अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा यात्रा वृत्तांत डायरी रेखाचित्र बच्चों के मुख से बड़ों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

रामायण में राम का वर्षा ऋतु वर्णन 

 

वाल्मीकि रामायण के 'किष्किंधा कांड सर्ग-दो' में वर्णित पवास ऋतु के वर्णन का का हिंदी काव्यानुवाद
 
वाल्मीकि रचित महाकाव्य ‘रामायण’ को राम की कथा का आदि ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ में वाल्मीकि ने राम कथा के अंतर्गत आए स्थानों का विस्तार से वर्णन किया है-अयोध्या नगरी का वर्णन, चित्रकूट की वनश्री का वर्णन, लंका के भावनों-चौराहों का वर्णन आदि। इसके साथ ही राम की वानर सेना में सम्मिलित वानरों का वर्णन, ऋतुओं का वर्णन भी बहुत विस्तार से और मुग्ध करने वाला किया है। आज की प्रस्तुति में मैंने राम ने लक्ष्मण से वर्षा ऋतु और अपने विरह का जो वर्णन किया है उसका हिन्दी काव्यानुवाद प्रस्तुत करने का दुस्साहस कर रही हूँ आपकी टिप्पणियों का स्वागत रहेगा! यह भावानुवाद वाल्मीकीय रामायण के किष्किंधा कांड के दूसरे स्वर्ग के श्लोकों का है, श्लोक संख्या अनुवाद के साथ ही लिख दी गई है:
 
प्रिय लखन, लखो नभ मंडल पर घनघोर जलद है घिर आया, 
धरती की प्यास बुझाने को, यह पावस काल सुखद आया। (२) 
 
नभ-मंडल बैठी प्रकृति वधू, सह ताप बहुत अकुलाई थी, 
सागर ने रवि किरनों के मिस, तब उसकी प्यास बुझायी थी, 
 
नौ मास गर्भ में रस वह रख, नभ-युवती सद्य-प्रसूता है, 
जल का लेकर अब रूप नवल सागर का रस ही बरसा है! (३) 
 
है सरल बहुत रवि तक जाना, सीढ़ियाँ लगी हैं बादल की, 
कर दें उसका शृंगार चलो, पहना माला कुटजार्जुन की (४) 
 
वर्षा ऋतु की इस संध्या में, लगता है नभ को घाव लगा, 
क्षत के समान है लाल सूर्य और श्वेत जलद पट्टी जैसा। (५) 
 
कामातुर एक नर के समान यह गगन साँझ को है लगता, 
गालों पर पीलापन छाया माथे पर चंदन लाल लगा, (६) 
 
सूरज माथे का टीका है, लाली चंदन का लेप लगी, 
यह तनिक उष्म-सी, पवन मंद कामी नर की निःश्वास बनी। (७) 
 
धरती जो तपी ग्रीष्म-ऋतु में, अब वर्षा जल से भीगी है, 
क्या इसी तरह सीता मेरी, विरहाकुल तपती-रोती है? (८) 
 
मेघों से छनकर जो आई, वह वायु सुगंधित-स्वच्छ हुई, 
तन-मन को करती तृप्त पवन, अंजलि में भर पी ले कोई! (९) 
 
मेघों की मृगछाला पहनी, जलधार जनेऊ जैसी है, 
पर्वत है ब्रह्मचारी जैसा, सन्,-सन् सन् यह पवन श्लोक-सी है। (१०) 
 
चपला की स्वर्णिम चाबुक, जब आहत कर देती है नभ को, 
बादल का यह गंभीर घोष, उद्घोषित करता उस पीड़ा को (११) 
 
काले मेघों के अंदर जब सोने की रेख चमकती है, 
लगता मुझको ज्यों वैदेही, रावण से त्रसित तड़पती है। (१२) 
 
ग्रह, तारक, तारापति भी जब मेघों में जा छुप जाते हैं, 
हो जाती पृथ्वी दिशाहीन, कामी जन अति सुख पाते हैं। (१३) 
 
हे लखन लखो, यह कुटज पुष्प, पर्वत पर फूले पड़ते हैं, 
वर्षा की बूँदों का जल पा सब हर्षित-पुलकित होते हैं, 
 
यह नटखट श्वेत पुष्प मेरी प्रेमाग्नि को दहकाते हैं, 
सीता मुझे जा दूर पड़ी, यह मेरा विरह बढ़ाते हैं। (१४) 
 
परदेसी लौट रहे घर को, जय यात्रा रुकी नरेशों की, 
हो गई वायु शीतल सु-अच्छ, दाह्यता लुप्त आतप ऋतु की। (१५) 
 
चकवा-चकवी का मिलन हुआ, उड़ चले हंस मानस-सर को, 
वर्षा जल से टूटी राहें, है कठिन हाँकना अब रथ को। (१६) 
 
मेघों से ढका नील नभ तब, है भान कराता सागर का, 
जब पवन वेग से ये बादल, पा जाते रूप तरंगों का। (१७) 
 
पाकर नव वर्षा ऋतु का जल, छोटी नदिया भी उमड़ चली, 
लोहित माटी के घुलने से लगती है जल में कुछ लाली, 
तट के वृक्षों से झरे फूल, बहते हैं धारा के संग में 
सुनकर मेघों का विजयगान केकी नर्तन करते वन में। (१८) 
 
रस से पूरित जामुन के फल लगते हैं श्याम भ्रमर जैसे, 
बहू रंगे, रस से भरे आम, रह-रह कर झड़ते वृक्षों से। (१९) 
 
गजराज सदृश्य काले बादल जो गरज रहे उदयाचल में, 
बगुलों की धवल पंक्ति मानो माला जैसी है पड़ी गले, (२०) 
 
दिन भर वर्षा का जल पाकर घासों का दल हरियाया है, 
आयोजित करने नृत्योत्सव यह मयूर-दल उठ धाया है। (२१) 
 
जलवहन कार्य से थके जलद, गर्जन करते अकुलाते हैं, 
बगुलों की माला कंठ धरे पर्वत पर रुक सुस्ताते हैं। (२२) 
 
मदमस्त हुए बगुलों की पंक्ति जब उड़ती है नभ-मंडल में, 
भ्रम होता पंकज पुष्पों की ज्यों माल पड़ी कण्ठाम्बर में। (२३) 
 
इन वीरबहूटी कीटों से धरती का दुशाला चित्रित है, 
 यह लाल हरे रंग का संगम वर्षा ऋतु में अति अद्भुत है!! (२४) 
 
देवता शयन को तत्पर हैं पाकर वर्षा ऋतु की फुहार, 
सरिता सागर की ओर चली, बगुली को घन से हुआ प्यार। (२५) 
 
हरियाली फूटी धरती पर, हैं खेत हरे वन भी हरियल, 
फूले कदम्ब शिखि नृत्य मग्न, गोवंश मुदित है पल-प्रतिपल! (२६) 
 
वर्षा जल से भर गई नदी, गज मस्ती में चिंघाड़ रहे 
नाचे मयूर कूदे बानर, विरही की चिंता कौन करे! (२७) 
 
सुन झरनों का संगीत मधुर, करते मयूर के पग नर्तन, 
केतकी पुष्प की गंधों से गजराज हुए उन्नमत्त-मगन! (२७) 
 
काले-काले जामुन के फल यों लटक रहे हैं वृक्षों से, 
मधुपान कर रहे हों मानो, भँवरे लिपटे इन गुच्छों से। (३०) 
 
करते गंभीर गर्जना जो सज्जित है तड़ित पताका से, 
गजराज रूप लेकर जलधर चल पड़े युद्ध को उत्सुक से। (३१) 
 
नर्तित मयूर गाते भँवरे, मदमस्त गजेंद्र विचरते हैं, 
संगीत-नृत्य-आनंद रसों से पूरित वन को करते हैं! (३३) 
 
पुष्पित कदम्ब-चम्पा के तरु, मधु रस की वर्षा हैं करते 
मधुरस-प्रमत्त नर्तित मयूर मधुशाला ही हैं रच देते। (३४) 
 
चातक की तृषा तृप्त करने सुरपति देते वर्षा का जल
मौक्तिक गोलक सा निर्मल जल एकत्रित होता पत्तों पर। (३५) 
 
वन के संगीत महोत्सव में, अलि की मधुरिम वीणा गूँजी, 
दादुर का कंठ-नाद सुन कर मेघों ने भी मृदंग थपकी, (३६) 
 
मेघों की घोर गर्जना सुन, आहत होकर बौछारों से, 
दादुर-जन ने निद्रा त्यागी, करते हैं नाद तीव्र स्वर से। (३८) 
 
जल से पूरित, पुष्पच्छादित नदियाँ होकर मदमस्त चलीं, 
प्रीतम सागर का संग पाने, वे कूल-किनारे तोड़ चलीं। (३९) 
  
खग निज नीड़ों में चले गए, कमलों ने भी कपाट मूँदे, 
मालती प्रफुल्लित होती है, रवि अस्ताचल की और चले। (५२) 
 
है दुखद बड़ी यह वर्षा ऋतु, मेरी विरहाग्नि भड़कती है, 
रावण पर विजय, सुनो लक्ष्मण, मुझको प्रतीति-सी लगती है॥(५९) 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अकेले ही
|

मराठी कविता: एकटाच मूल कवि: हेमंत गोविंद…

अजनबी औरत
|

सिंध की लेखिका- अतिया दाऊद  हिंदी अनुवाद…

अनुकरण
|

मूल कवि : उत्तम कांबळे डॉ. कोल्हारे दत्ता…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

अनूदित कविता

कविता

ललित निबन्ध

सामाजिक आलेख

दोहे

चिन्तन

सांस्कृतिक कथा

आप-बीती

सांस्कृतिक आलेख

यात्रा-संस्मरण

काम की बात

यात्रा वृत्तांत

स्मृति लेख

लोक कथा

लघुकथा

कविता-ताँका

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं