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बसंत से पावस तक

 

इस धरा पर वसंत की ऋतु आने पर, 
कामदेव की तरकश से निकले तीरों के आघात पाकर, 
शिशिर-हेमंत का अलसाया सूर्य, 
नवजीवन पता है, 
अंग-अंग में उसके काम का उन्माद व्याप जाता है, 
 
धरती की ओर अब वह प्रेमोष्मित दृष्टि से ताकता है, 
अपनी प्रिया वसुधा को थाल भर-भर 
उपहार भिजवाता है—
गुलमोहर का लाल सिंदूर 
सेमल-टेसू की लाल चूनर
अमलतास के स्वर्णिम झूमर, झुमके 
कण्ठहार हौले-हौले हर ओर बिखराता है, 
 
प्रियतम सूर्य से पाकर
ऐसे अनोखे प्रेमोपहार, 
शीत से सकुचाई धरती भी 
उठती पड़ती है मानो जाग, 
प्रेमी को रिझाने को
स्नेह उसका पाने को
करती है वह सोलह सिंगार, 
  
ब्याह ने धारा को फिर 
लेकर अपने संग-साथ 
विद्युत लेखा की चमक
वारिद-घन का तीव्र नाद, 
वर-यात्रा सजता है सूर्य भी
मेघ मित्रों का लेकर दल-बल अपने साथ, 
पूर्वी-पवन पुरोहित बन
कराता है ग्रंथि-बंधन, 
पावन जलधार की साक्षी से
फिर एक बार होता है पूर्ण यह
युग युगांतर का शाश्वत परिणय-बंधन! 

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टिप्पणियाँ

लखनलाल पाल 2025/07/01 10:46 PM

सरोजिनी पाण्डेय जी की कविता 'वसंत से पावस तक' अलग तरह की कविता है। जिसमें वसंत से लेकर पावस तक एक वैवाहिक कार्यक्रम चलता है। इस अनूठे विवाह की सारी परंपराएं भारतीयता के अनुकूल है। वैवाहिक अवसर पर दिए जाने वाले सुंदर प्राकृतिक उपहार मन को मोहते है। एक बार दृष्टि डालने पर यह कविता वसंत ऋतु पर लिखी प्रतीत होती है, पर ऐसा बिलकुल नहीं है। इस कविता में वसंत साधन के रूप में चित्रित हुआ है। साध्य धरती और सूर्य है। सूर्य वर है तो दुल्हन धरती है। भारतीय समाज में जिस तरह ब्याह की रस्में महीनों चलती है वैसे ही यहां धरती और आकाश के ब्याह की रस्में वसंत से लेकर पावस तक चलती रहती हैं। सूर्य अपनी होने वाली पत्नी के लिए प्राकृतिक उपहार भेजता रहता है। धरती भी इन उपहारों को पहनकर पूरी तरह से सजी-बजी इठलाती रहती है। जब दूल्हा दुल्हन प्रकृति के उपमान है तो उसका शृंगार कृत्रिम कैसे हो सकता है। वसंत ऋतु पर बहुत सी कविताएं लिखी गई हैं। उन कविताओं में वसंत हमेशा नायक के रूप में चित्रित होता है। लेकिन इस कविता में वसंत सिर्फ साधन बनकर रह जाता है। यह कविता की अपनी मौलिकता है। अगर बिंदास अंदाज में कविताएं लिखी जाएं तो उनमें ऐसी ही मौलिकता दिखाई देगी। बेहतरीन कविता के लिए सरोजिनी जी आपको बहुत-बहुत बधाई

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