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दशहरे का मेला

आज से लगभग आधी सदी पहले, जब मेरा बचपन था
उस समय दशहरे के मेले का बड़ा आकर्षण था, 
 
दशहरे की संध्या को हम मेले जाते थे, 
प्यारे खिलौने लाते, मनभावन चीज़ें खाते थे, 
 
आँखों में काजल, बालों में रिबन के फूल बना माँ हमें सजाती थी
धोबी के घर से आई नई धुली फ़्रॉक भी पहनाती थी, 
 
स्वेच्छा से खरचने को पैसे दिए जाते थे
मामा-चाचा हमें मेले ले जाते थे, 
 
“साथ साथ रहना”, “हाथ मत छोड़ना“
बार-बार माँ से हिदायत यह पाते थे, 
 
उछल-कूद करते, गिरते-सँभलते, 
कभी झिड़की, कभी दुलार पाते, 
हम मेले पहुँच जाते थे, 
 
ढोल नगाड़े पिपिहरी के स्वर
मन में आनंद उपजाते थे–
गैस के गुब्बारे, गुब्बारों से बने हाथी-बंदर मन को लुभाते थे, 
 
तीन काले पुतले हमें दूर से ही दिख जाते थे, 
रावण के दस सिर मन में कुतूहल भर जाते थे, 
कुंभकरण-मेघनाद
रावण के भाई-बेटा समझाये जाते थे, 
 
बर्गर, चाऊमीन के तो हम नाम भी न जानते थे! 
‘बुढ़िया के बाल’ खाने से
होंठ गुलाबी रंग जाते थे
रंगीन बाँस पर लिपटी मसाल-पट्टी से 
घड़ी, छड़ी, हार, हुक्का, हवाई जहाज़ बनवाए जाते थे, 
कुछ देर खेलकर जिन्हें, हम ‘चट’ कर जाते थे
 
मेले की भीड़ में जब माँ की याद आती थी, 
घर के लिए गट्टे और मूँगफली की पुड़िया बँध जाती थी, 
लड़के राम का धनुष, हनुमान की गदा घर लाते थे
मोहल्ले में कई दिनों तक केवल राम-हनुमान ही नज़र आते थे, 
हम बहनें लाल मिट्टी की चूल्हे-चक्की की गृहस्थी ख़रीद लाती थीं, 
जो भाइयों से लड़ाई के समय उनके ग़ुस्से की भेंट चढ़ जाती थीं, 
कुछ देर रो-बिलख कर हम चुप हो जाते थे 
अगले दशहरे की प्रतीक्षा में दिन गिनने लग जाते थे, 
ऐसा होता था बचपन का दशहरा हमारा
जो आज भी याद आ कर भिगोता है
तन मन सारा . . .!

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