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ज्ञान-गुन सागर रामदूत

 

भारतीय सनातन धर्म के अनुसार हिंदुओं के देवताओं की संख्या ‘तैंतीस कोटि’ है। इस वाक्य में प्रयुक्त ‘तैंतीस कोटि’ का अर्थ करने में धार्मिक विद्वान गुरु एकमत नहीं है। परन्तु यह सनातन सत्य है कि विष्णु के अवतार श्री कृष्ण और श्री राम भारत के श्रद्धालु हिंदुओं के सबसे प्रिय देवता हैं। कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ और उनका कर्म क्षेत्र द्वारिका-गुजरात तक रहा। उन्होंने जो भी महान कर्म किए, वे राजपरिवारों से संबंधित थे। राम का जन्म भी भारत के उत्तरी भाग अयोध्या में हुआ और उनका कर्म क्षेत्र, चित्रकूट, दंडकारण्य, धनुष्कोटी से होता हुआ श्रीलंका तक विस्तृत रहा। श्री कृष्ण के विपरीत, श्री राम ने सामान्य जन के हित के कार्य किए। इसलिए यदि कृष्ण की अपेक्षा जनसामान्य में राम की जीवन-गाथा अधिक लोकप्रिय है, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। 

वाल्मीकि ‘रामायण’ वह आदि ग्रंथ है जिसमें सर्वप्रथम राम की जीवन गाथा वर्णित है। इसी महाकाव्य के आधार पर तुलसीदास ने अवधी बोली में जनप्रिय रामचरितमानस की रचना की। ‘रामायण’ के समान ही ‘रामचरित-मानस’ भी पाँच कांडों का ग्रंथ है, जिसमें सर्वाधिक जनप्रिय सुंदरकांड है। सुंदरकांड का पाठ धार्मिक प्रवृत्ति वाले लोग मंगलवार, शनिवार या किसी भी अन्य शुभ अवसर पर करते और करवाते हैं और उसका आनंद लेते हैं। 

 . . . सुंदरकांड में रामदूत हनुमान, साधु वेशधारी रावण द्वारा हरण की गई सीता का पता लगाने जाते हैं। सुन्दर काण्ड में श्री हनुमान का विशाल रूप धारण कर सागर पार करना, रावण के महल को देखना, अशोक वाटिका में सीता का दर्शन, उन्हें राम की अँगूठी देना, राम को सीता का समाचार सुनाना, राम का वानर सेना को साथ ले रावण के साथ युद्ध के लिए उद्धत होना, राम का एक बार पुनः रावण के पास संधि प्रस्ताव भेजना, विभीषण का राम की शरण में आना और सागर पर सेतुबंध होने तक की कथा निहित है। 

हनुमान विशाल रूप धारण कर सीता का पता लगाते हुए सागर को एक छलाँग में पार करके लंका पहुँच जाते हैं और रात होने की प्रतीक्षा करते हैं। रात में वे सूक्ष्म रूप धारण कर रावण के महल में हर जगह सीता को खोजते हैं, अंत में वह उन्हें अशोक वाटिका में दीन-हीन, मलिन, अत्यन्त करुण अवस्था में आत्महत्या के लिए तत्पर दिखलाई पड़ती हैं। 

श्री हनुमान सीता की यह दशा देखकर व्याकुल हो जाते है और उनकी प्राण रक्षा हेतु राम का संदेश उन्हें देना आवश्यक समझते हैं। जिससे वह आत्मघात न करके राम के आने की प्रतीक्षा करें। साथ ही उनके मन में यह आशंका भी है कि सीता उनका प्रकट होना किस रूप में लेंगी? वह डर जाएगी? आशंकित होगी या धैर्य धारण कर उन पर विश्वास करेंगी? 

तुलसीदास की रामचरितमानस में हनुमान की यह यह मानसिक उहापोह की स्थिति कुछ पंक्तियों में ही लिख दी गई है:

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब। 
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥
 
सीता मन विचार करना नाना, मधुर वचन बोलेउ हनुमाना। 
रामचंद्र-गुन बरनै लागा, सुनतहि सीता कर दुख भागा॥ 

कपि के हृदय में ‘विचार’ करने की इस प्रक्रिया को जिसे तुलसीदास ने मात्र तीन चार पंक्तियों में सीमित कर दिया है, उसका विस्तृत वर्णन वाल्मीकि ने ‘रामायण’ के सुंदर कांड के तीसवें सर्ग में चौवालीस श्लोकों में किया है। 

इस सर्ग में हनुमान के हृदय में उत्पन्न होने वाले तर्क-वितर्क, द्विविधा, संशय, संभावनाओं को वाल्मीकि ने जिस विस्तार से वर्णन किया है वह कवि की तार्किक शक्ति का सुंदर प्रमाण है। रामायण के इसी सर्ग का वर्णन में यहाँ कर रही हूँ, इससे आपको भी यह विश्वास हो जाएगा कि हनुमान जी को ‘ज्ञान, गुन, सागर’ और ‘कुमति निवार, सुमति के संगी’ कहना वास्तव में कितना उचित है:

हनुमान सीता का पता लगाते हुए सागर को एक छलाँग में पार करके लंका में प्रवेश करते हैं और रात होने की प्रतीक्षा करते हैं। रात में वे सूक्ष्म रूप धारण कर रावण के महल, वहाँ की गलियों, सड़कों, भवनों में सीता को खोजते हैं और अंत में उन्हें अशोक वाटिका में आत्महत्या के लिए उद्धत सीता दिखलाई पड़ती है। अशोक वाटिका में सीता उदास बैठी थीं। रक्षक राक्षसियाँ उन पर निगरानी रख रही थीं। हनुमान उसी अशोक वृक्ष में छोटा सा रूप बनाकर जा बैठे, जिसके नीचे राम की प्राण प्रिया सीता शोक मग्न बैठी थीं। 

तभी वहाँ रावण आया सीता को आत्मसमर्पण के लिए बाध्य करने का उसने प्रयत्न किया। परन्तु सीता की दृढ़ता से निराश हो दो मास की अवधि सीता को देकर वहाँ से चला गया। उसके चले जाने के बाद रक्षिकाएँ सीता को रावण की प्रार्थना के आगे झुक जाने के लिए प्रताड़ित करने लगीं। तब त्रिजटा नामक भविष्य द्रष्टा राक्षसी ने दासी राक्षसियों को अपने स्वप्न की बात बताई कि राम युद्ध में रावण को परास्त कर, सीता को वापस ले जाएँगे। इस युद्ध में रावण की मृत्यु संभावित है। राक्षसियाँ तो आख़िर दासी ही थीं न, उन्होंने सीता को दुख देना बंद कर दिया। त्रिजटा के सपने की बात सुनकर और अन्य शुभ शगुनों (बायें अंगों का फड़कना) के चिह्न देखकर सीता कुछ तो आश्वस्त हुईं। लेकिन फिर भी उन्हें भाग्य पर पूरा भरोसा न था। वे वृक्ष के नीचे चुपचाप बैठकर अपनी दुर्दशा पर विचार करने लगी। वहीं ऊपर अशोक के पेड़ पर बैठे हनुमान जी सीता को देख प्रसन्न हो गए और मन में विचार करने लगे:

“मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि मैं उन सीता को देख रहा हूँ जिनको हज़ारों-लाखों बंदर चारों दिशाओं में ढूँढ़ रहे हैं! मैंने तो लंका में सीता का हरण करने वाले रावण को भी देख लिया और उसकी शक्ति का अनुमान भी लगा रहा हूँ। अब तो राम के दर्शन को तरसती सीता को आश्वासन देकर संतुष्ट करना मेरा काम है। 

“इस राजकुमारी ने न तो पिता के घर में न ही ससुराल में ऐसे दुख कभी देखे और न ही सुने हैं। वह तो दुख और पीड़ा से मूर्छित हो रही हैं। ऐसे में बिना उनसे कुछ कहे वापस जाना पाप है, मैं पातकी हो जाऊँगा। मैं यदि उनसे बिना कुछ कहे चला जाऊँगा तो वह अवश्य ही आत्महत्या कर लेंगी। यदि उधर श्री राम, सीता का समाचार पाने को व्यग्र है तो यहाँ सीता भी राम के दर्शन के लिए व्याकुल हैं। यदि राम को सीता का समाचार देना मेरा कर्त्तव्य है तो सीता को भी उनके पति का समाचार मिलना ही चाहिए। 

“लेकिन मैं इन क्रूर और भयंकर, रावण द्वारा नियुक्त की गयी राक्षसियों के सामने सीता जी से बात नहीं करना चाहता। फिर कैसे बात करूँ? यही मेरी समझ में नहीं आ रहा है! 

“मैं आज की रात यदि सीता को राम का संदेश देने में सफल न हुआ तो अवश्य ही वह अपना जीवन नष्ट कर लेंगी। 

“मानो लो कि मैं विदेहनंदिनी से बात नहीं कर पाता तो, वापस जाने पर जब राम जी सीता के बारे में पूछेंगे तो उन्हें क्या जवाब दूँगा? 

“राम सीता के वियोग से बहुत अधिक व्याकुल हैं, यदि सीता का पूरा समाचार लिए बिना वापस चला गया तो राम अपनी क्रोधाग्नि से मुझे भस्म ही न कर दें! 

“चलो, एक बार मान लो कि वैदेही को सांत्वना दिए बिना ही लौट जाऊँ और सुग्रीव को राम का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए उत्तेजित करूँ! तो वानर सेना के साथ उनका आना ही व्यर्थ हो जाएगा क्योंकि तब तक सीता जीवित ही नहीं बचेंगी! 

“अच्छा चलो, अभी इन राक्षसियों के यहाँ रहते हुए ही मैं यहाँ वृक्ष में बैठे ही बैठे, धीमी आवाज़ में सीता जी को समझाना आरंभ कर दूंँ, तो पहली बात तो यह कि दुखी होने के कारण मेरी आवाज़ सुन ही न पाएँ। दूसरे, मैं वानर हूँ (यक्ष स्री और देवता पुरुष के संयोग से उत्पन्न जाति) इस समय मेरा शरीर भी बहुत छोटा है लेकिन मुझे तो मनुष्य की भाषा, संस्कृत में ही बोलना होगा और ऐसा करने से कहीं सीता मुझे रावण ही न समझ लें, क्योंकि यहाँ राक्षसों के बीच वही तो एक संस्कृत बोल सकने वाला विद्वान द्विज है। बेचारी डर से ही मर जाएँगी। 

“फिर तो मुझे उस बोली-भाषा का ही प्रयोग करना उचित है, जो अयोध्यावासी जनता बोलती है। यदि ऐसा न कर पाया तो भयभीत सीता समझ ही क्या पाएँगी? 

“यदि उनके सामने वानर रूप में मानव भाषा बोलने लगा तो इन राक्षसों की माया से चकित, शंकित, घबराई और व्याकुल जनक दुलारी अधमरी ही हो जाएगी! 

“भय के कारण बौखला कर यदि वे चीख़ने-चिल्लाने लगी तब यह भयंकर, पहरा देने वाली राक्षसियाँ अपने शस्त्र लेकर दौड़ी चली आएँगी और मुझे घेर कर बंदी बनाने का प्रयत्न करने लगेंगी। 

“मैं अपने स्वभाव वश पेड़ों की डालियाँ पर चढ़कर इधर-उधर, कूद-फाँद करने लगूँगा। तब मेरे इस विशाल रूप को देखकर रक्षसियाँ, भी भायातुर हो चिल्लाने लगेंगी। उनकी चीख़-पुकार सुनकर महल के अन्य प्रहरी रक्षक यहाँ अशोक वाटिका में दौड़े चले आएँगे। 

“वे अपने बाण, तलवार और अन्य भाँति भाँति के हथियार लिए होंगे। देखते ही देखते हुए वे मुझे घेर लेंगे। अब ऐसी दशा में मुझे भी उनसे लड़ना ही पड़ेगा। 

“इस युद्ध में संभवतः मैं उनका संहार भी कर डालूँ, तो वापस अपने प्रभु राम के पास कैसे पहुँचूँगा? 

“रक्षक मुझे घेर कर पकड़ भी तो सकते हैं, फिर सीता की राम को देख पाने की इच्छा अधूरी ही रह जाएगी (राम तक कोई संदेश ही न पहुँच पाएगा)। 

“मैं देख रहा हूँ कि यहाँ सभी राक्षस स्वभाव से हिंसाप्रेमी हैं, कहीं ऐसा ना हो कि इस भागदौड़, और आपाधापी में वे जनक दुलारी सीता को ही मार डालें!! 

“यह स्थान चारों ओर से समुद्र से घिरा हुआ और भयंकर राक्षसों से रक्षित है। ऐसे गुप्त स्थान पर सीता को रखा गया है कि यदि मैं राक्षसों के साथ लड़ते हुए मर गया या फिर बंदी बना लिया गया तो राम जी और राजा सुग्रीव तक यहाँ का समाचार पहुँचाने वाला कोई न मिलेगा। यहाँ तो मेरा कोई सहायक भी नहीं है। मेरे अतिरिक्त कोई और यहाँ के सौ योजन चौड़े समुद्र को लाँघ जाने की क्षमता भी तो नहीं रखता। 

“देवताओं के वरदान के कारण मैं अपनी इच्छानुसार रूप धारण कर हज़ारों राक्षसों को मार तो सकता हूँ लेकिन फिर उसके बाद इस महासागर के पार जा सकूँगा, यह निश्चित नहीं है। 

“युद्ध में किस पक्ष की विजय होगी यह बात कभी निश्चय पूर्वक नहीं कहीं जा सकती। मुझे ऐसे काम करने में तनिक भी रुचि नहीं जिसमें संशय। हो . . . शायद कोई भी बुद्धिमान ऐसा नहीं करेगा। 

“सीता से बात करने में मुझे यही सबसे बड़ी कठिनाई लग रही है। और यदि बिना कुछ कहे चला जाऊँगा तो विदेहसुता अवश्य अपने प्राण त्याग देंगी और मैं स्वयं अपनी दृष्टि में पतित हो जाऊँगा। 

“‘दूत’ का कर्म भी बड़ा कठिन कर्म है। तनिक सी असावधानी अथवा अविवेक से बनता हुआ काम भी बिगड़ जाता है। अविवेकी और मूर्ख दूत अपने स्वामी की बुद्धिमत्ता और विवेक पर कलंक लगा देता है। 

“जो दूत अपने को अपने स्वामी से भी अधिक बुद्धिमान समझने लगे वह अवश्य ही बनता हुआ काम भी बिगाड़ देता है।”

फिर किस प्रकार यह काम ना बिगड़े, किस तरह उनसे कोई असावधानी न हो, किस तरह उनका समुद्रालंघन सफल हो और किस तरह बिना भयभीत हुए सीता जी उनकी बात सुन लें, इन सभी बातों पर विचार करने के बाद हनुमान ने निश्चय किया कि वह सबसे पहले सीता जी को, उनके प्रियतम राम के गुण और उनके द्वारा किए गए महान कर्म गाकर सुनाएँगे। वह अशोक वृक्ष की मोटी शाखा पर, पत्तों के बीच में छिपकर, आराम से बैठ गए और मीठे स्वर में राम की प्रियतमा पत्नी श्री सीता को, राम जी का चरित्र सुनाने लगे—“ईक्ष्वाकु वंश में दशरथ नाम के प्रसिद्ध, एक पुण्यात्मा राजा . . .

हनुमान द्वारा श्री राम का संदेश सीता को देने से पूर्व इतना विचार मंथन उनकी अपूर्व मेधा और विवेक को प्रकाशित करता है, और आदिकवि वाल्मीकि के काव्य कौशल को भी। 

बोलिए “पवन पुत्र हनुमान की जय”!!

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टिप्पणियाँ

मधु शर्मा 2025/09/29 09:53 PM

सीधे-सादे शब्दों में हनुमान जी के मन में उथल-पुथल मचाते विचार-मंथन द्वारा उनकी दुविधा का बहुत ही ज्ञानवर्धक व रोचक वर्णन। मुझ जैसे रामायण में रूचि रखने वाले सम्भवतः कई पाठक ऐसे होंगे जिन्होंने वाल्मिकी जी की 'रामायण' तो क्या तुलसीदासजी की 'रामचरितमानस' भी पूरी नहीं पढ़ी होगी। आपके आलेख ने अब रूचि और भी बढ़ा दी है। (वैसे दोनों ग्रन्थों में पाँच नहीं सात-सात कांड हैं, जो इस आलेख में शायद अनजाने में लिख दिया गया लगता है।) यदि हो सके तो सरोजिनी जी, आप रामायण के अन्य पात्रों के रोचक संदर्भों पर भी प्रकाश डालते रहिएगा। धन्यवाद व साधुवाद।

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