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बचपन के परिचित पशु

 

इधर कुछ दिनों से पालतू और आवारा दोनों प्रकार के कुत्तों के आतंक के समाचार सुनने-पढ़ने को मिलते रहते हैं। ऐसे समाचारों को पढ़कर मन बहुत खिन्न होता है। ऐसी ही उदासी के बीच यूँ ही मन में ख़्याल आया, आजकल के महानगरीय जीवन में हमारा पशुओं से संपर्क ही समाप्त हो गया है, केवल कुत्ते-बिल्ली पाल लिए जाते हैं और उनके साथ मनुष्यों से भी अधिक शिष्ट व्यवहार किया जाता है और दूसरों से भी ऐसी ही अपेक्षा की जाती है। दूसरे किसी भी पशु से परिचित होने के लिए जंतुशाला या सफ़ारी में ही जाना होता है, या फिर टीवी, सिनेमा, और किताबों से जानकारी ‌मिलती है। 

मैं उत्तर प्रदेश के कई छोटे शहरों में पलकर बड़ी हुई हूँ, जहाँ हम नित्यप्रति ही कई पशुओं से परिचित होते रहते थे या यूँ समझें कि वे हमारे जीवन को अंग थे और उनके साथ कैसा व्यवहार करना है इसका कोई बंधन नहीं होता था। बनैले पशुओं से पंचतंत्र की कहानियाँ परिचित कराती रहती थीं, उस मूर्ख स्त्री की कथा तो शायद चार-पाँच वर्ष की आयु में ही सुन ली थी, जिसने नेवले के मुख पर ख़ून लगा देखकर उसे मार डाला जबकि उस नेवले ने साँप को मारकर उसकी संतान की रक्षा की थी, बिना बिचारे जो करें हो पाते पछताय . . .। घर के पास या गली मोहल्ले में तो नहीं, हाँ हाट-बाज़ार या मेले में कभी साँप और नेवले की लड़ाई का तमाशा भी देखा है। 

गर्मियों की छुट्टी में ननिहाल या अपने पैतृक गाँव में जाने पर कभी साँझ को सियार की ‘हुआँ-हुआँ’ सुनाई दे तो, मन में नील की नाँद में पड़ा सियार याद आता था और कभी सर्दियों की रात में जब लोमड़ी की ‘हो हो हो हो’ सुनाई दे तो लगता था कि यह दिन में तो कौवे की रोटी की ताक में पेड़ के नीचे बैठी रही होगी, और अब उसे फिर भूख लगी होगी। हमारी बाल-मन की जिज्ञासा को शांत करती हुई मेरी नानी अवधी बोली में कहतीं, “लोखड़िया जड़ाति बाय, कहति बाय/होयदे बिहान नई बिल खोदौं हो हो हो हो हो, ओकरे लगे घर नाहीं न बाय!” (लोमड़ी को सर्दी लग रही है, वह कह रही है कि सुबह होने दो अपने लिए नई बिल खोदूँगी हो हो हो क्योंकि उसके पास घर नहीं है न!)” 

उन दिनों छोटे शहरों में बहुमंज़िली इमारतों का चलन नहीं था! अधिकांश लोग ‘घरों’ में रहते थे और आसपास खुली ज़मीन पर अहाता होता था। कई लोग गाय पालते थे! कुछ गाँधीवादी लोग बकरियाँ भी पाल लेते थे। बकरी के बच्चे जब छोटे होते तो उन्हें गोद में लेना, उनकी पीठ के नरम बालों को सहलाना बहुत अच्छा लगता था। गाय के बच्चों (बछड़े, बछिया) को छू पाना बहुत कठिन होता था क्योंकि वे आकार में बड़े और बहुत अधिक चंचल होते थे। उनसे लात खा जाने का भी ख़तरा रहता था, लेकिन मेमने को यदि ज़मीन पर लिटा कर उसके कान पर एक कंकड़ रख दें तो वह उठ भी नहीं पाता था! यह खेल हमें उन दिनों बहुत प्रिय लगता था! गाय को रोटी खिलाने और तीज-त्योहार के दिन गाय का गोबर लाने के लिए तो अक़्सर ही गाय के पास जाना ही पड़ता था। कभी-कभी गाय का दूध निकलते हुए भी देखने को मिलता था। तब बाल्टी में गिरती हुई दूध की तीखी धार से उठने निकलने वाली घूँ-घूँ की ध्वनि और उठता हुआ झाग किसी जादू से कम रोचक नहीं लगता था। गाय का दूध दुहने के समय की बदलती ध्वनियों के बारे में तो एक पहेली भी अक़्सर हम बूझते थे, “पहिले सुर सुर, फिर घुर घुर फिर, घामरूँ, फिर घूs s s!” 

कभी-कभी भालू वाला भी आता था गली-मुहल्ले में, भालू का नाच दिखाने। पंचतंत्र की कहानियों में भालू के बारे में पढ़ने के बाद उसे देखने की उत्सुकता बहुत अधिक रहती थी। मदारी (भालू वाले को इसी नाम से पुकारते थे) के पास एक बड़ा भालू, ख़ूब झबरीला, एकदम काला, बँधे मुँह वाला होता था। वह मदारी के कहने पर पिछले दो पैरों पर खड़ा हो जाता और दोनों हाथों से अपना पेट थपथपाता और कभी-कभी, एक लाठी जिसके दोनों किनारों पर घुँघरू लगे होते, अपने अगले दोनों पंजों में पकड़कर, कंधे पर रखकर चलता, तो उसके चारों पैरों में बँधे घुँघरू ख़ूब बजते थे। भालू वाला साल में एक-दो बार से अधिक नहीं आता था, लेकिन जब आता था तो उसका खेल हम ज़रूर देखते थे। भालू के पास जाने में डर भी लगता था, दूर से ही नाच देखते और फिर एक-आध सिक्का उसकी तरफ़ उछाल कर भाग आते थे। कई बार तो यह भी देखा कि कोई महिला अपने छोटे बच्चे को लेकर भालू की परिक्रमा कर रही है, तब ज्ञान मिला कि ऐसा करने से छोटे बच्चों की नज़र उतर जाती है, अब तो शायद बच्चों को नज़र भी नहीं लगती और न ही कभी गलियों में भालू के पैरों के घुँघरुओं की आवाज़ ही‌ सुनाई देती है। 

हाट-बाज़ार घूमने जाने पर कभी-कभी कोई सजा-सजाया बैल भी दिखाई पड़ता, जिसके साथ एक साधु जैसा लगने वाला व्यक्ति होता जो उसे ‘शिव जी का नंदी’ कहता। लोग उस बैल को प्रणाम कर कुछ पैसे साधु को देते या बैल को फल-मिठाई खिलाते। बैल सिर हिला कर उन्हें आशीर्वाद देता था। 

कभी-कभी अचानक घंटे की गहरी गंभीर आवाज़ कानों में पड़ती। हम सब दौड़कर बाहर सड़क पर आ जाते क्योंकि यह हाथी के गले में लटके घंटे की आवाज़ होती थी। किसी मंदिर का या किसी सर्कस का पुराना हाथी कभी-कभार सड़कों पर महावत के साथ शान से चलता हुआ जाता। इसे भी लोग प्रणाम करके केले खिलाते या फिर ‘गणेश जी’ समझ कर, उस पर पैसे लुटाते थे। 

हमारे घर के आस-पास तो कभी नहीं, लेकिन मेले-बाज़ार में कभी-कभार साँप और नेवले की लड़ाई भी देखने को मिलती थी, साँप को तो सँपेरा डलिया में बंद करके रखता था और नेवले को थैले में। लेकिन वह नेवला साँप से लड़ाई करने के बाद किसी झाड़ी में जाता और फिर लौटकर साँप से लड़ाई करता। सँपेरा नेवले को प्रशिक्षित कैसे करता होगा, कि वह झाड़ियों में जाकर फिर वापस आ जाए, यह आज तक मेरी समझ में नहीं आया!! 

घोड़ा नामक पशु से केवल इतना परिचय था कि वह इक्के या ताँगे में जोता जाता है, घोड़े की सवारी केवल कहानियों और सिनेमा के पर्दे पर ही देखी थी। इन सवारियों पर बैठकर घर से स्टेशन या सिनेमा देखने जाते तो घोड़े की टापों का स्वर और उसी लय पर शरीर का हिलना, उछलना बहुत आनंदायक होता था! 

ताँगा ऐसी सवारी होती थी, जिसमें घोड़े की तरफ़ पीठ करके पिछली सीट पर बड़े लोग बैठे थे। हम बच्चों को ताँगे वाले की तरफ़ बैठाया जाता था, जहाँ कभी-कभी घोड़ा, ताँगे वाले की चाबुक की हल्की मार खाकर अपनी पूँछ से हमारे चेहरे पर गुदगुदी-सी कर देता था या फिर उसकी अपान वायु की दुर्गंध भी सूँघनी पड़ जाती थी, हालाँकि ताँगेवाला अधिकांश समय घोड़े को दुलारता-पुचकारता ही रहता था, चाबुक शायद ही कभी मारता हो। नाश्ते में सुबह कई बार अंकुरित हुए चने खाने होते थे और इसको खिलाने से पहले माता-पिता घोड़े का उदाहरण ज़रूर देते: 

“रोज़ भिगोए चने चबाता
इसीलिए मेहनत कर पाता
 तुम भी भीगे चने चबाओ
 तो हट्टे-कट्टे हो जाओ”

घरों के आसपास सूअर और गधे भी खुले मैदानों में चरने के लिए छोड़ दिए जाते थे। आसपास कोई रखवाली के लिए जब नहीं होता था, तो गधे के पिछले दोनों पैर आठ-दस इंच की दूरी देकर, आपस में बाँध दिए जाते थे। गधे का उपयोग कुम्हार और धोबी विशेष रूप से करते थे, कुम्हार सुराही और घड़े, बेचने के लिए, अपना सामान गधों पर ही लादकर गलियों-मोहल्लों में घूमते थे। धोबी तो कपड़े के गट्ठर इसी पशु पर लादकर धोने के लिए तालाब या नदी पर ले जाते थे। उन दिनों तालाब अपनी प्राकृतिक अवस्था में मिलते थे। उन्हें पाट कर, उन पर इमारतें नहीं बनी थीं और न ही नदियाँ इतनी प्रदूषित हुई थीं कि उनमें नहाना और कपड़े धोना सम्भव ही न हो। धुले वस्त्र उन पर लाद कर वापस भी लाए जाते थे। 

धोबी के कुत्ते और गधे की कहानी तो हर भारतीय ने, “जिसका काम उसी को साजे, और करे तो ड़ंड़ बाजे” सुनी या पढ़ी होगी ही। 

जिस क्षेत्र में मेरा बचपन बीत रहा था, वहाँ कुत्ते पालना आज की तरह आदरणीय दृष्टि से नहीं देखा जाता था। कुत्ते पालने वाले लोगों को सामान्य जनता “काले अँग्रेज़” ही समझती थी! आवारा कुत्ते कभी-कभी घर में घुस आते थे, उनका घर में घुसना अवांछनीय होता था, क्यों कि वह विष्ठा भक्षी अपवित्र पशु माना जाता था, उनको तो भोजन के बाद बची हुई जूठन, बाहर ही डाल कर खिलाई जाती थी। मेरे पितामह भोजन से पहले ही गाय के लिए गो-ग्रास और बाद में कुत्ते का कौरा अवश्य अलग रखते थे। 

कुत्तों को अपने‌ से दूर भगाने के लिए ‘दुर-दुर’ शब्द का प्रयोग होता था। अब ‘दुत्कारना’ शब्द से ‘दुर-दुर’ निकला या कुत्ते को ‘दुर-दुर’ कहने के कारण 'दुत्कारना' शब्द की उत्पत्ति हुई, यह विचारणीय विषय हो सकता है। कुत्ता घर में ना घुस आए इसलिए घर का मुख्य द्वार हमेशा बंद रखना पड़ता था। 

बिल्ली भी घर में घुस आने वाली पशु होती है, परन्तु वह कुत्ते की तरह सरेआम घर में घुसने का साहस नहीं करती बल्कि चुपके-चुपके घर में आती है। उसके लिए घर का द्वार बंद करना तनिक भी उपयोगी नहीं होता था क्योंकि वह तो आँगन में कूद कर, छत की मुँडेर पर चलती हुई खिड़की की चौड़ी सलाखों के बीच में से भी घर में घुस आती और जब कोई बरतन खड़कता तब भान होता कि घर में बिल्ली घुस आई है, और रसोई में कुछ खाने की चीज़ ढूँढ़ रही है। दूध, घी, मलाई‌, मक्खन को रखने में थोड़ी-सी चूक हुई नहीं कि उसके पौ बारह। बिल्ली को भगाने के लिए ‘बिल-बिल-बिल’ कहकर दौड़ना पड़ता था! माँ से एकाध बार प्रश्न भी किया कि यदि ‘दुर-दुर-दुर’ करके बोलूँगी तो क्या बिल्ली घर से बाहर नहीं जाएगी? परन्तु उत्तर में केवल माँ की आग्नेय दृष्टि और गाल पर एक चपत ही मिलती थी। मित्रों से यह भी ज्ञान मिला था कि बिल्ली खिड़की पर खड़ी होकर सलाखों के बीच की दूरी को अपनी मूँछों से नापती है, यदि मूछें उसमें घुस सकती हैं तो पूरी बिल्ली उसमें से आरपार चली जाती है। बचपन में बिल्ली से तो हर रोज़ ही दुआ सलाम हो जाती थी पर अब महानगरों में बिल्ली दिखाई ही नहीं पड़ती।, शायद ‘रास्ता काटते-काटते’ वे यातायात के साधनों से दबकर समाप्त हो गई हैं! 

हमने बचपन से ही इक्का-दुक्का बंदर घर की छत और मुँडेर या आसपास के पेड़ों और बग़ीचों पर में देखे हैं। कभी-कभी यह शैतान छत पर सूख रहे कपड़े उठाकर भाग जाते तब इन्हें कोई फल दिखाकर ललचाया जाता और फल के लालच में वे कपड़ा छोड़कर फल की ओर लपकते। उनकी इस समझदारी के कारण बंदर के प्रति मन में आकर्षण अवश्य बना रहता था। पढ़ाई करते, खेलते या कभी-कभी तो भोजन करते भी यदि डमरू की आवाज़ सुनाई पड़ जाए तो सब कुछ छोड़-छाड़ कर उस स्वर की ओर दौड़ना आवश्यक हो जाता था क्योंकि यह मदारी के डमरू की आवाज़ होती थी, जो बंदर का नाच दिखाता था। बालपन में पिता के स्थानांतरण के कारण कई शहरों में रहना हुआ परन्तु बंदरों की नृत्य-नाटिका की विषय वस्तु एक ही रही। लहँगा-कुर्ती पहने बंदरिया को बंदर अपने घुँघरू लगे फटे बाँस के डंडे से झूठमूठ, इधर-उधर, पकड़ पटक कर बंदरिया को मारने का नाटक करता, फिर बंदरिया रूठ कर मायके चली जाती। बंदर एक अँगोछा कंधे पर रख और अपना डंडा लेकर ससुराल जाता, बंदरिया को मनाने। थोड़ी मान-मनौवल के बाद बंदर आगे-आगे कांधे पर लाठी रखे हुए और बंदरिया पीछे-पीछे लहँगा कुर्ती पहने और चुन्नी सिर पर लिए हुए अपने घर वापस आ जाते। फिर मदारी कहता ‘यह सब पेट के लिए किया है, मालिक’ और बंदर ज़मीन पर कलइयाँ मार-मार कर घेरे में घूमता और सब लोग मदारी के बिछे हुए अँगोछे पर पैसा डाल कर खेल की फ़ीस चुका देते थे। 

जैसे बंदर का नाच देखना स्मृतियों में अमिट है, वैसे ही बंदर से जुड़ी एक घटना भी मुझे कभी नहीं भूलती, मैं नवीं कक्षा में पढ़ती थी, स्कूल जाने के लिए रेलवे लाइन को पार करने वाले पुल से होकर स्कूल पहुँचना होता था। मेरी एक छोटी बहन और एक छोटा भाई भी मेरे साथ उसी पुल से उस पार जाते थे हालाँकि उनका विद्यालय दूसरा था, परन्तु मार्ग वही। 

एक दिन जब हम तीनों पुल से होकर रेल की पटरियों के पार जा रहे थे तब एक बंदर पुल की रेलिंग पर आकर बैठ गया जो हमें देखकर दाँत दिखा-दिखा कर डराने लगा। हम तीनों भाई-बहन डर के मारे ठिठक कर रुक गए। जब तक हम खड़े रहते, बंदर अपना सिर इधर-उधर घुमा कर आसपास का जायज़ा लेता रहता, लेकिन जैसे ही आगे क़दम बढ़ाते, वह लाल मसूड़े में लगे पीले-सफ़ेद बड़े-बड़े दाँत दिखा कर हमें खों खों करके डराता, उसकी बंदर घुड़की से डरकर हम पीछे हट जाते। कई मिनटों तक यही तमाशा चलता रहा। प्रार्थना के समय तक विद्यालय ना पहुँचने पर गेट के बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती थी और विलंब शुल्क में नाम लिखे जाने के बाद ही विद्यालय में प्रवेश मिलता था। यह सब सोचकर मेरी दशा ख़राब हो रही थी। फिर जब एक बार बंदर निश्चिंत होकर इधर-उधर देख रहा था, मैंने चुपके से अपने क़दम आगे बढ़ाए और बंदर की दृष्टि से बाहर निकल गई। दुर्भाग्य से मेरे अनुज ऐसा न कर पाए तब तक बंदर उन्हें फिर घुड़की देने लगा। मन में यह सोच कर कि मैं तो बड़ी कक्षा में पढ़ती हूँ, मैं विद्यालय नहीं छोड़ सकती, आगे निकल गई। भाई-बहन तो घर वापस जा सकते हैं, यह सोचकर मैं मन ही मन अपराध मुक्त भी हो गई! उस समय तो मैं स्कूल चली गई परन्तु दिन भर मन आशंकित होता रहा कि पता नहीं मेरी बहन और मेरे भाई का क्या हाल हुआ होगा? वे विद्यालय पहुँच पाए या नहीं ? दोनों में से किसी को बंदर ने तो नहीं काट लिया? या फिर उनकी सहायता किसने की होगी? घर पर टेलीफोन भी नहीं था कि मन की शान्ति के लिए उनका हाल जान पाती। विद्यालय की छुट्टी होने तक भी मन अशांत और उलझन में ही रहा। 

शाम को जब घर पर मिले तब मालूम हुआ कि मेरे जाने के कुछ समय बाद ही उन दोनों के गुरुजी उसी पुल से विद्यालय जा रहे थे, उनके पास छड़ी थी। वही मेरी बहन और भाई को अपने साथ ले गए। 

यदि मैं इस घटना को भूलना भी चाहूँ तो वे दोनों, मेरी बहन और भाई मुझे कभी नहीं भूलने देते। उनका मानना है कि संकट के समय में मैंने अग्रजा होने का कर्त्तव्य नहीं निभाया शायद उनका कहना उचित भी हो! लेकिन अब तो इस बात को दशाब्दियाँ बीत गई हैं, परन्तु बचपन के एक परिचित पशु के कारण मैं कर्त्तव्य-च्युत हुई, यह बात न तो मैं भूल सकती हूँ और न मेरी छोटी बहन और भाई। 

आज के युग में महानगरों में बड़े होते बच्चे शायद इससे बहुत अधिक पशुओं के नामों से परिचित होंगे परन्तु दैनिक जीवन में तो इतने पशुओं से पाला पड़ना अब असंभव ही लगता है। हम डिजिटल युग में जी रहे हैं न! 

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