एक गाँठ बाँध ली और दैनिक जीवन की व्यस्तताओं में अपने को डाल दिया। उस रात जब रसोई सँभाल, पूरे घर के दरवाज़े बंद कर, रात के लिए बत्तियाँ इत्यादि बुझा कर बिस्तर में लेटी तो दो मिनट बाद अचानक उठ बैठी और धुलाई के लिए इकट्ठे किए जा रहे कपड़ों को ज़मीन पर फैला कर टटोलने लगी। पति देव ने मेरे इस तरह अचानक उठने से कुछ घबराकर तबीयत का हाल भी जानना चाहा। मैं कपड़े टटोलती जा रही थी, अचानक खाना बनाते समय पहने जाने वाले मेरे ऐप्रन के पॉकेट में कुछ ठोस चीज़ हाथ में आई और यह क्या?!?! यह तो घर के दरवाज़े की चाभी थी! उसको हाथ में पकडे़ मैं न जाने कितनी भावनाओं से होकर गुज़री, विश्वास, अविश्वास संयोग या फिर टोटके की सफलता। बिस्तर में लेटे-लेटे यह भी सोचती रही कि आख़िर इस टोटके में गिरगिट का ही नाम क्यों लिया जाता है? किसी और पशु-पक्षी का क्यों नहीं? मन ने यही तर्क दिया कि गिरगिट अगम्य जगह में भी घुस जाता है, उसका सिर कभी स्थिर नहीं रहता, शायद इसीलिए हमारे पूर्वजों ने उसको उसके बच्चों के मोह में फँसा कर अपना काम निकलवाने की कल्पना की हो! इन्हीं विचारों की उलझन में फँसी मैं उस रात बहुत देर तक जागती रही और फिर ज़िन्दगी सामान्य ढर्रे पर चलने लगी।
अब इस ‘टोटके’ की कहानी का दूसरा हिस्सा भी मैं आपको सुनाऊँगी, तभी आपको यह समझ में आएगा कि कुछ टोटकों पर विश्वास करने को मेरा मन क्यों होता है।
इस वर्ष अक्टूबर के महीने में मैं और मेरे पति मध्य प्रदेश की यात्रा पर गए। सांची का स्तूप, भीम बैठका, भोजपुर-विदिशा के भ्रमण के बाद पंचमढ़ी आए। यह मध्य प्रदेश का इकलौता हिल स्टेशन है। यहाँ की आसपास की गुफाओं और शिखर पर कई मंदिर है, एक गुफा मंदिर है ‘महादेव मंदिर’। यहाँ जाते हुए दर्शनार्थियों की क़तार में हमारे आगे एक परिवार की तीन पीढ़ियाँ, माता-पिता, पुत्र-पुत्र वधू और आठ नौ वर्ष का पौत्र चल रहे थे।
वे आपस में जो बातें कर रहे थे वह अनायास ही मेरे कानों में पड़ रही थीं। उस परिवार के ‘आर्थिक मुखिया’ पुत्र का बटुआ अभी कुछ देर पहले ही शायद कहीं खो गया था। वह अपनी माँ से पत्नी की शिकायत कर रहा था कि उसी के लिए कुछ ख़रीदारी करने के बाद से बटुआ ग़ायब हुआ है। माता दुखी थी और इस हानि के लिए स्वयं को भी ज़िम्मेदार ठहरा रही थी कि पुत्र की कोपाजन केवल पुत्रवधू न रहे। इन लोगों के बोलने का ढंग ‘भोजपुरी’ था जो कि मेरी भी ‘बोली’ है, उनकी बातों पर ध्यान जाने का सबसे बड़ा कारण था अपनी बोली की समानता। किसी की पारिवारिक बातों को चोरी से सुनने पर अगला जन्म छछूंदर का होता है (?) ऐसी मान्यता (या अंधविश्वास) है लेकिन मैं तो यह ‘पाप कर नहीं रही थी, बातें रास्ते में हो रही थीं’। किसी अपराध बोध से बचने के लिए ऐसे विचार भी मेरे मन में आ रहे थे। कुछ ही मिनटों में हम गुफा के अंदर के शिवलिंग के सामने थे। यह परिवार जब प्रणाम-नमन करने लगा तो दादी ने पोते से कहा, “बेटा भगवान कै दरसन करौ औ सिउ बाबा से आशीर्वाद माँगौ कि पापा का हेरान बटुवा मिल जाए।”
अब तक मैं दर्शन कर चुकी थी। आज मैं कुछ अधिक ही मस्ती के मूड में थी आख़िर को सैर-सपाटा ही तो करने आई थी! न जाने कैसे क्या सोचकर मैंने बच्चों की दादी से कहा, “बटुआ खोजै के लिए गिरगिट्टी का बच्चा नाहीं बाँध्यु का?” बेचारी प्रौढ़ा मेरी बात सुनकर हैरान-परेशान हो गई, परन्तु तुरंत सँभाल भी गई और मेरी भाव-मुद्रा, शान्त स्वर से आश्वस्त भी। उसे शायद इस गिरगिट्टी के बच्चे वाले टोटके के विषय में कुछ मालूम ही नहीं था। अधिकांश ‘टोटके’ तो स्थानीय और क्षेत्रीय ही होते हैं। उसने पूछा, “ऊ कइसे?” मैंने उसे विस्तार बता दिया कि क्या करना है और क्या कहना है। बेचारी भोली स्त्री ठीक से समझी नहीं, बोली “अब कहाँ से पाई गिरगिट्टी कै बच्चा जौन गाँठी में बाँधि लेई?” मेरी थोड़ी हँसी निकल आई, मैंने उसे फिर समझाया कि “सचमुच ताज़ा का गिरगिट नहीं चाहिए, बस अपने पहने हुए किसी कपड़े में छोटी सी गाँठ बाँध लो और मंत्र बोलो ‘हमारा माल हेराना है गिरगिट्टी का बच्चा बान्हा है’।” इस बातचीत के बाद हम अगली अपनी-अपनी राह चले गए!
वह परिवार तो चला गया परन्तु सहसा मुझे याद आया कि इस यात्रा पर आने से पहले मेरे अस्सी यूरो ग़ायब हो गए थे। मैंने उसके लिए गिरगिट का बच्चा क्यों नहीं बाँधा था? सच्ची बात यह है कि ऐसे टोटकों पर मेरा विश्वास तो है नहीं और मैं दूसरों को शिक्षा दे रही हूँ? यूरो खोने की घटना कुछ इस तरह हुई, हम कुछ वर्ष पहले यूरोप भ्रमण के लिए गए थे तो लौटने पर कुछ विदेशी मुद्रा बची रह गई, अधिकांश को तो एयरपोर्ट पर ही भारतीय मुद्रा में बदल ली पर यह राशि न जाने कैसे बची ही रह गई। इस बार अगस्त के महीने में जब हमने ‘बाली इंडोनेशिया’ भ्रमण की तैयारी शुरू की तो वह बचे हुए यूरो याद आ गए। उन्हें निकाला गया कि ऐसी जगह रख दिया जाए कि इस बार एयरपोर्ट पर इन्हें बदला जा सके। मैं दस-दस यूरो के आठ नोट एक ‘पर्स’ में रख दिये कि जब यात्रा पर निकलना होगा तब पर्स अवश्य देखें जाएँगे और इन पैसों पर नज़र पड़ी जाएगी। सितंबर के माह में जब यात्रा का समय आया तो यूरो ढूँढ़े जाने लगे छोटे-बड़े सभी पर्स देख डाले गए। हम पति-पत्नी दोनों ने दो-चार दिनों तक सम्भव-असम्भव हर स्थान छान मारे लेकिन उन सम्हाल कर रखे गए नोटों का पता न चला। इसी बीच बनारस (हमारा पैतृक स्थान) जाना भी हो गया और सितंबर में बाली यात्रा भी सम्पन्न हो गई। बीच-बीच में मेरे कलेजे में हूक-सी उठती कि आख़िर में 10-10 यूरो के 8 नोट गए तो कहाँ गए? घर में न तो कोई बच्चा, ना तीसरा प्राणी। सेविका यदि ईमान खोएगी तो भला विदेशी मुद्रा का क्या करेगी? न जाने कौन-सा भूत-जिन उन्हें उठा ले गया था। इस बात को भुला देना ही बेहतर था और ज़िन्दगी तो चलती ही रहती है। पैसों के इस तरह खोने से यह चिंता अवश्य कभी-कभी सताती थी कि इस तरह का भूलना अल्जा़इमर का लक्षण न हो?
अब फिर मैं वापस आती हूँ पंचमढ़ी के महादेव मंदिर की घटना पर। तो दिन भर घूम-फिर कर, पहाड़ियों-झरनों को देखकर शाम को अपने विश्राम स्थल पहुँच गए! अभी दिन भर की थकान उतरी न थी। मैं बिस्तर में लेटी हुई थी। शाम के कोई आठ बजे होंगे, जब मेरे मोबाइल की घंटी बजी। मोबाइल की यह बात बड़ी अच्छी है कि फोन करने वाले का नाम-नंबर आपको तुरंत मालूम पड़ जाता है। देखा तो पता चला बनारस से मेरी देवरानी का फोन था। मेरी यह देवरानी जल्दी किसी को फोन नहीं करती, हाँ, मैं करूँ तो प्रेम से बात करती है। मुझे थोड़ी हैरानी हुई और चिंता भी कि भला आज इन बहनजी ने फोन कैसे कर लिया? ईश्वर का नाम लिया कि सब कुशल मंगल हो और बटन दबाकर बात करने लगी। सादर अभिवादन और कुशल-क्षेम के बाद वह बोली, “दीदी कब से आपको बताना था कि जो पर्स आपने मुझे जन्माष्टमी पर उपहार में दिया है, उसमें आठ नोट रखे हैं! शायद आपने भूल से रखे होंगे। जब दिल्ली आऊँगी तभी आपको दे पाऊँगी! हमारे तो किसी काम के हैं नहीं।” यह सुनकर मेरे तो रोंगटे खड़े हो गए, उस तरफ़ से मेरी देवरानी बोलती जा रही थी, “आपके बाली जाने से पहले ही आपको बताना चाहती थी पर जाने क्या होता गया, रोज़ ही भूल जा रही थी।” मेरे मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे। न जाने कैसे कैसे तो विचार मेरे मन में आ रहे थे, अगस्त के बाद आज अक्टूबर में उसी दिन, उसे यह बात बताने का समय मिला जिस दिन गिरगिट्टी का बच्चा बाँधने का टोटका मेरे मस्तिष्क कौंधा? सुबह महादेव के मंदिर में हुई घटना मेरे दिमाग़ में घूम रही थी, जहाँ गिरगिट्टी का बच्चा बाँधने का टोटका किसी और को केवल चुटकी लेने के लिए बताया था, अपने बारे में तो सिर्फ़ सोचा था! क्या सचमुच कुछ टोटके इतने प्रभावित होते है?
या यह सब कुछ मात्र संयोग होता है और हम ना चाह कर भी टोटकों में विश्वास करने लगते हैं!!
पाठक अपनी प्रतिक्रियाएँ देंगे तो मुझे अपना विचार स्थिर करने में आसानी होगी।
यूरो मिल जाने की ख़ुशी तो मुझे है ही, इस बात का भी संतोष है कि अभी अल्ज़ाइमर का कोई लक्षण नहीं है। यूरो मैंने पर्स में ही रखे थे, वह बात अलग है कि उपहार में देने के लिए लाए गए नए पर्स में उन्हें रख दिया था। हाँ, उनके वहाँ होने जानकारी दो महीने बाद टोटके वाले दिन ही मिलना मेरे लिए लोहर्षक अवश्य है।
अन्य संबंधित लेख/रचनाएं
टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
अनूदित लोक कथा
- तेरह लुटेरे
- अधड़ा
- अनोखा हरा पाखी
- अभागी रानी का बदला
- अमरबेल के फूल
- अमरलोक
- ओछा राजा
- कप्तान और सेनाध्यक्ष
- काठ की कुसुम कुमारी
- कुबड़ा मोची टेबैगनीनो
- कुबड़ी टेढ़ी लंगड़ी
- केकड़ा राजकुमार
- क्वां क्वां को! पीठ से चिपको
- गंध-बूटी
- गिरिकोकोला
- गीता और सूरज-चंदा
- गुनी गिटकू और चंट-चुड़ैल
- गुमशुदा ताज
- गोपाल गड़रिया
- ग्यारह बैल एक मेमना
- ग्वालिन-राजकुमारी
- चतुर और चालाक
- चतुर चंपाकली
- चतुर फुरगुद्दी
- चतुर राजकुमारी
- चलनी में पानी
- छुटकी का भाग्य
- जग में सबसे बड़ा रुपैया
- ज़िद के आगे भगवान भी हारे
- जादू की अँगूठी
- जूँ की खाल
- जैतून
- जो पहले ग़ुस्साया उसने अपना दाँव गँवाया
- तीन कुँवारियाँ
- तीन छतों वाला जहाज़
- तीन महल
- दर्दीली बाँसुरी
- दूध सी चिट्टी-लहू सी लाल
- दैत्य का बाल
- दो कुबड़े
- नाशपाती वाली लड़की
- निडर ननकू
- नेक दिल
- पंडुक सुन्दरी
- परम सुंदरी—रूपिता
- पाँसों का खिलाड़ी
- पिद्दी की करामात
- प्यारा हरियल
- प्रेत का पायजामा
- फनगन की ज्योतिष विद्या
- बहिश्त के अंगूर
- भाग्य चक्र
- भोले की तक़दीर
- महाबली बलवंत
- मूर्ख मैकू
- मूस और घूस
- मेंढकी दुलहनिया
- मोरों का राजा
- मौन व्रत
- राजकुमार-नीलकंठ
- राजा और गौरैया
- रुपहली नाक
- लम्बी दुम वाला चूहा
- लालच अंजीर का
- लालच बतरस का
- लालची लल्ली
- लूला डाकू
- वराह कुमार
- विधवा का बेटा
- विनीता और दैत्य
- शाप मुक्ति
- शापित
- संत की सलाह
- सात सिर वाला राक्षस
- सुनहरी गेंद
- सुप्त सम्राज्ञी
- सूर्य कुमारी
- सेवक सत्यदेव
- सेवार का सेहरा
- स्वर्ग की सैर
- स्वर्णनगरी
- ज़मींदार की दाढ़ी
- ज़िद्दी घरवाली और जानवरों की बोली
ललित निबन्ध
कविता
- अँजुरी का सूरज
- अटल आकाश
- अमर प्यास –मर्त्य-मानव
- एक जादुई शै
- एक मरणासन्न पादप की पीर
- एक सँकरा पुल
- करोना काल का साइड इफ़ेक्ट
- कहानी और मैं
- काव्य धारा
- क्या होता?
- गुज़रते पल-छिन
- जीवन की बाधाएँ
- झीलें—दो बिम्ब
- तट और तरंगें
- तुम्हारे साथ
- दरवाज़े पर लगी फूल की बेल
- दशहरे का मेला
- दीपावली की सफ़ाई
- पंचवटी के वन में हेमंत
- पशुता और मनुष्यता
- पारिजात की प्रतीक्षा
- पुराना दोस्त
- पुरुष से प्रश्न
- बेला के फूल
- भाषा और भाव
- भोर . . .
- भोर का चाँद
- भ्रमर और गुलाब का पौधा
- मंद का आनन्द
- माँ की इतरदानी
- मेरी दृष्टि—सिलिकॉन घाटी
- मेरी माँ
- मेरी माँ की होली
- मेरी रचनात्मकता
- मेरे शब्द और मैं
- मैं धरा दारुका वन की
- मैं नारी हूँ
- ये तिरंगे मधुमालती के फूल
- ये मेरी चूड़ियाँ
- ये वन
- राधा की प्रार्थना
- वन में वास करत रघुराई
- वर्षा ऋतु में विरहिणी राधा
- विदाई की बेला
- व्हाट्सएप?
- शरद पूर्णिमा तब और अब
- श्री राम का गंगा दर्शन
- सदाबहार के फूल
- सागर के तट पर
- सावधान-एक मिलन
- सावन में शिव भक्तों को समर्पित
- सूरज का नेह
- सूरज की चिंता
- सूरज—तब और अब
सांस्कृतिक कथा
आप-बीती
सांस्कृतिक आलेख
यात्रा-संस्मरण
काम की बात
यात्रा वृत्तांत
स्मृति लेख
लोक कथा
लघुकथा
कविता-ताँका
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
विडियो
उपलब्ध नहीं
ऑडियो
उपलब्ध नहीं