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श्वान अध्याय

एक महानगर के उपनगरीय, बहुमंजिला आवासीय परिसर में हमारा भी एक छोटा सा ‘घर’ है। परिसर की परिधि पर एक मार्ग ऐसा है, जिसका उपयोग मोटर गाड़ियाँ और रहवासी (रेज़ीडेंट) समान रूप से करते हैं, गाड़ियाँ अंदर-बाहर आने जाने के लिए और निवासी सुबह शाम की चहलकदमी और हवाखोरी के लिए। दो-तीन छोटे, खुले मैदान बच्चों के खेल-कूद और बैठकी-धूपख़ोरी के लिए भी हैं। 

जैसा कि आजकल का चलन होता जा रहा है 12-14% घरों में मनुष्यों के साथ कुत्ते भी रहते हैं। क्यों (?) यह मेरी समझ में सचमुच नहीं आता! बचपन से यही सुना था कि घर की रखवाली के लिए लोग कुत्ते पालते हैं, परन्तु यहाँ तो पूरे परिसर में कम-से कम पंद्रह चौकीदार (वॉचमैन) सदैव रहते हैं। अब तो कई एजेंसियाँ केवल इसी उद्देश्य से खुल गई है कि वे द्वारपाल और सुरक्षाकर्मी मुहैया करा सकें . . . मुख्य प्रवेश द्वार पर, हर टावर की लिफ़्ट के पास, पार्किंग में, चौबीस घंटे चौकीदार पहरा देते हैं। इन इमारतों में रहने वाले लोगों के पास भेड़-बकरियों के रेवड़ या गाय-भैंसों के झुंड भी नहीं होते, जिनकी सुरक्षा और रखवाली के लिए कुत्ते भी पाल लिए जाएँ, तो इन पालतू कुत्तों को टहलाने-घुमाने के लिए लोग उसी परिपथ का उपयोग करते हैं, जहाँ लोग सैर करने करते पाए जाते हैं। पशु तो पशु ही है, हालाँकि अब कुत्ते को ‘पशु’ या ‘कुत्ता’ कहना भी एक तरह का अपराध और पालक के लिए अपमानजनक माना जाता है, तो ये ‘कुत्ता’ नामधारी ‘पशु’ आए दिन भ्रमण परिपथ पर मल-मूत्र त्याग करते हैं, कुत्तापालक उसे हटाते भी नहीं है, इससे भ्रमणार्थियों को बहुत असुविधा और खिन्नता होती है। कुछ श्वान तो ऐसी प्रजाति के हैं, जिन्हें ‘शिकारी’ माना जाता है (कुत्ते की प्रजातियों, इत्यादि के बारे में मेरी जानकारी शून्य है)। इस प्रजाति के सदस्यों से छोटे बच्चे और बुज़ुर्ग सदैव आतंकित रहते हैं। 

सहकारी आवासीय परिसर की देखभाल और व्यवस्था बनाए रखने के लिए ओनर्स वेलफ़ेयर एसोसिएशन, रेज़िडेंट्स वेलफ़ेयर एसोसिएशन जैसे नामों की संस्थाएँ भी होती हैं, जो सामान्य प्रशासन, निवासियों की सुख-सुविधा और सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार होती हैं। हमारी सोसाइटी में पीड़ित रहवासियों और इस संस्था के बीच इस ‘श्वान-आतंक’ नामक विषय पर अक़्सर विचार-विमर्श और वाद-विवाद चलता रहता है। रास्तों उद्यानों, लिफ़्टों में कुत्तों के मल-मूत्र की बात तो छोटी समस्या है, हालाँकि बहुत यह अस्वास्थ्यकर और असुविधाजनक है, कभी किसी बच्चे पर कुत्ते का झपट पड़ना, किसी की सेविका को पंजा मार देना, किसी सैर करते हुए व्यक्ति के ऊपर झपट पड़ना जैसी घटनाएँ भी अक़्सर ही होती रहती हैं। ऐसी स्थितियों में पीड़ितों की मानसिक दशा और आर्थिक दबाव का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। अभी कुछ दिन पहले की बात है, एक वरिष्ठ निवासी को एक पालतू कुत्ते ने बुरी तरह घायल कर दिया, पीड़ित को दो-तीन अस्पतालों के चक्कर लगाने पड़े, हज़ारों-हज़ार रुपए चिकित्सा पर ख़र्च हुए। पूरी सोसाइटी द्वारा माँग की जाने लगी कि परिसर में कुत्ता घुमाने पर रोक लगाई जाए। परन्तु भारत सरकार के नियम कुत्तों के पक्ष में इतने सख़्त हैं कि एसोसिएशन कोई नियम, कोई दंड-विधान कुत्तों के अभिभावकों के लिए निश्चित नहीं कर सकती, सहायता केवल पुलिस में शिकायत दर्ज करा कर के ही पाई जा सकती है और इस देश में पुलिस की क्या व्यवस्था है, यह किसी नागरिक से छुपी नहीं है। 

माना जाता है कि कुत्ता मनुष्य का सबसे प्राचीन और हितकारी पशु-मित्र है। कुछ समाजशास्त्री तो यहाँ तक मानते हैं कि समूह में रहने की व्यवस्था जिस रूप में आज विकसित हुई है, वैसी विकसित होने के लिए कुत्ते का साथ बहुत महत्त्व का रहा है। परन्तु अब महानगरों में जैसी आवासीय व्यवस्थाएँ विकसित हो रही हैं, वहाँ कुत्तों की उपयोगिता पर प्रश्नचिह्न अवश्य लग जाता है! जब मैं छोटी थी तो अपने दादा जी को देखती थी कि वह हर भोजन के बाद ‘कौरा’ (एक रोटी दाल-सब्ज़ी आदि) हाथ में लेकर घर के बाहर आते थे और एक कुत्ता जो घर के आसपास ही रहता था उसे ‘पिलुआ’ कहकर आवाज़ लगाते, वह कहीं भी हो, भागता हुआ आता था और दादा जी के पास खड़ा होकर मुँह ऊपर उठाए, दुम हिलाता हुआ रोटी पाने की प्रतीक्षा करता था। यदि कोई अजनबी घर के आस-पास भी दिख जाए तो भौंक कर घर वालों को आगाह भी करता था। उन दिनों अधिकांश घरों में यही होता था, भोजन करने से पूर्व गौ-ग्रास और भोजन समाप्त करने पर, अंत में, कुत्ते के लिए भोजन! मनुष्य के लिए भी अनुपयोगी भोजन हो चुके भोजन को गली में डलवा दिया जाता था कि आते–जाते कुत्ता बिल्ली इत्यादि उस भोजन को खा लें। कुक्कुरों से हमारा सम्बन्ध इतना ही था, उसका स्वतंत्र रूप से घूमना, भोजन के लिए आना और अपरिचितों पर भौंकना। 

सामान्य रूप से विष्ठा खाने वाले कुत्ता, कुक्कर, श्वान आदि नामक इस पशु के प्रति भारतीय जनमानस में आदर का स्थान नहीं है। किसी को ‘कुत्ता’ कहना गाली मानी जाती है, अपमानित करने के लिए ‘तेरे नाम का कुत्ता पालूँ’ कहना, हमने कई चलचित्रों में भी सुना है। अविनयी और अड़ियल के लिए ‘कुत्ते की दुम हमेशा टेढ़ी’ मुहावरा किसने नहीं सुना होगा? यहाँ तक कि स्वामिभक्ति, जो इस पशु का सर्वोपरि गुण है, उसके लिए भी ‘पीछे-पीछे दुम हिलाना’ मुहावरा है और मेरे विचार से इसका उपयोग किसी को सम्मानित करने के लिए तो कदापि नहीं किया जाता। अनुपयोगी होने पर ‘धोबी का कुत्ता न घर का न घाट’ का हो जाना हमारे देश की प्राचीन उक्ति है। 

स्थिति यह है कि अनुपयोगी होने के बावजूद भी, यह पशु आजकल प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गया है। सुरक्षाकर्म और जासूसी इत्यादि में अभी भी इस पशु का उपयोग होता है। सामान्य रूप से ऐसे पशु समाज के लिए किसी भी प्रकार से हानिकारक नहीं होते और नागरिक बस्तियों में घूमते हुए पाए भी नहीं जाते। परन्तु केवल अपने अहम की तुष्टि के लिए, कृत्रिम उपायों से नई-नई जातियाँ विकसित करना, डॉग-शो आयोजित होना, कुत्तों के सौंदर्य वर्धन के लिए विशेष सैलून होना आदि मुझे तो संसाधनों का अपव्यय प्रतीत होते हैं, भारत जैसे ‘तृतीय विश्व’ के देश के लिए यह बात और अधिक महत्त्वपूर्ण है। महँगे और घरेलू पालतू कुत्तों की उपयोगिता क्या मात्र प्रतिष्ठा, संपन्नता और अहम की तुष्टि का प्रतीक नहीं है? 

सभ्यता और विकास की यात्रा में बाल वाले पशुओं की खाल से अपनी रक्षा मानव में की है, अब उन्हीं कुत्तों को जब स्वेटर पहन कर घूमते और कंबल रजाई में सोते देखती हूँँ तो अपने को हँसने से नहीं रोक पाती। हम मनुष्य स्वेच्छा से अपने प्राकृतिक स्वभाव का त्याग कर रहे हैं, परन्तु प्रकृति के अन्य जीवों के साथ वैसा ही करना क्या हमारी धृष्टता और अनधिकृत कृत्य नहीं है? इसी दुस्साहसिक कर्म के कारण हम ‘करोना’ जैसी महामारी को झेल चुके हैं! प्लेग और चेचक की बीमारियाँ भी पशुओं के कारण ही मानव जाति में विकसित हुई है। रेबीज़ का इलाज आज तक नहीं बनाया जा सका, परन्तु कुत्तों की नई प्रजातियाँ प्रतिदिन विकसित की जा रही हैं, जिनकी उपयोगिता पर बहुत बड़ा प्रश्न चिह्न है। जो पशु दिन भर चल-फिर कर, अपने झुंड के साथ खेल कर, लड़कर भोजन पाता था, अब वह वातानुकूलित घरों में रहकर पौष्टिक भोजन पाता है। उसको इस भोजन से जो ऊर्जा मिलती है उसका उपयोग कहाँ करें? प्रशिक्षण और अपनी स्वामिभक्ति के स्वभाव के कारण वह रोटी देने वालों पर तो आक्रमण नहीं कर सकता, तो किसी और पर झपट्टा मारे तो दोष पशु का तो नहीं कहा जा सकता! शिकारी प्रजाति के कुत्तों के लिए यह बात और अधिक सत्य प्रतीत होती है। अभी कुछ दिन पहले उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक पिटबुल जाति के कुत्ते ने अपनी मालकिन, जो उसको छत पर टहला आ रही थीं, के पेट का मांस ऐसा सोचा कि उस 80 वर्षीय महिला की मृत्यु हो गई। बैंगलोर जो भारत का एक संपन्न और सुंदर नगर है और वर्तमान में आई टी का केंद्र माना जाता है, कुत्तों के आतंक से ग्रसित है। वर्ष में एक-दो समाचार ऐसे अवश्य पढ़ने मिल जाते है, जिसमें कुत्तों ने छोटे बालक बालिकाओं को नोंच कर काट कर मार डाला!! गलियों में रहने वाले लोग तो रात को आठ बजे के बाद घर से निकलने में घबराते हैं। संभवतः आधुनिकता और संपन्नता के साथ हमारा आध्यात्मिक, मानसिक ह्रास भी होता जा रहा है, इसीलिए असुरक्षित मानसिकता वाले लोग बढ़-चढ़कर गलियों के कुत्तों को भोजन कराते हैं। काले कुत्ते को जौ की रोटी खिलाओ, विवाह स्थायी हो जाए इसलिए शनिचरी काली कुत्तिया से ब्याह रचाओ इत्यादि जो अतार्किक कर्म लोगों से करने को कहे जाते हैं, वे मात्र भित मानसिकता का परिचायक हैं और कुत्तों की आबादी बढ़ने का कारण भी! कितने ही परिवारों को देखती हूँ कि बच्चे बोर्डिंग स्कूल में, वृद्ध माता-पिता वृद्धाश्रम में और जीव प्रेमी होने का दावा करते हुए दो डॉगी पाल लिए जाते हैं वे आसपास के लोगों को कितना कष्ट देते हैं इस बात की उनको तनिक चिंता नहीं रहती, इस स्थिति को देखकर मन में खिन्नता आना क्या अस्वाभाविक है? कहीं कहीं तो यहाँ तक सुनने में आया है कि कुछ जोड़े ऐसे भी हैं, जो संतानोत्पत्ति न करके दो कुत्ते पाल लेने की योजना बनाकर विवाह करते हैं! इस विषय पर भिन्न लोगों के भिन्न मत हो सकते हैं, परन्तु हर किसी को अपना मत प्रकट करने का अधिकार तो है न! 

भारत के शहरों में कुत्ता पालने की इस प्रवृत्ति को मैं दासत्त्व की मानसिकता मानती हूँँ। हम स्वतंत्र अवश्य हो गए हैं परन्तु अभी मन से ग़ुलामी के बीज निर्मूल नहीं हुए हैं . . . 99% कुत्तों के नाम अँग्रेज़ी में होते हैं, उन को प्रशिक्षित करने के लिए जो निर्देश दिए जाते हैं जैसे सिट, गो, शेक हैंड, नोss, आदि शब्द भी अँग्रेज़ी के ही होते हैं, मानो कुत्ता हिंदी के बैठो, जाओ, आदि शब्द समझेगा ही नहीं! वरना जिस देश में कुत्ते की दृष्टि से देवता को चढ़ाया जाने वाला प्रसाद दूषित माना जाता हो, वहाँ कुत्तों को अपनी संतान मानना, मेरी तो बुद्धि से परे की बात है। 

अभी कुछ दशकों पहले तक मदारी और सँपेरे बंदर और साँप पाल कर अपनी आजीविका कमाते थे, उन्हें पालने पर पूर्ण प्रतिबंध है। इस व्यवसाय से अपना पेट पालने वाले, जीवन चलाने के लिए नए व्यवसाय अपना चुके हैं, परन्तु कुत्ता पालने पर कोई रोक नहीं है!! ऐसा हो भी क्यों न आख़िर सँपेरे और मदारी तो समाज के निचली पायदान के लोग हैं! लाखों रुपए का पिल्ला ख़रीद कर उसे पालने वाले लोग समाज के सबसे धनाढ्य, प्रतिष्ठित वर्ग के होते हैं। कुत्ते की प्रजाति और उस पर होने वाला ख़र्च उनके अहम् को पोषित करता है। ऐसे लोग उदार, श्रेष्ठ, विकसित मानसिकता वाले पशु प्रेमी माने जाते हैं, चाहे वे एक पशु को उसके स्वाभाविक, स्वच्छंद जीवन से वंचित कर आजीवन घर के कारावास में रखने का अप्राकृतिक कृत्य ही क्यों ना कर रहे हों। सरकारी नियम भी उनकी इस मानसिकता को पुष्टि देते हैं।

मुझे श्वानों कोई द्वेष नहीं है और न ही कुत्ता पालने वाले मनुष्यों से, परन्तु मैं इतना अवश्य चाहती हूँ कि जो लोग कुत्ता पालते हैं, वे अपने प्रतिवेशी मनुष्यों के प्रति भी इतनी संवेदना अवश्य रखें कि उनकी तथाकथित ‘संतानों’ से दूसरे पीड़ित, भयभीत, असुरक्षित न हों। सरकारी नियम भी ऐसे होने चाहिए कि पीड़ितों को आर्थिक सहायता मिल सके। आवासीय परिसरों में आक्रामक प्रवृत्ति वाले कुत्तों के पाले जाने पर प्रतिबंध भी आवश्यक होना चाहिए। 

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