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माँ की इतरदानी

बनी हुई पोत से
न जाने कितनी पुरानी, 
लोहे के उसके बक्से में
बहुत सहेज कर रखी हुई
एक कोने में मेरी माँ की इतरदानी
 
जब कभी माँ अपना बक्सा सहेजतीं
लोहे के बक्से का ढक्कन 
मुझे पकड़ने को कहतीं
कपड़े सरियाते1 यदि ढक्कन गिर जाता! 
मेरी माँ का हाथ तो निश्चित टूट जाता! 
 
ढकना पकड़कर मैं वहीं खड़ी रहती
बक्से से एक विशेष ही ‘माँ के बक्से की सुगंध’-सी निकलती, 
मेरी आँखें बड़ी उत्सुकता से इतरदानी को खोजती थी, 
उसीसे यह मनमोहिनी 
सुगंध जो निकलती थी! 
 
ढक्कनदार डिबिया
बाँस की खप्पचियों से बनी हुई
पोत के लाल, हरे, सफ़ेद
बहुत नन्हे मोतियों से मढ़ी गई, 
डूबी हुई न जाने कितनी सुगन्धों में
तीन-चार इत्र की छोटी-शीशियाँ
छुपाए हुए अपने गर्भ में! 
ख़स, हिना, गुलाब कभी, 
कभी मोगरा भी होता था 
पेरिस से आयातित ख़ुश्बुओं का
ज़िक्र भी तब कहाँ होता! 
 
यह इतरदानी मेरे मन को बहुत भाती थी
हाथ की कलाकारी का वह सुन्दर नमूना थी
मेरी माँ ने किसी से उपहार में यह पाई थी
किससे? यह बात माँ ने कभी नहीं बतायी थी
 
होली की संझा को, किसी तीज-त्योहार पर, 
मेले जाते या ब्याह-ज्यौनार पर
माँ की इतरदानी हमारे लिए भी खुलती थी
हमको भी इत्र की एक फुरेहरी2 मिलती थी़
इतरदानी से इत्र पा हम निहाल हो जाते थे
माँ के स्नेह में स्वयं को लिपटा हुआ पाते थे। 
 

  1. सरियाते=क्रमबद्ध करते

  2. फुरेहरी=रुई का नन्हा फाहा

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