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ये मेरी चूड़ियाँ

 

मैं पुराणपंथी हूँ, 
हाँ, मैं पुराणपंथी हूँ
कुछ परंपराओं को बिना तर्क-वितर्क, 
बिना बौद्धिक मंथन के सहज ही अपना लेती हूँ, 
जिन तीन कुलों1 से मैं जुड़ी हूँ
उनकी परंपरा के कारण
काँच की चूड़ियों को अपना ‘सुहाग’ मान
सदा कलाइयों में पहनती हूँ, 
ये चूड़ियाँ मेरी अपनी पहचान हैं
मेरे भारतीय होने का पक्का प्रमाण हैं, 
 
इनके कारण मैं कभी ‘गुलाबो’, 
कभी ‘मैचिंग मैडम ‘के ख़िताब पाती हूँ
और इन ख़िताबों से कभी गद्-गद् होती, 
कभी झुँझुलाती हूँ, 
 
अपनी संतानों को जब मैं पालने में झुलाती थी, 
मेरी खनकती चूड़ियाँ उन्हें लोरी सुनाती थीं, 
 
इन चूड़ियों से ही मेरी गोदी के शिशु
रंगों की पहचान और गिनती
सीख जाते थे, 
गोदी में मेरी बैठकर
जब इन्हें वे खनकाते-बजाते थे, 
 
अब कुछ युवा आधुनिका सखियाँ
जब मेरे क़रीब आती हैं, 
मुझसे कई प्रश्न, इन चूड़ियों पर पूछ जाती हैं, 
“ऐसी सुंदर डिज़ाइन वाली चूड़ियाँँ, 
आंटी, आप कहाँ से ले आती हैं? 
इन्हें हरदम हाथों में पहन
आप काम कैसे कर पाती हैं?” 
उत्तर में मुझसे वे केवल एक शब्द, 
‘आदत’ सुन पाती हैं
और शायद उससे ही वे
सब कुछ समझ जाती हैं, 
मेरी और एक मीठी मुस्कान फेंक
वे आगे बढ़ जाती हैं
अब इन्हें भला मैं कैसे समझाऊँ, 
ये नाज़ुक चूड़ियाँ
मुझे रिश्ते सहेजना सिखाती हैं, 
 
ये गोल-गोल रंग-बिरंगी
काँच की खनखनाती चूड़ियाँ
मेरी शानदार2 संतानों को
बहुत लुभाती हैं, 
उनकी गुदगुदी, चिकनी, कोमल कलाइयों में लटक-झूल
उन्हें कभी ‘नानी’, कभी ‘दादी’ बनाती हैं, 
 
खनकती इन चूड़ियों की खनक के
‘असर’ भी निराले हैं, 
ये किसी को प्रिय, किसी को अति प्रिय और 
किसी का दिल दहलाने वाले हैं! 
 
कभी-कभी की अकेली यात्राओं से
जब घर वापस लौट कर आती हूँ, 
अपने जीवनसाथी को कुछ उदास
कुछ अकेला-सा पाती हूँ, 
“तुम्हारी चूड़ियों की आवाज़
बड़ी याद आती है, 
इनका ना होना मेरा अकेलापन बढ़ाती है!”
यह वाक्य सुनकर मैं
तृप्त हो जाती हूँ, 
मारे ख़ुशी के थोड़ा और फूल जाती हूँ! 
 
‘माँ’ की चूड़ियों की खनक
मेरी बेटी को बचपन में ले जाती है
मेरे भरोसे उसे बेफ़िक्र-सा बनाती है
सुबह सवेरे यह खनक सुनकर 
वह बिस्तर में कुनमुनाती है
“बच्चों को माँ देख लेगी!”
यह सोच, चादर में मुँह लपेट
वह फिर से सो जाती है
 
सुबह की चाय बनाने
रसोई में जाने पर
चूड़ियों की झंकार बहू के कानों में भी जाती है—
भोर की मीठी नींद से यह उसको भी जगाती है
“यह मेरी सास रसोई में जब जाती है
काम कम करती है, शोर ज़्यादा मचाती है!” 
इस दुख-चिंता के कारण
बेचारी की नींद
आँखों से कोसों दूर भाग जाती है! 
 
यह सब देख-सोच कर
मैं हैरान हो जाती हूँ, 
नाज़ुक इन चूड़ियों का भेद समझ जाती हूँ, 
परंपरा की प्रतीक, 
ये काँच की रंगीन चूड़ियाँ
कैसे-कैसे तो ‘रंग’ दिखाती हैं, 
जीवन के हर मोड़ पर
ये मुझे दुनियादारी के
नए-नए पाठ पढ़ाती जाती हैं!
 

  1. तीन कुल=ननिहाल, मायका, ससुराल

  2. शानदार संतानें=नाती-नातिन

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टिप्पणियाँ

राजनन्दन सिंह 2023/03/24 11:58 AM

चीजों को देखने का नजरिया तय करता है कि उसकी उपयोगिता औचित्य और महत्व क्या है। मै आपके साहस की प्रशंसा करता हूँ। आप सगर्व स्वीकार करती हैं "हाँ मैं पुराणपंथी (पुरातनपंथी) हूँ"। वस्तुतः मेरी नजर में आप पुरातनपंथी नहीं एक प्रगतिशील भारतीया हैं। हमारी विशेषताएँ हमें तब नजर आती है जब पर्व त्योहारों के अवसर पर हम अपनी मूल विचारधारा में होते हैं। भारतीयता कितनी प्यारी लगती है जब एक दिन के लिए लोग कुर्ता पजामा धोती गमछा और स्त्रियाँ पारंपरिक परिधानों में आफिस आती हैं। वह हमारा अपना दिन होता है और उस दिन हमें अपनी पसंद की छूट होती है। शेष दिन कोई दूसरा टोके या न टोके हमें स्वयं हीं हमारा अपना परिधान भारी और बोझ लगता है। पुरुष कर्मचारी सोंचते हैं उन्हें गोरों की तरह शार्ट टीशर्ट और हाफ पैंट पहनने की छूट मिल जाए तो अच्छा है। ताकि वे देशी न दिखें और महिला कर्मचारी भी सोंचती हैं पारंपरिक पहनावे उनके स्वतंत्रता का हनन करती है। कारण यही है कि शेष दिन वे या हम अपने मूल नजरिये में नहीं होते।

पाण्डेय सरिता 2023/03/23 08:12 PM

अद्भुत. ...अद्भुत

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