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जीवन की संध्या

 

बहती नदिया के तट बैठी
जीवन की संध्या तकती हूँ 
पल-पल गहराते इस तम में
होते परिवर्तन लखती हूँ, 
 
यौवन का सिंदूरी सूरज 
जब अस्ताचल नंघ जाएगा 
मेरे जीवन का साथी ही
तब चंदा-सा मुस्काएगा, 
 
जीवन पथ चमक उठा जिनसे, 
वे अग्रज दीपों जैसे हैं 
इस जीवन संध्या में भी वे 
नित हृदय प्रकाशित करते हैं, 
 
अपने अनुभव आलोक से वे
मग का दिग्दर्शन करते हैं, 
मेरे मन के आँगन में सब
दीपों से झिलमिल करते हैं, 
 
छोटी-छोटी मधुरिम यादें
जुगनू सी चमक दिखाती हैं, 
कुछ क्षण आँखों के आगे आ
स्मृतिओं में लुक जाती हैं, 
 
शुभ कर्म किए जो कुछ हमने 
उनसे जीवन को अर्थ मिला, 
फैली सुवास इस संध्या में 
मानो निशिगंधा फूल खिला, 
 
संतति-मित्रों की टोली जो
फैली है पूरी जगती में, 
नक्षत्रों-तारावलियों सी 
संतुष्टि भरती है मन में, 
 
जीवन पथ पर जो स्नेह मिला 
वह धवल चंद्रिका जैसा है, 
इस ढलती काया को भी वह, 
सिहरन बन शीतल करता है, 
 
धीरे-धीरे यह संध्या ही
रजनी बनकर ढल जाएगी 
आएगी फिर वह 'महानिशा'
जो चिर निद्रा में सुलायेगी। 

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