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चर्चा चावल की

 

मेरी माता, मेरी नानी की अकेली संतान थीं। मेरे नाना का देहांत, जब मेरी माँ पाँच वर्ष की थी, तभी हो गया था, इसलिए माँ कुछ जल्दी-जल्दी ही अपने मायके और मैं अपने ननिहाल जाया करते थे, जिससे मेरी नानी को कुछ ख़ुशी मिले। उन दिनों मेरी “बुढ़िया नानी” यानी कि मेरे नाना की माता भी जीवित थी। मैं अपनी माता की प्रथम संतान होने के कारण सबका कुछ विशेष ही स्नेह पाती थी। ननिहाल धुर देहात में था, मिट्टी की दीवारें, खपरैल और फूस का मिला-जुला छाजन, रात को हर कोठरी में मिट्टी के तेल की ढिबरी जलाकर उजाला किया जाता, घर के बाहर लालटेन जला दी जाती थी जो ओसारे से लेकर बाहर तक प्रकाश देती। थी। पानी का स्रोत कुआँ था। 

गाँव में उन दिनों साँझ बड़ी जल्दी उतर आती विशेषत: सर्दियों की संध्या तो ख़ूब लंबी होती थी। घरों के आसपास खुले खेत होने के कारण सर्दी भी ख़ूब पड़ती थी। सर्दी की शामों को अपनी प्यारी पनातिन (ग्रेट ग्रैंड डॉटर) यानी मुझे सर्दी से बचाने के लिए में मेरी बुढ़िया नानी मुझे अपनी गोद बैठा लेतीं, स्वयं उस चूल्हे में धीरे-धीरे धान की भूसी, एक संगीतमय अंतराल से, थोड़ा-थोड़ा डालती रहतीं, जिस पर एक बड़े हंडे में धान भर कर ‘भुजिया’ होने के लिए थोड़े से पानी के साथ सीझता था। मैं उनकी इस, नियमित गति और ताल वाली, क्रिया को मंत्र मुग्ध सी देखती रहती। धान को पका कर भुजिया करना एक अत्यन्त कुशलता का कार्य था, जिसमें धान और पानी का अनुपात, आँच की तेज़ी या कमी, और पकने के समय का बहुत सटीक ध्यान रखना होता था। इस काम का ज़िम्मा मेरी बड़ी नानी (वैसे मैं कहती उन्हें बुढ़िया नानी ही थी) का था क्योंकि वे अनुभवी थीं। 

मैं छोटी तो थी लेकिन बाल सुलभ उत्सुकता से प्रश्न करने से नहीं चूकती थी, और मेरे प्रश्नों के उत्तर में नानी ने धीरे-धीरे मुझे समझा दिया था कि यदि धान ज़्यादा गल जाएगा तो वह ‘भात’ बन जाएगा और बेकार हो जाएगा। यदि कम पकेगा तो कूटते समय टूट जाएगा और खुद्दी (टूटे चावल) अधिक निकलेगी, जो मनुष्य के काम तो न आ सकेगी। भुजिया किया हुआ धान घर के आँगन में ही ख़ूब सुखाया जाता क्योंकि वह आँच पर चढ़ चुका है, इसलिए यदि बाहर आते-जाते लोग उसे ‘छू’ लेंगे तो वह ‘अपवित्र’ हो जाएगा। अधिकांश पाठक तो यह जानते ही होंगे कि आज से 50-60 वर्ष पहले बहुत से धार्मिक प्रकृति लोग किसी और के हाथ का पकाया हुआ भोजन नहीं करते थे, यहाँ तक कि यदि भोजन करते समय कोई उन्हें छू भी ले तो वह खाना छोड़ कर उठ जाते थे, मेरे ननिहाल में भी बड़े लोगों का यही हाल था। 

जब धान अच्छी तरह सूख जाता, तब ढेकी या ओखली में कूट कर, सूप से पछोर कर भूसी और चावल के दाने अलग किए जाते। भुजिया चावल देखने में पूरा सफ़ेद नहीं होता था, यह हल्का पीलापन या लाली लिए हुए होता। जब पकाया जाता तब इसका भात भी बहुत नरम नहीं बनता था। 

जो चावल धान को बिना पकाए कूट कर निकलता उसको ‘अरवा’ चावल कहा जाता और उबाल कर सुखाकर निकले चावल को ‘भुजिया’ चावल कहा जाता। परिवार के दैनिक भोजन के लिए भुजिया भात ही बनता परन्तु विशिष्ट मेहमानों के आने पर या फिर बिना दाँत के वृद्धों के लिए अरवा चावल का भात बनता था। खीर बना कर देवता के भोग के लिए भी ‘अरवा’ चावल प्रयोग किया जाता था। प्रेमचंद जी ने ‘सवा सेर आटा’ में गेहूँ के आटे की तो कहानी लिखी लेकिन अरवा चावल की कहानी उन्होंने नहीं लिखी शायद इसलिए कि चावल तो गेहूँ से सदैव अधिक मूल्यवान होता है! 

चावल की क़िस्म के बारे में तो हमने अपनी पाठ्य पुस्तक में ही पढ़ा था कि भारतवर्ष में चावल की इतनी क़िस्में होती है कि यदि एक क़िस्म का एक दाना ही डाला जाए तो भी एक घड़ा भर सकता है। 

कुछ और बड़ा होने पर भुजिया चावल का एक नया नाम मुझे मालूम हुआ ‘सेला’ चावल क्योंकि राशन कार्ड पर सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य पर जो चावल मिलता वह ‘सेला’ ही होता था। 

विवाह के उपरांत, गृहणी बनकर जब पति के साथ मुंबई रहने गई, तब वहाँ मेरी दक्षिण भारतीय मित्र ने इडली बनाने की विधि बताते समय यह कहा कि यदि ‘उसने’ चावल की इडली बनाऊँगी तो अधिक नरम बनेगी। जब मैं बाज़ार में ‘उसने’ चावल की तलाश करनी गई तो मालूम हुआ, अरे! यह तो मेरा जाना पहचाना भुजिया चावल ही है जिसे अंग्रेज़ी भाषा में पार बॉयल्ड राइस कहते हैं। 

‘बिरयानी राइस’ कहकर बेचा जाने वाला चावल भी, लंबे क़िस्म के धान को पका कर ‘भुजिया’ करने के बाद कूटने से ही बनता है। 

अभी पिछले दिनों अपने पुराने शहर देहरादून जाने का अवसर मिला। किसी ज़माने में देहरादून का बासमती विश्व भर में प्रख्यात था। इस नाम के व्यापारिक पेटेंट को लेकर विश्व स्तर पर हमारे देश के साथ किसी अन्य देश की कुछ कहा सुनी भी हुई थी, विस्तार से मुझको अब याद नहीं रह गया है। यहाँ पहुँच कर हम उसी दुकान पर गए, जहाँ से आज से 20-25 वर्ष पहले चावल ख़रीदा करते थे। इस दुकान के बारे में शहर भर में यह प्रसिद्ध था कि यहाँ माजरा (सबसे उत्तम श्रेणी का बासमती धान उगने वाला एक गाँव) का असली बासमती, वहीं के किसानों से ख़रीदकर बेचा जाता है। हमने अपने साथ ले जाने के लिए थोड़ा चावल ख़रीदा। बातों-बातों में मैंने ज़िक्र किया कि अब बासमती में ना तो वह ख़ुश्बू रही, न वह नर्मी, लंबाई ज़रूर कुछ बढ़ गई है। दुकानदार ने बताया कि ख़ुश्बू तो इसलिए ख़त्म हो गई कि अब गोबर की खाद इस्तेमाल नहीं की जाती, केवल रासायनिक खाद खेतों में पड़ती है, तो धरती की स्वाभाविक सुगंध जो चावल में आती थी, वह समाप्त हो गई। जहाँ तक नर्मी का सवाल है अब कोई चावल ऐसा नहीं है जो बिन पके धान से निकालता हो, इसलिए चावल की पहले जैसी स्वाभाविक नर्मी भी ख़त्म हो गई है। मुझे याद आया कि पहले इन्हीं दुकानों पर ‘खंड़ा बासमती’ के नाम से चावल के टूटे दाने बिका करते थे जो कुछ सस्ते हुआ करते थे, स्वाद और सुगंध वही रहती थी। 

अब तो ‘पार बॉयल्ड’ के नाम से सुपर फ़ूड कस कर मेरी बुढ़िया नानी वाला ‘भुजिया’ चावल बेचा जाता है। थर्मामीटर और तापमान के सटीक नियंत्रण के कारण भुजिया करने की तकनीक (पार बॉयलिंग) इतनी विकसित हो गई है कि चावल देखकर शक्ल से यह पता नहीं लग सकता कि यह सिझाए गए धान से निकाला है। 

शीर्षक के अनुसार चावल पर और कई चर्चाएँ करना चाहती थी जैसे—सुदामा के चावल, पूजा में प्रयोग किए जाने वाला अक्षत का चावल, अश्वत्थामा को दूध कहकर पिलाया जाने वाला चावल का माड आदि लेकिन वह सब फिर कभी। 

चलिए आज की चावल चर्चा यहीं पर समाप्त करते हैं। 

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टिप्पणियाँ

Shanno Aggarwal 2025/04/29 08:24 PM

सरोजिनी जी, चावलों के प्रकार पर बहुत मनोरंजक आलेख। कभी-कभी ऐसी ही हल्की-फुल्की बातों पर भी चर्चा करना व पढ़ना अच्छा लगता है। मेरी यादों में भी खुशबूदार बासमती, रहिमन्ना, सर्दी के दिनों में सांठी के चावल जिन्हें लोग लाल चावल भी कहते हैं उनकी यादें ताजा हो गई हैं। एक सवां नाम के चावल भी होते थे जिससे बनी खीर मुझे बहुत अच्छी लगती थी। आजकल तो पता नहीं चावलों के कितने और विदेशी रिश्तेदार भी हो गये हैं। जैसे कि: ब्राउन राइस, पुडिंग राइस, वाइल्ड राइस, थाईलैंड के जासमीन, इटली के अरबोरियो, वेलेंसिया, कारनारोली, बालडो, रोमा, और जापान के सुशी राइस इत्यादि। और हर देश में इनसे बनाई डिशेज के नाम व बनाने की विधि भी अलग है। भारत में सादे चावल, खिचड़ी, तहरी, पुलाव, बिरियानी, खीर, इटली में रिसोटो, स्पेन में पयेला आदि नाम हैं। आलेख साझा करने के लिये धन्यवाद।

लखनलाल पाल 2025/04/28 10:35 PM

आपने ललित निबंध "चर्चा चावल की" के माध्यम से विभिन्न प्रकार के चावलों के साथ अपने अतीत को भी जी लिया है। हमारा अतीत बड़ा ही मनमोहक होता है। जब हम इसकी यात्रा करने बैठते हैं तो उस समय को हम फिर से महसूस कर लेते हैं। नानी, पड़नानी, ढिबरी के उजाले से चमकते घर यह सब बलपूर्वक अपनी ओर खींच लेते हैं। जब हम उस समय से आज को तौलते है तो आश्चर्यचकित हुए नहीं रह पाते हैं। निबंध की अपेक्षा मैं इसे संस्मरण के अधिक नजदीक पाता हूं। बढ़िया रचना के लिए बधाई आपको।

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