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पंचवटी के वन में हेमंत

 

राजा दशरथ के वचन की रक्षा करने के लिए श्री राम ने मिलता हुआ राज्य तृणवत् त्याग दिया और वनवास के लिए चले गए। वनवास के पहले ग्यारह वर्ष उन्होंने चित्रकूट में व्यतीत किये। इतने समय एक स्थान पर रहने के कारण आसपास के लोगों को यह मालूम हो गया कि चित्रकूट में श्री राम निवास कर रहे हैं, वहाँ लोगों का आना-जाना बढ़ गया। तब रामचंद्र को लगा कि अब उनका इस स्थान पर रहना ठीक नहीं क्योंकि वनवास का सही अर्थो में यहाँ पालन कठिन है अतः वे दंडकारण्य में भीतर की ओर चले और पंचवटी नामक स्थान में कुटिया बनाकर रहने लगे। शरद ऋतु बीत जाने पर जब हेमंत और शिशिर का आगमन हुआ उस समय की प्रकृति का वर्णन वाल्मीकि ने लक्ष्मण से करवाया है, इस वर्णन का हिंदी काव्य अनुवाद करने का दुस्साहस मैंने किया है। पाठक कृपया टिप्पणी दें:
 
प्रातः की सुंदर वेला में श्री राम स्नान को जाते थे, 
वैदेही उनके पीछे थींं, और लक्ष्मण कलश उठाते थे, 
दंडकारण्य की पंचवटी में वास राम जी करते थे, 
सरिता गोदावरी निकट ही थी, नित वहीं स्नान सब करते थे, 
था सुखद शरद का निपट अंत, हेमंत द्वार चढ़ आया था, 
करने उद्घोषित कठिन शिशिर, अगहन ने शंख बजाया था, 
 
पश्चिमी पवन के झोंके जब लक्ष्मण के तन को छू निकले, 
आगे चलते श्री रामचंद्र से, लखन अनुज कुछ यों बोले—
 
“भैया, इस ऋतु के झोंके तो काया को शुष्क बनाते हैं, 
शीतल जल पिया नहीं जाता, अति निकट ‘अलाव’ बुलाते हैं। 
 
 करके ‘नवान्न’ का पुण्यदान, यजमान परम सुख पाते हैं
 धानों की खेती निरख-निरख, खेतिहर आनन्दित होते हैं, 
 
भर जाते हैं कोठार सभी, दधि-दूध की अधिकता है होती 
दिग्विजय को वे नृप हैं जाते, जिनमें विजयेच्छा भरी रहती, 
 
दक्षिण यम की ही दिशा सही, पर सूर्य उधर से उगता है 
सूरज की बिंदी हटने से, उत्तर दिशि का मन रोता है, 
 
इस ऋतु में सूर्य देवता की धरती से दूरी है बढ़ती, 
हिम-आच्छादित शिखरों पर भी, हिम घनीभूत कुछ और होती, 
 
 हिमशिखर सदा जो उज्जवल हैं, कुछ और प्रखर हो उठते हैं, 
‘हिम का आलय’ कहलाने का, वे नाम सार्थक करते हैं, 
 
तरु की छाया और शीतल जल प्राणों में भय उपजाते हैं, 
मध्याह्न काल के सूर्य देव तन में नवस्फूर्ति जगाते हैं, 
 
लगती है कोमल सूर्य किरण, कोहरे से भरी पवन चलती
होती जाती है तीव्र शीत, सूरज का तेज-तप हरती, 
 
होती है जब तुषार-वर्षा, वन-कानन सूने होते हैं, 
कमलों की दुर्गति देख-देख, सरवर-तड़ाग सब रोते हैं, 
 
धूमिल-धूसर पौषी रातें, लगती हैंं जैसे अंतहीन, 
आकाश तले अब शयन कहाँ? भवनों से करते सभी प्रीत, 
 
अब लगे सूर्य मानव को प्रिय और इंदु उपेक्षित होता है, 
अपने को यों दुर्दिन में पा, निशिकर नि:श्वासें भरता है, 
 
‘'पूनम की चंदा’ सी सीता, सह घाम-वात कुम्हलाई ज्यों
शीतल तुषार की बूँदों से शशि ने निज कांति गँवायी त्यों, 
 
हिम कणिका के शर हाथ लिए पश्चिमी पवन बौराई है 
करने को तन पर शीत-घात दुगनी गति से उठ धाई है, 
 
इस उषाकाल की बेला में जल-पाखी कलरव करते हैं, 
कोहरे से ढके खेत और वन कितने मनमोहक लगते हैं! 
 
दानों से भारी धान्य बालें, गुच्छे बन करके हैं लटकी, 
मन में भ्रम होता है मानो खर्जूर मंजरी कनक लसी, 
 
वह दूर क्षितिज में सूर्य उगा, पर लगता है चंद्रोदय-सा
इस शीतकाल के कोहरे ने, आकर उसको जो पूर्ण ढका!! 
 
पीली और लाल-शुभ्र आतप, लगती है अति सुकुमारी सी, 
मध्याह्न काल के यौवन में, हो जाती है सुखकारी सी, 
 
सूर्योदय की स्वर्णिम किरणें जब तुहिन कणों पर पड़ती हैं, 
घासों पर बिखरे हैं मोती तब यही प्रतीति होती है, 
 
देखो भैया, यह प्यासा गज, सरिता के तट पर आया है 
पी लेने को जीभर कर जल फिर अपना शुंड बढ़ाया है, 
 
लेकिन छूते ही शीतल जल, ‌यह बेचारा घबराया है, 
है तीव्र तृषा इसकी लेकिन, कुछ पीछे यह हट आया है! 
 
कायर योद्धा के जैसे, ये जल-पाखी सरिता तट बैठे 
सरिता का जल है ‘युद्ध-भूमि’, कायर उसमें क्योंकर पैठें? 
 
तज कर अपने पत्रक-प्रसून, वन राशि नग्न ही दिखती है, 
तम और तुहिन से ढकी हुई वह, सुप्त-सुन्दरी लगती है, 
 
सरिता कोहरे से ढकी हुई आँखों से सदा ओझल रहती 
तट की सिकता झिलमिल चमकी, तब जाकर हमें राह मिलती, 
 
सारस, बगुले, सब जल-पक्षी दिखलाई कहीं नहीं पड़ते 
जल-क्रीड़ा के उनके कलरव, बस कर्ण पटल पर हैं गिरते! 
 
मानव काया सा ज़रा-जीर्ण, यह कमल-ताल श्री-हीन हुआ, 
पंखुड़ियाँ केसर झड़े सभी केवल वृंतक है शेष बचा, 
 
हे, भ्रात! भरत भी ऐसे ही ऋतुओं के सब दुख सहते हैं
करते हैं नंदीग्राम वास, तापस का जीवन जीते हैं!! 

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