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सागर के तट पर

कर लेने को कुछ शांत हृदय 
आ बैठी हूँ सागर तट पर, 
फैला है सम्मुख नील सिंधु
निर्बाध, तरंगित, औ' फेनिल, 
 
लखकर उर्मिल सागर का जल
मन मेरा भी कुछ लहराया
वर्णित जो कथा पुराणों में
उनको मन ही मन दोहराया, 
 ♦    ♦    ♦
यह वही जलधि है सदियों तक
जिसमें नारायण सोया था, 
इसके ही अतल गर्भ से तो
ब्रह्मांड का गोलक उपजा था, 
♦    ♦    ♦
बहु काल हुआ पृथ्वी डूबे, 
तब हरि को बड़ी दया आई
धरकर वराह का रूप स्वयं
पृथ्वी ऊपर को खिसकाई
♦    ♦    ♦
जल प्रलय हुई, वसुधा डूबी, 
सृष्टि का क्षय होने को था, 
ब्रह्मा की रचना को मनु ने
नौका में सहेज, समेटा था, 
 
करने को रक्षा नौका की
विष्णु ने धारा मत्स्य रूप 
दश अवतारों में वर्णित है
नारायण का यह एक रूप, 
♦    ♦    ♦
रघुवर के अग्निबाण से जब
जलचर जीवन सब त्रस्त हुआ, 
लेकर रत्नों की मंजूषा 
यह सिंधु राम की शरण हुआ! 
 
सागर पर करके सेतुबंध, 
श्री राम ने लंका थी ढायी, 
इस विजय कीर्ति की महिमा तो 
कवियों ने सदियों तक गायी, 
♦    ♦    ♦
जिस मनु ने सृष्टि बचाई थी
हम संतति हैं उस ज्ञानी की, 
पर कर्म हमारे ऐसे हैं 
ज्यों जड़-बुद्धि अभिमानी की
 
जिस सागर में गहरे जाकर, 
हम मोती-माणिक पाते हैं
उस सागर को ही हम प्रतिदिन
अति दूषित करते जाते हैं, 
 
सागर से जल, जल से जीवन
यह बात भला कैसे भूले, 
अभिमान हमें निज मेधा का 
और हम घमंड में हैं फूले! 

यदि सागर स्वच्छ नहीं होगा 
पृथ्वी भी तो मिट जाएगी, 
अपनी ही संतति के हाथों
धरती माँ दुर्गति पाएगी, 
 
जन्मे हैं हम सब धरती पर
और सागर पोषण देता है, 
वह नष्ट करेगा मानव को
यदि उसका शोषण होता है! 
 
कर डाली दूषित प्राण-वायु
धरती-सागर की गणना क्या! 
ना बदले हम जल्दी ही तो 
‘सृष्टि’ में जीवन होगा क्या?

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