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एक मरणासन्न पादप की पीर 

 

एक  क्षीण धार  मृदु  जल  की थी 
जिसके तट पर मैं उगा, बढ़ा,
पल्लव फूटे और कुसुम खिले, 
तन पुष्ट हुआ और फलित हुआ।
 
डालों पर नीड़ खगों के थे
तनपर वल्लरियाँ लिपटी थीं
छाया में करती विविध केलि
छोटे बच्चों की टोली थी।
 
कुछ नए युवा प्रेमी जोड़े,
मेरी छाया में आते थे
हाथों में थामे हाथों को
इक दूजे से बतियाते थे,
 
तपते सूरज से त्रस्त पथिक
मेरी छाया में आते थे
कुछ देर निकट जो बैठे तो
दुनिया की कथा सुनाते थे,
 
सावन के भीगे मौसम में
डालों पर झूले सजते थे,
पींगें लेती ललनाओं के
कजरी के गीत गूँजते थे,
♦    ♦    ♦
पर कालचक्र कुछ यूँ घूमा
वह धारा जल की सूख गई,
एक कारखाने की  ‘वमन-धार’
उस लघु सरिता को लील गई, 
 
झर गए पात, फल सूख गए,
फूलों की बात कौन पूछे,
वल्लरियों ने नाता तोड़ा
हम रहे खड़े, सूने-छूँछे,
♦    ♦    ♦
हूँ खड़ा अभी  जल तीरे ही,
पर अब वह मैली तलैया  है 
अणु-अणु प्यासा इस काया का,
‘विष-रस’ न प्यास अब भरता है, 
 
क्या कभी स्वार्थी मानव  की
अनबुझ तृष्णा  बुझ पाएगी?
दूषित होती इस प्रकृति की
चीत्कार रंग दिखलाएगी?
 
विष उगल रहे चिमनी, नाले
क्या कभी बन्द हो पाएँगे?
अंतिम साँसें गिनते पादप
फिर से नवजीवन पाएँगे,
 
तकता हूँ पथ उस तटिनी का,
जिसके तट मैं शोभित था, 
वह प्राण वल्लभा थी मेरी,
उससे ही मुझमें जीवन था,
 
यदि  धार मिले मीठे जल की
मेरी तृष्णा मिट जाएगी 
हो जाएगा तन पुष्ट पुनः
पल्लव-कलियाँ मुस्काएँगी!

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