अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

तट और तरंगें

 

आदिकाल से ही सागर की पुत्रियाँ
लहरें, हिलोरें, तरंगें और उर्मियाँ
अपने प्रतिवेशी तट के प्रेम में 
आकंठ डूबी रहती हैं, 
वे तट के निकट कई रूप 
बदल-बदल आती हैं 
और हर रूप में ये अपना
सनातन तट-प्रेम ही दर्शाती हैं, 
 
कभी-ये सकुचायी, 
कमसिन किशोरियों-सी 
तट को तनिक-सा छू
सिहर कर पीछे हट जाती हैं, 
तट का चुंबकीय आकर्षण 
इन्हें बरबस खींच लाता है, 
तट का गात भी तो सदा
प्यासा रह जाता है! 
फिर-फिर, लौट-लौट 
ये लजाती हुई आती हैं, 
प्यासे, ललचाते, रेतीले तट को 
स्नेह से सिंचित कर 
कभी सीप-घोंघों की 
निशानियाँ दे जाती हैं, 
सिक्तामय, खुरदुरा तट
स्निग्ध नहीं हो पाता 
थोड़े से अंतराल से वह फिर
सूख जाता है, 
कोमल तरंगे भी हार नहीं मानतीं 
हर पल दो पल में तटों को 
सींच-सींच जाती हैं। 
 
पथरीले, सुदृढ़ सिंधु-तट पर 
जोशीली तरंगें उद्दाम हो जाती हैं, 
कठोर, शिलावत् छाती पर उसकी 
सिर अपना पटक-पटक, 
यौवन से उफनती लहरें, 
शिलाओं को अपने प्रेम से 
पिघलाना चाहती हैं, 
शिलाएँ भी तो यौवन के मद में
चूर-सी होती हैं, 
लहरों के थपेड़ों से वे कहाँ झुकती है़! 
बार-बार लहरें उफन-उफन आती हैं
देने को दंश उन हठीली शिलाओं को
केकड़े और अष्टपाद उनमें फँसा जाती हैं, 
सृष्टि के आरंभ से ही चल रहा है यह द्वंद्व
प्रलय तक ही हो पाएगा संभवत इसका अंत! 
 
कहीं-कहीं किनारा
कोमल, स्नेहार्द्र हो जाता है, 
सागर की बेटी को 
अंक में अपने समेट, 
गले लगा इनको, 
निहाल हो जाता है
तरंगे यहाँ पर हरियाली बन जाती हैं
सागर के ऐसे किनारों को
ये उर्मियाँ
अपने वात्सल्य से 
हरित और उर्वर बनाती हैं, 
सागर की बेटियाँ अनेक रूप धारती है
हर रूप में वे प्रेम के वशीभूत
कूलों, किनारों, तटों तक ही तो आती हैं!! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

'जो काल्पनिक कहानी नहीं है' की कथा
|

किंतु यह किसी काल्पनिक कहानी की कथा नहीं…

14 नवंबर बाल दिवस 
|

14 नवंबर आज के दिन। बाल दिवस की स्नेहिल…

16 का अंक
|

16 संस्कार बन्द हो कर रह गये वेद-पुराणों…

16 शृंगार
|

हम मित्रों ने मुफ़्त का ब्यूटी-पार्लर खोलने…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

वृत्तांत

स्मृति लेख

सांस्कृतिक आलेख

लोक कथा

आप-बीती

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं