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श्री राम का गंगा दर्शन


(वाल्मीकि की दृष्टि से)
 
आज्ञाकारी सुत रामचन्द्र, जब दंडक वनको जाते हैं, 
दशरथ की आज्ञा सिर पर धर, सारथी सुमंत्र बन जाते हैं, 
 
कोशल की सीमा से बढ़कर, जब नए राज्य में वे आए, 
तीनों लोकों में जो बहती, उस ‘गंगा’ के दर्शन पाए। 
 
निर्मल, शीतल, पावन जल से, वह देव नदी थी भरी हुई, 
दर्शन गंगाजी का पाकर रघुवर की आँखें तृप्त हुईं, 
 
ऋषियों की सुंदर कुटियों से गंगा का तट बहु-सज्जित था, 
लखकर शोभा सुंदर तट की, अप्सरा-हृदय भी मचलता था, 
 
अप्सरा स्वर्ग से उतर-उतर उस पावन जल में नहाती थीं, 
वह पतितपावनी देव-नदी उनका शुभ-मंगल करती थी, 
 
गंधर्व, देव, दानव, किन्नर सब पर शिव-कृपा बरसती थी, 
गंधर्व, नाग-ललनाएँ भी, नहीं इससे वंचित रहती थीं, 
 
पर्वत प्रदेश में सुरसरि-तट, देवों के रुचिर क्रीड़ांगन है, 
है 'देवपद्मिनी' नाम उसका, बहती जो देवांगन में है, 
 
करती हैं तरंगे अट्टहास, प्रस्तर से जब टकराती हैं, 
फिर फेनिल कहीं-कहीं होकर, वे मृदुल हास बिखराती हैं, 
 
धारा में वलय कहीं बनते, और कुंड कहीं पर गहरे हैं, 
सर-सर, मर्मर स्वर मधुर कहीं, कहीं ढोल-मृदंग धमकते हैं, 
 
लेती है वेणी रूप कहीं, कहीं उथली सरिता बहती है, 
लेती प्रपात का रूप कहीं, कहीं मंथर-गहरी बहती है, 
 
नीलोत्पल, कुमुद निरखते हुए, करते हैं देवगण कहीं स्नान, 
होकर मदमस्त विहग-गण भी, छेड़ा करते हैं मधुर गान, 
 
कहीं श्वेत बालुका के तट हैं, कहीं हरित तृणों से ढके पुलिन, 
यह भी सुंदर वह भी निर्मल, गंगा-तट कहीं नहीं है मलिन, 
 
सारस, पंडुक, चकवा-चकवी, हंसों के झुंड विचरते हैं, 
अपने स्वर, अपनी शोभा से गंगा को अलंकृत करते हैं, 
 
कहीं कमल-कुंज, कहीं कुमुद-कली, तट पर वन-राशि चमकती है
पीकर पुष्पों का मधु-पराग, सरिता मदमाती लगती है, 
 
अघ-मलहारी यह गंगाजल, मणि जैसा झिलमिल करता है, 
दिग्गज, ऐरावत, वनगज दल, तट की वन राशि में रहता है, 
 
जो निकली विष्णु-चरण से है, अघ-पातक पापविनाशिनी है, 
कलियों, फल, फूल लता से सजी वह सुंदर 'युवती' लगती है, 
 
घड़ियाल, सर्प, सीपी-घोंघे जिस जल में आश्रय पाते हैं, 
उस प्रलय वेगमयी धारा से, शिव अपनी जटा सजाते हैं, 
 
जो सफल भगीरथ के तप से, पृथ्वी के तल पर उतरी है, 
उस जाह्नवी की ही धारा, पुरशृंगवेर में बहती है, 

लख कर वह भँवर भरी धारा श्रीराम सुमंत्र से कहते हैं, 
“रोको रथ को हे प्रिय सुमंत्र, हम आज यहीं पर रहते हैं।”

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