अन्तरजाल पर
साहित्य-प्रेमियों की विश्राम-स्थली

काव्य साहित्य

कविता गीत-नवगीत गीतिका दोहे कविता - मुक्तक कविता - क्षणिका कवित-माहिया लोक गीत कविता - हाइकु कविता-तांका कविता-चोका कविता-सेदोका महाकाव्य चम्पू-काव्य खण्डकाव्य

शायरी

ग़ज़ल नज़्म रुबाई क़ता सजल

कथा-साहित्य

कहानी लघुकथा सांस्कृतिक कथा लोक कथा उपन्यास

हास्य/व्यंग्य

हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी हास्य व्यंग्य कविता

अनूदित साहित्य

अनूदित कविता अनूदित कहानी अनूदित लघुकथा अनूदित लोक कथा अनूदित आलेख

आलेख

साहित्यिक सांस्कृतिक आलेख सामाजिक चिन्तन शोध निबन्ध ललित निबन्ध हाइबुन काम की बात ऐतिहासिक सिनेमा और साहित्य सिनेमा चर्चा ललित कला स्वास्थ्य

सम्पादकीय

सम्पादकीय सूची

संस्मरण

आप-बीती स्मृति लेख व्यक्ति चित्र आत्मकथा वृत्तांत डायरी बच्चों के मुख से यात्रा संस्मरण रिपोर्ताज

बाल साहित्य

बाल साहित्य कविता बाल साहित्य कहानी बाल साहित्य लघुकथा बाल साहित्य नाटक बाल साहित्य आलेख किशोर साहित्य कविता किशोर साहित्य कहानी किशोर साहित्य लघुकथा किशोर हास्य व्यंग्य आलेख-कहानी किशोर हास्य व्यंग्य कविता किशोर साहित्य नाटक किशोर साहित्य आलेख

नाट्य-साहित्य

नाटक एकांकी काव्य नाटक प्रहसन

अन्य

रेखाचित्र पत्र कार्यक्रम रिपोर्ट सम्पादकीय प्रतिक्रिया पर्यटन

साक्षात्कार

बात-चीत

समीक्षा

पुस्तक समीक्षा पुस्तक चर्चा रचना समीक्षा
कॉपीराइट © साहित्य कुंज. सर्वाधिकार सुरक्षित

लालची लल्ली

 

मूल कहानी: ज़िओ लूपो; चयन एवं पुनर्कथन: इतालो कैल्विनो
अंग्रेज़ी में अनूदित: जॉर्ज मार्टिन (अंकल वुल्फ़); पुस्तक का नाम: इटालियन फ़ोकटेल्स

 

प्रिय पाठक, आज जो कहानी आपको सुनाने जा रही हूँ वह लोक कथा से अधिक ‘शिशु कथा’ है, अंत भी दुखान्त है। जीवन की सच्चाइयाँ सचमुच कड़वी होती हैं, इनके बारे में सावधान करने के लिए ‘पंचतंत्र’ के रचयिता को भी राजपुत्रों के लिए लिखी गई कहानियों में निर्दय होना पड़ा था। चलिए सुनती हूँ आपको इतालवी लोक कथा एक लालची लड़की कीः

 

एक थी लड़की, माँ की प्यारी, बहुत दुलारी नाम था उसका लल्ली। लल्ली लगती तो सबको प्यारी थी लेकिन वह बहुत लालची और भुक्खड़ लड़की थी। एक बार की बात है, विद्यालय में उत्सव मनाया जा रहा था। अध्यापिका ने सभी बच्चों को झंडियाँँ बनाने का काम दिया था। उन्होंने कहा था कि जब झंडियाँ बनाने का काम पूरा हो जाएगा, तो सभी काम करने वाले बच्चों को मालपुए खिलाए जाएँगे। लल्ली लालची होने के साथ-साथ आलसी भी थी। झंडियाँँ न बनानी पड़ें, इसके लिए वह ज़रूरत न होने पर भी बहाना बनाकर शौचालय में जा छुपी। जब लल्ली बाहर निकल कर आई तब तक झंडियाँँ तो बन ही चुकी थीं; सब बच्चों को मालपुआ भी मिल चुका था। मालपुए ख़त्म हो गए थे लल्ली को कुछ नहीं मिल पाया। 

वह घर गई और माँ को रो-रो कर सारी कहानी सुनाई कि कैसे उसे मालपुआ खाने को नहीं मिला। माँ का दिल भर आया। उसने लल्ली के लिए मालपुआ बनाने की सोची, लेकिन मालपुआ बनाने वाली कड़ाही उसके पास नहीं थी। माँ ने लल्ली को पड़ोस के भेड़िया चाचा के यहाँ से मालपुआ बनाने की कड़ाही माँग कर लाने के लिए भेज दिया। 

लल्ली ने जाकर भेड़िया चाचा का दरवाज़ा खटखटाया—

ठक ठक 
“कौन है?” अंदर से आवाज़ आई। 

“चाचा जी, मैं हूँ।”

“इतने सालों से तो मेरा दरवाज़ा किसी ने नहीं खटखटाया! तुमको क्या चाहिए?” 

“माँ ने मुझे मालपुआ बनाने की कड़ाही माँग कर लाने के लिए भेजा है।” 

“ठीक है, रुको मैं ज़रा बनियान पहन लूँ।”

ठक ठक

“रुको ज़रा मैं ज़रा पजामा पहन लूँ।”

ठक ठक 

“बस कुर्ता पहनकर आता हूँ।”

ठक ठक

“बस एक मिनट, ज़रा शॉल तो ओढ़ लूँ।”

और आख़िरकार भेड़िया चाचा ने दरवाज़ा खोला और कड़ाही लल्ली को दे दी और साथ ही वह बोले, “मैं कड़ाही तुम्हें दे रहा हूँ लेकिन अपनी माँ से कहना कि इसको मालपुओं से भरकर लौटाएगी, साथ ही थोड़ी कचौड़ियाँ और चाय भी भेज देंगी।”

“ठीक है, ठीक है, मैं आपके लिए सब कुछ लेकर आऊँगी!”

लल्ली कड़ाही घर ले आई। माँ ने ढेर सारे मालपूए लल्ली के लिए बनाए और उतने ही भेड़िया चाचा के लिए भी। रात होने से पहले माँ ने कहा, “लल्ली मालपुए, कचौड़ियाँ और चाय भेड़िया चाचा को पहुँचा आओ।”

रास्ते में भुक्खड़ लल्ली को लालच आ गया। कचौड़ियों की ख़ुश्बू से उसकी भूख और भी बढ़ गई, “क्या अच्छी ख़ुश्बू आ रही है कचौड़ियों की! मैं एक खा लेती हूँ!”

लल्ली ने एक कचौड़ी खाई, उसे बहुत स्वाद आया। फिर उसने एक और खा ली धीरे-धीरे वह सारी कचौड़ियाँ खा गई। ऐसे ही उसने एक-एक करके सारे मालपुए भी ख़त्म कर दिए। पेट जब बहुत भर गया तब उसने चाय भी पी डाली। सारे पकवान तो उसने खा लिये, लेकिन अब ख़ाली बरतन देखकर वह डर गई। उसने जल्दी से सड़क के किनारे से गोबर उठाया, उसको मालपुआ की तरह बना दिया। मिट्टी से उसने कचौड़ियाँ बनाईं और नाली का पानी केतली में भरकर पहुँच गई भेड़िया चाचा के घर। 

दरवाज़ा खटखटा कर उसने सारा सामान भेड़िया चाचा को पकड़ा दिया। 

भेड़िया चाचा भूखे थे। उन्होंने पहला निवाला मुँह में डाला और थूक कर बोले, “यह तो गोबर जैसा है।” फिर उन्होंने चाय का एक घूँट लिया और बोले, “छी छी अक्थूऽऽ, यह तो नाली का पानी लग रहा है!” जब कचौड़ी मुँह में डाली तो वह मिट्टी जैसी लगी। भेड़िया चाचा ने गरज कर लल्ली से कहा, “यह तुम मेरे लिए क्या लाई हो? आज रात में मैं तुम्हें खा जाऊँगा!”

लल्ली सिर पर पैर रखकर अपने घर की और भागी। 

घर आकर माता से बोली, “आज भेड़िया चाचा मुझे डरा रहे थे कि वह रात में मुझे खा जाएँगे!”

माँ घबरा गई। उसने घर के सारे खिड़की-दरवाज़े, यहाँ तक की दरारें भी बंद कर दीं जिससे भेड़िया घर में ना घुस सके, लेकिन रसोई के चूल्हे के ऊपर की चिमनी बंद करना वह भूल गई। रात को जब लल्ली बिस्तर में लेट गई, तब उसने घर के बाहर से भेड़िए की आवाज़ सुनी, “मैं तुम्हें खाने आ रहा हूँँ, इस समय मैं घर के बाहर हूँँ!”

उसके बाद छत से पैरों की आवाज़ आई, “मैं तुम्हें खाने आ रहा हूँँ, मैं छत पर हूँँ!”

फिर कुछ ही देर में चिमनी में से खड़खड़ाहट की आवाज़ आई और साथ ही भेड़िया बोला, “मैं तुम्हें खाने आ रहा हूँँ। मैं चिमनी में हूँँ!”

“माँ . . . माँ,” लल्ली रोते हुए बोली, “भेड़िया आ गया है!”

“रजाई के अंदर छुप जाओ बेटी,” माँ ने कहा। 

“मैं चूल्हे तक आ गया हूँँ, मैं तुम्हें खाने आ रहा हूँँ!”

डर से काँपती हुई लल्ली ने अपने को रजाई में कसकर लपेट लिया। 

“मैं तुम्हें खाने आ रहा हूँँ मैं कमरे में हूँँ!” लल्ली साँस रोक कर पड़ी थी। 

“मैं तुम्हें खाने आ रहा हूँँ। मैं चारपाई पर पहुँच गया हूँँ . . . और यह लो. . .,” कहते-कहते भेड़िए ने लल्ली को लील लिया। 

भेड़िया चाचा लालची लोगों को लील (निगल) ही लेते हैं!! 

लालच बहुत बुरी बला है! 

अन्य संबंधित लेख/रचनाएं

 तेरह लुटेरे
|

मूल कहानी: इ ट्रेडेसी ब्रिगांनटी; चयन एवं…

अधड़ा
|

  मूल कहानी: ल् डिमेज़ाटो; चयन एवं…

अनोखा हरा पाखी
|

  मूल कहानी:  ल'युसेल बेल-वरडी;…

अभागी रानी का बदला
|

  मूल कहानी: ल् पलाज़ा डेला रेज़िना बनाटा;…

टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

अनूदित लोक कथा

कविता

यात्रा-संस्मरण

ललित निबन्ध

काम की बात

वृत्तांत

स्मृति लेख

सांस्कृतिक आलेख

लोक कथा

आप-बीती

लघुकथा

कविता-ताँका

सामाजिक आलेख

ऐतिहासिक

विडियो

उपलब्ध नहीं

ऑडियो

उपलब्ध नहीं