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भ्रमर और गुलाब का पौधा

ओ, भ्रमर तू कहाँ 
ऋतुशीत की थी जब घनेरी, 
काॅंपता था गात थर-थर
तब कहाँ थी छुअन तेरी? 
 
पुष्प सारे झर गए थे 
पात थे पीले पड़े, 
कंटकों से तन भरा था
साथ केवल वे खड़े, 
 
पुष्प थे जब, मीत था तू
गीत प्रतिदिन था सुनाता
दुर्दिनों में साथ छोड़ा 
भूलकर वह नेह-नाता? 
 
शीत भर सोया पड़ा था 
ओढ़ चादर तंतुओं की 
था तृषित मन, प्राण व्याकुल 
प्रतीक्षा मधुमास की थी, 
 
चाप सुनकर चिर प्रतीक्षित 
हो गया चेतन त्वरित ही, 
काट बंधन मुक्ति पाई 
आस ले प्रिय के मिलन की, 
 
देखकर ऋतुराज चहुँ दिशि
हो उठा आनंद पूरित, 
प्यास मानो और जागी
देखकर बहु पुष्प सुरभित, 
 
आएगी प्रिय ऋतु बसंती
थाल भर उपहार लाई
तृप्त करती प्यास मेरी
शीत भर जो बुझ न पाई! 

 

बात सुनकर भ्रमर की यह
दग्ध पाटल रो पड़ा, 
मीत समझा था जिसे
वह दूर जाकर था खड़ा! 
 
पुष्प भोले! रीत जग की
भूल तू कैसे गया? 
जीव लोभी, दुर्दिनों में
मीत किसका कब भया!!!! 

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