अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

वडोदरा में एक दिन

 

गृहस्थ जीवन के सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूरा कर लेने के बाद वानप्रस्थ जीवन का आरंभ होता है। वानप्रस्थ का अर्थ है-वन में अपना निवास बना लेना! तथाकथित विकास और आधुनिकता के चलते वैदिक-सनातन काल के वनों का रूप बदलता जा रहा है। किसी समय गाँव-नगर, आबादी से दूर, एकाकी स्थान पर रहना वानप्रस्थ रहा होगा, अब तो वृक्ष-संकुल वनों का स्थान ऊँची अट्टालिकाओं वाले महानगरों ने ले लिया है। अब हम पति-पत्नी अपना निवास छोड़कर समय-समय पर ‘वानप्रस्थ’ का अनुभव करने के लिए देशाटन के लिए चले जाते हैं, जहाँ हमें कोई नहींं पहचानता, यह स्थान ‘वन’ तो नहीं होता, कई बार ‘कांक्रीट जंगल’ ज़रूर होता है। ऐसे ही देशाटन के समय हमारा गुजरात के बड़ौदा शहर में जाना हुआ। इस नगर में तेल एवं प्राकृतिक गैस आयोग लिमिटेड का बड़ा कार्यालय है और मेरे पति ने इसी संस्था में काम किया था। यहाँ वे तो कई बार आ चुके थे परन्तु मैंने यह नगर कभी नहींं देखा था। 

बड़ौदा (नया नाम वडोदरा) गुजरात का तीसरा सबसे बड़ा शहर है। यह मराठा शासकों की गायकवाड़ शाखा की राजधानी रहा है, ई. सन्‌ 1721 से भारत की स्वतंत्रता ई.सन्‌1947 तक। 

हमारे पास यहाँ लिए केवल एक दिन का समय था। हमने पावागढ़ का कालिका शक्तिपीठ, लक्ष्मी विलास महल और चंपानेर का क़िला देखने का कार्यक्रम बनाया था। हमने इस शहर में सड़क मार्ग से प्रवेश किया, समय था संध्या। काम से वापस अपने नीड़ों को लौटने वाले लोगों की भीड़ सड़कों पर थी। दिल्ली में जहाँ मैं रहती हूँ, वहाँ ऐसे समय में सड़क पर दूर-दूर तक कारों की क़तारें दिखाई देती हैं और उनके बीच से टेढ़े-मेढ़े चलकर अपना रास्ता बनाते हुए दुपहिया वाहन दिखाई देते हैं। यहाँ तो दुपहिया वाहनों की ही बहुलता थी, कारें तो बीच-बीच से निकल नहीं सकतीं और दोपहिया एक दूसरे का रास्ता काटते हुए निकालने की हिम्मत भला कैसे करते, इसलिए सिग्नलों पर भी अपेक्षाकृत शान्ति और अनुशासन दिखाई दिया, यह स्थिति मुझे बहुत अच्छी लगी, विचार करने लगी कि चार पहिया वाहन, जो आजकल प्रतिष्ठा और संपन्नता का पर्याय है, के स्थान पर इस संपन्न प्रदेश में दुपहिया वाहनों की लोकप्रियता का क्या कारण हो सकता है? तीव्र गति, गुजराती मितव्ययिता या फिर नगर की आर्थिक दशा? 

जब हम पहले से आरक्षित किए गए होटल में पहुँचे तो बड़ा झटका लगा कि हमारे लिए कमरा ही नहीं है, और हमारा आरक्षण वैध नहींं है, क्योंकि हमने किराए की राशि का अग्रिम भुगतान नहीं किया था। 

हुआ यह था कि जिस बुकिंग.कॉम (booking.com) से हमने आरक्षण करवाया था, उसने हमसे पैसे की माँग कभी की ही नहीं थी। बस सूचना भेज दी ‘योर रिज़र्वेशन इज़ कंफर्म्ड’ अब भला इसमें हमारा क्या दोष था? होटल का नियम बताया गया की 40% की राशि का भुगतान किए बिना आरक्षण वैध नहीं होता। बात उनकी भी ठीक ही थी परन्तु बुकिंग.कॉम (booking.com) द्वारा भेजा गया संदेश दिखाने पर होटल वाले ने हमें सुझाव दिया कि बहुत नज़दीक ही दूसरा होटल है, जिसमें हमें जगह मिल सकती है। सचमुच वहाँ जाने पर आराम से अच्छा कमरा मिल गया, साथ ही यह सीख भी की ऑनलाइन बुकिंग करते समय और अधिक सजगता-सतर्कता की आवश्यकता है। 

अगली सुबह हमने दिन भर के लिए सवारी ले ली। दिन भर का अर्थ था 8 घंटे। हमें लगा कि 9:30 से 5:30 के बीच में हम अपनी योजनानुसार तीनों जगह देख पाएँगे। पावागढ़ का शक्तिपीठ बड़ौदा से 50 किलोमीटर की दूरी पर एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित है यहाँ सती के दाहिने पैर की उँगलियाँ गिरी थी। लगभग सवा घंटे में हम वहाँ पहुँच गए। रास्ते में ही पावागढ़ से कुछ पहले चंपानेर का क़िला है, विचार यह था कि देवी दर्शन के बाद हम यहाँ रुक कर क़िला देखेंगे। 

देवी के मंदिर में पति की विशेष रुचि इसलिए थी कि वह 25 वर्ष पूर्व इस मंदिर के दर्शन कर चुके थे और अब मोदी जी की पहल से उसके जीर्णोद्धार के बाद उसे फिर से देखना चाहते थे, अपने साथ की इस ‘देवी’ के साथ! मंदिर के पास पहुँचने से पहले ही सड़क के दोनों और कारों की क़तारें देख, भीड़ की आशंका सोचकर हम घबरा गए। 1 किलोमीटर पहले से ही कारें सड़क के दोनों और खड़ी थीं, बाप रे! ख़ैर धीरे-धीरे गाड़ी को मंदिर के पास तक हमारे सारथी श्री के डी भाई ले ही आए। इतनी अधिक गहमागहमी और हलचल देखकर मैंने मन ही मन गणना करके अनुमान लगाया कि हो ना हो आज कोई ऐसा पर्व है जिस पर देवी के दर्शन की विशेष महत्ता होगी। मेरा अनुमान सही निकला अष्टमी की तिथि जो थी, जो ऐसे दर्शन के लिए अत्यंत उत्तम मानी जाती है। 

मंदिर तक जाने के लिए 1800 सीढ़ियों का पैदल रास्ता है और दूसरा रोपवे (हिंडोले) से जाने का मार्ग! 1800 सीढ़ियाँ चढ़ने की तो अब हिम्मत रही न थी, तो हम हिंडोले की सवारी की पंक्ति में खड़े हो गए! हिंडोल की सवारी के लिए हमारा नंबर आने तक 2 घंटे प्रतीक्षा करनी पड़ी! जब हिंडोले से उतरे तो वहाँ से भी मंदिर का शिखर काफ़ी ऊँचाई पर दिखाई पड़ रहा था, मेरे तो होश ही उड़ गए कि अभी इतनी ऊपर और जाना पड़ेगा। पति ने ढ़ाढ़स बँधाया, “अरे बस मंदिर तो आ ही गया है, आगे बढ़ो!” 8-10 सीढ़ियों के बाद सुंदर कॉरिडोर में हम पहुँच गए। दोनों और पूजन सामग्री की दुकानें, खाने-पीने की दुकान, लाल-लाल चुनरियों की दुकानें, गहनों की दुकानें, गोटे-शीशे से जगमगाते अचकन-लहँगे की दुकानें, साफ़-सुथरा रास्ता देखकर मन तृप्त हो रहा था, हम आगे बढ़ते रहे और यह लो! फिर से सीढ़ियाँ शुरू हो गईं, 2-10-50-331 सीढ़ियाँ चढ़ने पर मंदिर के द्वार पर हम पहुँच गए। परन्तु यह क्या? यह तो पार्श्वनाथ जी का जैन मंदिर था, देवी का मंदिर तो और ऊपर है। मंदिर के पास ही एक सुंदर सरोवर है जहाँ कुछ श्रद्धालु स्नान कर रहे थे। 125 सीढ़ियाँ और चढ़ने के बाद कालिका माता के मंदिर के द्वार पर आख़िर हम पहुँच भी गए। मंदिर का मंडप बहुत सुंदर है और दक्षिण भारतीय स्थापत्य से बना है। यह देवालय क्योंकि यह एक शिखर पर है अतः परिसर बहुत बड़ा नहीं है। कहा जाता है कि यहाँ सती के दाहिने पैर की उँगलियाँ गिरी थीं और इसी शिखर पर विश्वामित्र ने तपस्या की थी। तपस्या से प्रसन्न होकर देवी ने उन्हें दर्शन दिए थे। इन्हीं पहाड़ी सरोवरों से ‘विश्वामित्री’ नदी निकलती है, जिसके तट पर बड़ौदा शहर बसा है। कालिका माँ का मुख मंडल स्वर्णिम है और आँखें बड़ी-बड़ी!! दर्शन करके सचमुच हृदय तृप्त हो गया, सूजी की बर्फ़ी हमें प्रसाद में मिली! 

मंदिर में दर्शन के बाद नीचे जाने से पहले मुझे शौचालय जाने की आवश्यकता थी। थोड़ा नीचे जो सरोवर है वहाँ स्नान के लिए घाट बने हैं। शौचालय का संकेत देखते हुए हम उधर पहुँच गए परन्तु जहाँ पहुँचे वहाँ बताया गया कि वह बंद है और दूसरे स्थान पर जाना होगा। पूछते-पूछते जब हम दूसरे शौचालय के स्थान पर पहुँचे तो वहाँ भी महिला शौचालय बंद पाया। पुरुष शौचालय केवल वे स्त्रियों प्रयोग कर सकती थीं जो पुरुष यात्रियों के साथ हों। प्रयोग करने का शुल्क भी देना था। 

ऐसा प्रधानमंत्री जिसने देश को ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’, ‘हर घर शौचालय’, ‘स्वच्छ भारत स्वस्थ भारत’ जैसे नारे दिए हों, उसके अपने राज्य में स्त्री शौचायलयों की यह शोचनीय अवस्था देख हृदय पीड़ा से भर गया। यह स्थिति तो तीर्थ स्थल पर थी, इससे मन और अधिक विचलित हो गया था। मैंने अपने मन को समझाया कि शायद आसपास कहीं और किसी और स्थान पर यह सुविधा अवश्य उपलब्ध होगी, सच्चाई क्या है, मालूम नहीं। 

मंदिर से नीचे आते-आते अढ़ाई बज गए थे। हमारे कार्यक्रम के अनुसार क़िला और लक्ष्मी विलास पैलेस देखना बाक़ी थे, 50 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी और 5:30 बजे टैक्सी भी छोड़ देनी थी। 

हमने चंपानेर का क़िला न देखने का सोच लिया। बस गूगल गुरु से बनवाने वाले राजा वनराज चावड़ा का नाम जान लिया, जिसने कालिका माता के चरणों में रहने के लिए, इस क़िले का निर्माण करवाया और पावागढ़ नगर को बसाया। क़िले का नाम अपने परम मित्र और सेनापति चांपाराज के नाम के कारण चंपानेर क़िला रख दिया। साथ ही उस आताताई मुग़ल शासक का भी नाम जाना, जिसने क़िले पर आक्रमण करके उसे तो जीता ही साथ ही साथ कालिका मंदिर को भी नष्ट कर दिया। पावागढ़ के तत्कालीन शासक रावल ने मोहम्मद खिलजी से सहायता माँगी, लेकिन खिलजी के सलाहकारों ने उसे समझा दिया कि काफ़िरों की मदद कभी करनी ही नहीं चाहिए और चंपानेर का क़िला शहर और देवी का मंदिर मुस्लिम आतताइयों की पाशविक शक्ति का शिकार हो गया। 

इस इतिहास के साथ-साथ हमारे सारथी ने यह भी बताने में देर नहीं लगाई कि इसी क़िले के आसपास ‘लगान’ फ़िल्म की शूटिंग हुई थी। क़िला फिर कभी देखने का सोच कर हम आगे बढ़ गए। 

जब हम बड़ोदरा पहुँचे तो उस समय 4:00 बज रहे थे। लक्ष्मी विलास पैलेस में प्रवेश कर पाने में केवल एक ही घंटा शेष था। जल्दी से एंट्री टिकट लिए। यहाँ भी आभासी या फिर डिजिटल भुगतान के कारण एक समस्या आ गई, हालाँकि निवारण तो तुरंत हो गया, बिना किसी हानि के परन्तु समस्या तो आई न, हुआ यूँ कि प्रवेश शुल्क की राशि का भुगतान ₹500, मेरे पति ने फोन से किया। मशीन पर कोड टाइप करने से पहले महल के कर्मचारियों ने राशि भरकर मशीन कोड डालने के लिए हमारी ओर कर दी। भुगतान करके हम अभी मुड़े ही थे और जल्दी से जल्दी महल में प्रवेश कर लेना चाहते थे क्योंकि हमारे पास समय कम था। झटपट क़दम बढ़ाते अभी हम चार क़दम ही बमुश्किल चले होंगे कि पीछे से ‘सर, सर, सुनिए तो ज़रा” की तेज़ आवाज़ सुनाई देने लगी। पीछे मुड़कर देखा तो काउंटर का कर्मचारी हमें ही बुला रहा था। जब हम खिड़की पर पहुँचे तो क्षमा याचना करते हुए, अत्यंत दुखी और लज्जित होते हुए उसने बताया कि उसने ग़लती से ₹500 के बदले ₹5000 रसीद में भर लिए थे और हमारे खाते से ₹5000 उसके खाते में पहुँच गए थे। ग़लती से उसने 5 के पीछे दो के बजाय तीन शून्य लगा दिए थे। कुछ औपचारिकताएँ पूरी करके उन्होंने हमें 4500 रुपए लौटा दिए! इस डिजिटल लेनदेन के युग में नक़द पैसे लेकर यात्रा करने की आवश्यकता नहीं रह गई है। कम पैसे लेकर यात्रा करने के कारण आप अपने को अधिक सुरक्षित भी समझते हैं, लेकिन अब यहाँ से नगद रुपया लेकर चलना हमारी ज़िम्मेवारी थी। यह तो ग़नीमत हुई कि कर्मचारियों को ही भूल का एहसास हो गया था और मामला रफा-दफ़ा हो गया वरना जब कभी हमको इस बात का पता चलता तो रुपए वापस पाने में हमें न जाने और क्या-क्या औपचारिकताएँ करनी पड़तीं, कितना समय लगता कुछ मालूम नहीं। कमाई शायद ख़ून-पसीने की थी, इसीलिए बिना श्रम के बच गई। 

यह सब हो जाने के बाद हम महल देखने पहुँच गए यहाँ एक श्रव्य दिग्दर्शन यंत्र! (ऑडियो गाइड) हमें दिया गया और उसे उपयोग का तरीक़ा भी समझा दिया गया। 

यह महल सयाजीराव गायकवाड़ ने अपनी प्रिय पत्नी लक्ष्मी बाई के लिए बनवाया था। अपने समय में यह महल निजी आवास के लिए प्रयोग किया जाने वाला विश्व का सबसे बड़ा निवास स्थल था। 

यह महल राजस्थानी, दक्षिण भारतीय और यूरोपीय स्थापत्य शैलियों का मिला-जुला अत्यंत सुंदर नमूना है। बाहर के खुले मैदान में रोमन शैली की मूर्तियाँ और फव्वारे बने हैं। ऑडियो गाइड से आपको मूर्तिकार का भी परिचय मालूम हो जाता है और मूर्ति का भी। महल की ड्यौढ़ी अत्यंत कलात्मक है, ऊँचे-ऊँचे खंबों पर टिका हुआ महल सचमुच “सपनों का महल” लगता है! 

महल की ड्योढ़ी, मेहमानों से मिलने का कमरा, हथियार कक्ष, राजा का हाथी पर सवारी करने का आँगन, राजगद्दी का कक्ष और मेहमानों के साथ भोजन करने का कक्ष ही अगन्तुकों को दिखलाए जाते हैं। महल का रनिवास का भाग आज भी राजपरिवार के निजी प्रयोग में आता है, अतः वहाँ आप नहीं जा सकते और न ही बड़ी-बड़ी सभायें आयोजित किए जाने वाले कक्ष में आपको प्रवेश मिलता है। कुल मिलाकर 10 जगह आप देख सकते हैं। महल में जगह-जगह राजा रवि वर्मा के बनाए हुए चित्र और देश-विदेश के प्रसिद्ध मूर्तिकारों की अनुपम कलात्मक, सुंदर मूर्तियाँ लगी हुई है। 

1 घंटे में यह सैर पूरी हो गई। महल के साथ ही म्यूज़ियम भी है। उसके लिए अलग टिकट लेना पड़ता है परन्तु समयाभाव के कारण हमने म्यूज़ियम देखने का विचार भी अपने मन में आने न दिया था। 

इस महल के मुख्य शिल्पकार मेजर चार्ल्स मॉन्ट थे। जब नींव के बाद महल के खंभे बन तक चुके, तब न जाने क्यों सहसा मेजर मॉन्ट को लगा कि उनकी गणना सही नहीं है। शायद इस महल में उतनी मज़बूती नहीं आ पाएगी, जितना की राजा साहब और वह स्वयं चाहते थे। इस सदमे और चिंता के कारण उनका कुछ ही समय में देहांत हो गया। परन्तु उनके द्वारा कल्पित भवन आज 200 वर्षों के बाद भी उसी सुंदरता और स्थायित्व के साथ खड़ा है और लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। 

“सैयाजी राव” (III) गायकवाड़ की प्रिय पत्नी कभी माँ नहीं बन पाईं। उन्होंने एक पुत्र को गोद लिया और आज तक इस दत्तक पुत्र के वंशज गायकवाड़ घराने के राजा की उपाधि पाते हैं। एक ओर शाहजहाँ की पत्नी मुमताज़ महल उनके प्यार की चौदहवीं निशानी को जन्म देते हुए मर गई, जिसकी याद में शाहजहाँ ने उसकी मृत्यु के बाद जो ताजमहल बनवाया, वह विश्व भर में प्यार की निशानी की मिसाल बन गया और यहाँ निःसंतान रहने वाली अपनी प्रिय पत्नी के आवास के लिए ‘लक्ष्मी विलास पैलेस’ बनवाने वाले राजा का कोई इतिहास भी नहीं जानता!! 

मेरे पाठक विचार करें कि किसका पत्नी प्रेम गहन था!! 

इस तुलना से प्रेम और वासना का अंतर मुझे स्पष्ट दिखाई देता है। 

महल की सैर के बाद हमारे पास टैक्सी रख पाने के कुछ ही मिनट शेष थे, अतः हम अपने होटल वापस पहुँच गए। जहाँ हमें अपना सामान बाँधकर रात में दिल्ली वापस जाने के लिए रेलगाड़ी पकड़नी थी। 

एक दिन गायक वालों की राजधानी में कैसे बीत गया हमें कुछ पता भी ना चला साथ ले जा रहे हैं कुछ स्मृतियाँ . . .

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

अंडमान—देश का गौरव 
|

जमशेदपुर से पाँच घंटे की रेल यात्रा कर हम…

अरुण यह मधुमय देश हमारा
|

इधर कुछ अरसे से मुझे अरुणाचल प्रदेश मे स्थित…

उदीयमान सूरज का देश : जापान 
|

नोट- सुधि पाठक इस यात्रा संस्मरण को पढ़ते…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

वृत्तांत

स्मृति लेख

सांस्कृतिक आलेख

लोक कथा

आप-बीती

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं