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ज़िद्दी घरवाली और जानवरों की बोली

 

प्रिय पाठक, इस अंक में, मैं जो लोक-कथा आपके लिए लेकर आई हूँ वह आज के ‘लिंग-समानता’ और ‘नारी-मुक्ति’ के युग में विवाद खड़े कर सकती है! आप सब इस बात से तो सहमत ही होंगे कि किसी लोक कथा के जन्म का समय ठीक-ठीक निश्चित कर पाना लगभग असंभव है और साथ ही लिखनेवाले का निर्धारण भी उतना ही कठिन। 

सदियों से लोक कथाएँ एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलती रही हैं। इस लोक कथा में प्रतिपादित ‘सिद्धांत’ से मेरा सहमत अथवा असहमत होना आवश्यक नहीं है। मैं तो मात्र अनुवादक हूँँ। कहानी को उसी रूप में आपके सामने प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही हूँँ, जिस रूप में संकलन कर्ता ने उसे अपने संग्रह में स्थान दिया है। कथा का उद्देश्य विवाद खड़े करना नहीं बल्कि मात्र मनोरंजन है:

एक बार की बात है, किसी गाँव में एक दंपती रहते थे! बेचारे आदमी को उसे गाँव में इतना काम नहीं मिल पाता था कि पति-पत्नी का गुजा़रा चल सके, इसलिए वह दूसरी बस्ती में चला गया और एक पुजारी के घर मज़दूरी करने लगा। एक दिन उसे पुजारी के खेत में काम करते हुए एक बहुत-बड़ा कुकुरमुत्ता मिला, जिसे वह उखाड़ कर मलिक के घर ले गया। उस अजूबे कुकुर्मुत्ते को देखकर पुजारी ने सेवक मजूरे से कहा कि कल वह उसे जगह को और गहरा खोदे और जो कुछ भी मिले वह घर ले आए। मजूरे ने जब अगले दिन खेत में उस जगह थोड़ी गहरी खुदाई की तो उसे साँपों का एक जोड़ा मिला जिन्हें मारकर वह मलिक के पास ले आया। जिस समय मजूरा मरे साँप लेकर पुजारी के घर आया, उसी समय कोई भक्त ईल मछली (साँप के आकार की मछलियाँ) से भरी टोकरी दे गया। पुजारी ने रसोईदारिन से कह दिया की सबसे पतली दो ईल मछलियों को पका कर मज़दूर को खिला देगी। मजूरे ने साँप भी ईल की टोकरी में ही रख दिए थे। रसोई बनाने वाली ने भूल से दोनों साँपों को तलकर मज़दूर को खिला दिया। 

मज़दूर भी स्वाद लेकर खाना खा गया। 

खाने के बाद मज़दूर जब बरामदे में जाकर बैठा तो उसे बातचीत करने की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी। उसे ऐसा लगा मानो वहाँ बैठे कुत्ता और बिल्ली आपस में बातें कर रहे हों। 

कुत्ता कह रहा था, “मुझे तुमसे अधिक खाना मिलना चाहिए।” बिल्ली ने भी कहा, “नहीं मुझे तुमसे अधिक खाना मिलना चाहिए।” 

“मैं तो मालिक के साथ बाहर जाता हूँँ,” कुत्ता कहने लगा, “और तुम घर में ही रहती हो, इसलिए मुझे तो खाना तुमसे ज़्यादा मिलना ही चाहिए।”

“मलिक के साथ बाहर जाना तो तुम्हारा काम ही है,” बिल्ली बताने लगी, “जैसे मेरा काम घर में रहना है।” 

मजूरे सेवक को ऐसा लगा मानो उसे जानवरों की बोली समझ में आने लगी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि यह कमाल खाने में खाए गए साँप के मांस का न हो! 

सोने जाने से पहले वह अस्तबल में टट्टू और खच्चरों को रातब देने गया तो यहाँ भी उसने बातें सुनी, “इस आदमी को मुझे ज़्यादा रातब देना चाहिए,” टट्टू कह रहा था, “क्योंकि मैं आगे-आगे सवार को लेकर चलता हूँँ।”

इस पर खच्चर ने अपना विरोध दिखाया, “तुम सवार को लेकर चलते हो तो इससे क्या? मैं भी तो बोझा लेकर पीछे चलता हूँँ!”

यह सब सुनकर मजूदर ने रातब के दो बराबर हिस्से किये और टट्टू और खच्चर को दे दिया। अब खच्चर बोल उठा, “देखो मैं कहता था न कि यह मज़दूर बहुत सही आदमी है!” 

अब जब वह सोने जाने लगा तो बिल्ली उसके पास आई और बोली, “सुनो, मुझे पता चल गया है कि तुम हमारी बोली समझ सकते हो। जब तुम अस्तबल में काम कर रहे थे तब मालिक ने महाराजिन को बुलाया और साँपों का मांस लाने को कहा। उसने बताया कि वह मांस तो तुम खा चुके हो। अब मलिक यह जानना चाहता है कि क्या तुम हम जानवरों की बोली समझ लेते हो? उसने यह बात किसी तंत्र की किताब में पढ़ी थी। अब वह यह पता लगाने की कोशिश करेगा कि क्या तुम सचमुच हमारी बोली समझ लेते हो। तुम सावधान रहना। अगर मालिक को यह बात मालूम हो गई कि तुम वह ताक़त पा गए हो तो तुम मारे जाओगे और मालिक को वह शक्ति मिल जाएगी।”

बिल्ली से यह सब जानकर मज़दूर सेवक सावधान हो गया कि मालिक को यह बात मालूम न होने पाए। 

मालिक को कुछ दिनों तक जब कुछ भी पता न लग सका तब उसने इस मज़दूर को अपनी सेवा से हटा दिया। बेचारा मज़दूर उदास मन से अपने घर वापस चल पड़ा। रास्ते में उसकी भेंट भेड़ों के रेवड़ के मालिक से हो गई। बातों ही बातों में पता चला कि रेवड़ का मालिक बहुत परेशान था क्योंकि हर रात ही रेवड़ में से एक दो भेड़ ग़ायब होती जा रही थीं। इस पर मज़दूर ने पूछा, “अगर मैं और भेड़ें ग़ायब न होने दूंँ, तो तुम मुझे क्या दोगे?” 

रेवड़ वाला गड़रिया बोला, “अगर भेड़ों का ग़ायब होना बंद हो गया तो मैं तुम्हें एक घोड़ी और उसका बछेड़ा दे दूँगा।”

मज़दूर अब गड़रिये के साथ ही हो लिया। रात में वह पुआल बिछाकर रेवड़ के पास ही सोया। 

जब आसपास सन्नाटा छा गया तब आधी रात में मजूरे को कुछ धीमी-धीमी आवाज़ सुनाई देने लगी। पास के जंगल के कुछ भेड़िए रखवाले कुत्तों को धीरे से बुला रहे थे, “भैया झबरू!”

“हाँ भैया दंतु!”

“हम भेड़ लेने आ जाएँ?” 

 कुत्तों ने कहा, “नहीं-नहीं बाहर ही कोई सो रहा है।”

आठ दिनों में जब मजूरे को कुत्तों की दग़ाबाज़ी अच्छी तरह समझ में आ गई, तब उसने पुराने, नाकारा कुत्तों को मार दिया और रखवाली के लिए नए कुत्ते रख दिए। उस रात फिर भेड़िये आए और आवाज़ लगाई, “ओ भैया झबरू! क्या हम आ जाएँ?” 

इस पर नए कुत्ते बोले, “बिल्कुल आ जाओ, हम तुम्हें भी वही पहुँचा देंगे जहाँ तुम्हारे साथी हरामी कुत्ते गए हैं।” 

जब दस दिनों तक भी कोई भेड़ ग़ायब नहीं हुई तो गड़रिया ने मज़दूर को एक घोड़ी और उसका बछेड़ा देकर विदा कर दिया। 

जब वह घर पहुँचा तो उसकी घरवाली जानवरों को देखकर ख़ूब ख़ुश हो गई कि उसका पति दो सुंदर जानवर कमा कर ले आया है। लेकिन बीवी के बहुत पूछने पर भी उसने यह नहीं बताया कि उसने यह जानवर भला कमाए कैसे? 

कुछ दिनों बाद पास के क़स्बे में मेला लगा। मजूरे ने सोचा-चलो बीवी को घोड़ी पर बैठा कर मेला घुमा लाएँ है। दोनों घोड़ी पर सवार होकर मेले की ओर चल पड़े। घोड़ी आगे चली और बछेड़ा पीछे-पीछे चला। कुछ देर बाद बछेड़ा बोला, “माँ, ज़रा धीरे-धीरे चलो ना!”

इस पर माँ घोड़ी बोली, “बेटा ज़रा दम लगा कर चलो, मेरे ऊपर तो दो लोग भी सवार हैं, चलो, तेज़ी से चलो, शाबाश!”

माँ-बेटे की यह बात सुनकर मज़दूर खिलखिला कर हँस पड़ा। इस पर उसकी बीवी को बड़ी हैरानी हुई बोली, “यह बिना बात तुम हँस क्यों रहे हो?” 

“कुछ नहीं, बस यूँ ही हँसी आ गई।”

इस पर बीवी ने फिर कहा, “मुझे अभी बताओ नहीं तो मैं यही उतर जाऊंँगी।”

मजूरा बोला, “अच्छा चलो, मेले में पहुँच कर बता दूँगा!” 

जब मेले में पहुँच गए तब बीवी शुरू हो गई, “अब तो मेले में आ गए। अब बताओ तुम अचानक क्यों हँस पड़े थे?” 

“अरे बाबा, यहाँ चुप रहो ना, घर पहुँच कर बताता हूँँ।”

अब बीवी ने मेले में घूमने-फिरने से भी मना कर दिया और वापस घर आने की ज़िद करने लगी। जैसे ही उन्होंने घर में क़दम रखा तो वह फिर बोली, “लो अब तो घर भी आ गए, तुरंत बताओ कि तुम हँसे क्यों थे?” 

कुछ सोच कर मज़दूर बोला, “जाओ तुम पुजारी को बुला लाओ, जब। वह आ जाएँगे। तब बताऊँगा!” 

बीवी तुरंत तैयार होकर पुजारी को बुलाने चल दी। 

उसके जाने के बाद बेचारा मज़दूर सोचने लगा कि—अब तो मुझे पूरी बात बतानी ही पड़ेगी और जब ख़बर फैलेगी तो पुजारी मुझे मार देगा। मरने से पहले मैं पुजारी के सामने अपने पापों का प्रायश्चित तो कर ही लूँगा जिससे मरने के बाद नरक की आग में न जला पड़े। 

चिंता में डूबे हुए ही उसने मुर्गियों को चुग्गा-दाना फेंक दिया! दाने देखते ही मुर्गा सबसे पहले पंख फड़फड़ाता आया और सबसे पहले दाने चुगने लगा। यह देखकर मज़दूर ने पूछा, “तुम मुर्गियों को दाना क्यों नहीं चुगने दे रहे हो?” 

मुर्गा बोला, “मुर्गियों को मेरे कहने में रहना होगा। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि वे कई हैं और मैं अकेला! मेरे पास तुम्हारी तरह अकेली बीवी भी नहीं है जो अकेली होकर भी तुम पर हुक्म चलती है! उसके कारण ही अब तुमको मरना होगा।”

मज़दूर ने बड़ी देर तक इस बारे में सोचा फिर मुर्गे से बोला, “तुम मुझसे ज़्यादा समझदार हो भाई।”

अब उसने घर में से एक छड़ी निकाली उसे झाड़ा-पोंछा, तेल लगाकर तैयार किया और बीवी का रास्ता देखने लगा। 

कुछ देर में घरवाली आ गई और अंदर आते ही फिर बोली, “पुजारी जी आ रहे हैं। अब तो मुझे बता दो कि तुम मेले जाते हुए क्यों हँसे थे?” 

मज़दूर ने छड़ी घुमाई और दे दनादन आठ-दस छड़ियाँ ज़िद्दी घरवाली को जमा दीं। तभी पुजारी जी भी भीतर आए और पूछा, “मुझे किसने और क्यों बुलाया है?” 

मज़दूर बोला, “मेरी बीवी ने आपको बुलाया था।”

कुछ देर पुजारी मज़दूर और उसकी बीवी को ताक़ता, हैरान खड़ा रहा! फिर चुपचाप धीरे से वहाँ से निकल गया। 

थोड़ी देर में अपने को सँभाल कर घरवाली बाहर आई। अब मज़दूर ने उससे कहा, “आओ तुम्हें बताऊँ, मैं क्यों हँस रहा था!”

“जहन्नुम में जाओ तुम, मुझे कुछ नहीं सुनना है।”

और उस दिन के बाद से घरवाली ने कभी ज़िद नहीं की! दोनों सुख-समझदारी से रहने लगे। 

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